Sunday, July 7, 2024

विधुर विलाप ...


रुदाली धर्म निभाते हुए,

विधवा विलाप करने वाले,

हत्या निर्दोषों की बताने वाले,

बतकही हमारे जैसे कहने वाले,

ढोंगी बाबाओं को दोषी ठहराने वाले ...


दोषी तो निर्दोष ही सारे,

बाबा ढोंगी को बनाने वाले,

महात्मा पतित को जताने वाले,

बिना कर्म चाह फल की रखने वाले ,

अंधविश्वास, अंधभक्ति अपनाने वाले ...


काका हाथरसी आज होते

जो हास्य कविता सुनाने वाले,

पढ़ कविता यमदूत* भगाने वाले,

बोर कर बाबा फक्कड़* को मारने वाले,

हाथरस में थे बाबा कब फिर बचने वाले ? ...


बाबाओं के हों जितने रेले

या विज्ञापनों के जितने भी मेले,

संग बाला-नारियों के ही होते खेलें,

मरती भी हैं वही, जब हो भगदड़ के झमेले,

आओ तब विधवा विलाप नहीं, विधुर विलाप रो लें ..

.. बस यूँ ही ...

* = उपरोक्त बतकही में काका हाथरसी जी (प्रभुलाल गर्ग) से सम्बन्धित दूत* और फक्कड़* वाली बात उनकी हास्य कविता "अद्भुत औषधि" से प्रेरित है। संदर्भवश उनकी कविता की अक्षरशः प्रतिलिपि निम्नलिखित है :- 

              अद्भुत औषधि

कवि लक्कड़ जी हो गए, अकस्मात बीमार ।

बिगड़ गई हालत मचा, घर में हाहाकार ।।

घर में हाहाकार , डॉक्टर ने बतलाया ।

दो घंटे में छूट जाएगी , इनकी काया ।।

पत्नी रोई – ऐसी कोई सुई लगा दो ।

मेरा बेटा आए तब तक इन्हे बचा दो ।।


मना कर गये  डॉक्टर , हालत हुई विचित्र ।

फक्कड़ बाबा आ गये , लक्कड़ जी के मित्र ।।

लक्कड़ जी के मित्र , करो मत कोई  चिंता ।

दो घंटे क्या , दस घंटे तक रख लें जिंदा ।।

सबको बाहर किया , हो गया कमरा खाली ।

बाबा जी ने अंदर से चटखनी लगा ली ।।


फक्कड़ जी कहने लगे – “अहो काव्य के ढेर ।

हमें छोड़ तुम जा रहे , यह कैसा अंधेर ?

यह कैसा अंधेर , तरस मित्रों पर खाओ ।

श्रीमुख से कविता दो चार सुनाते जाओ ।।”

यह सुनकर लक्कड़ जी पर छाई खुशहाली ।

तकिया के नीचे से काव्य किताब निकाली ।।


कविता पढ़ने लग गए , भाग गए यमदूत ।

सुबह पाँच की ट्रेन से , आये कवि के पूत ।।

आये कवि के पूत , न थी जीवन की आशा ।

पहुँचे कमरे में तो देखा अजब तमाशा ।।

कविता पाठ कर रहे थे , कविवर लक्कड़ जी ।

होकर बोर, मर गये थे बाबा फक्कड़ जी ।। 】


Thursday, July 4, 2024

शब्दातीत चीख पीड़ाओं की ...


दरवाज़े पर कहीं बाहर दरबान की तरह 

या भीतर कहीं सजावटी सामान की तरह, 

संभ्रांत अतिथि कक्षों, आलीशान मॉलों में,

हवाईअड्डे, बार-रेस्टोरेंटों या पाँच सितारा होटलों में

हैं मूर्तियाँ तुम्हारी खड़ी-बैठी ध्यानमुद्राओं में, जिन्हें

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


दुष्प्रभाव से मद्यपान के क्षरित हों या ना हों,

मानव वृक्क-हृदय .. सारे के सारे तन हमारे, 

मादकता में मदिरा की भले ही हो या ना हो,

बुद्धि शिथिल व्यसनी जन की, तो भी .. उससे

पहले .. सच्ची-मुच्ची विवेक तो भ्रष्ट होता है, जिन्हें

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


मदिरा है प्रतिष्ठा का प्रतीक इस सभ्य समाज में 

बुद्धिजीवियों के बीच, है अनोखी सीख इनकी,

कबाबों .. चिकेन जैसे चखनों में दिखती ही नहीं,

सनी सजीवों की शब्दातीत चीख पीड़ाओं की, पर ..

ऐसे में .. सच्ची-मुच्ची संस्कार तो नष्ट होता है। 

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


पीपल तले, शुद्ध प्राणवायु में तुम रमने वाले,

उनकी तो ना सही, पर धुएँ में धूम्रपान के उनके, 

घुटते ही होंगे दम तो अवश्य ही तुम्हारे ..

हुँकारों से धर्मों-सम्प्रदायों के, हर्षित हैं वो सारे, पर परे

इससे .. सच्ची-मुच्ची मानव मन त्रस्त होता है।

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


{ महान रचनाकार हरिवंश राय बच्चन जी की कालजयी रचनाओं में से एक - "बुद्ध और नाचघर" को पढ़ने का तो नहीं, परन्तु लगभग सत्तर-अस्सी के दशक वाले वर्षों में एक चमत्कार की तरह अवतरित व प्रचलित उपकरण - टेप रिकॉर्डर और कॉम्पैक्ट कैसेट यानी ऑडियो कैसेट या टेप के सौजन्य से उन्हीं के सुपुत्र अमिताभ बच्चन की आवाज़ में सुनने का मौका अवश्य मिल पाया था। उन्हीं दौर में उपरोक्त उपकरण से ही मन्ना डे जी की मधुर आवाज़ में हरिवंश राय बच्चन जी की ही एक और दर्शन से भरी कालजयी रचना "मधुशाला" को भी सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।

तब भी पहली बार एवं तत्पश्चात् बारम्बार सुनने पर उपरोक्त दोनों रचनाओं ने मन पर गहरी छाप छोड़ी थी और आज भी बुद्ध की प्रतिमाओं के अनुचित स्थानों पर अनुचित प्रयोग किए जाने वाले दृश्यों को देखते ही .. संवेदनशील मन व्यथित व विचलित हो जाता है और .. स्वतःस्फूर्त कुछ बतकही फूट ही पड़ती है। }




Thursday, June 27, 2024

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१)

आज ही के दिन अर्थात् 27 जून को सन् 1880 ईस्वी में हेलेन एडम्स केलर नामक तत्कालीन भावी अमेरिकी अधिवक्ता, व्याख्याता, प्रभावशाली लेखिका, राजनीतिक कार्यकर्ता और वास्तविक विश्वस्तरीय जनकल्याण करने वाली समाजसेविका का जन्म हुआ था .. जो बचपन में ही एक अज्ञात असाध्य रोग से ग्रसित होने के कारण एक ही साथ अँधी, बहरी और आंशिक गूँगी हो गयीं थीं और वैसी ही जीवनपर्यंत बनी रहीं। 

परन्तु वह बोस्टन के पर्किन्स स्कूल फॉर द ब्लाइंड जैसी शिक्षण संस्थान और ऐनी मैन्सफील्ड सुलिवन मैसी जैसी आंशिक रूप से नेत्रहीन प्रशिक्षिका, जिन्हें उनका आजीवन सहयोगी भी बोला जाता है, के सहयोग से और उनके मार्गदर्शन में कला स्नातक की उपाधि पाने वाली विश्व की प्रथम मूक, बधिर और दृष्टिहीन महिला बनी थीं।

वह तत्कालीन अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन 'पार्टी' की सदस्या के रूप में अमेरिका के साथ-साथ और भी अन्य देशों के श्रमिकों व महिलाओं के मताधिकार और श्रम अधिकारों के समर्थन में आंदोलन छेड़ने के अलावा तत्कालीन कई कट्टरपंथी शक्तियों के विरोध में भी सतत अभियान चलाती रहीं थीं। उस जमाने में भी वह जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषय पर आवाज़ उठायीं थीं। वह विकलांगों के लिए यथोचित शिक्षा की व्यवस्था के साथ-साथ उनके अन्य मूलभूत अधिकारों के लिए भी ताउम्र आन्दोलन करती रहीं थीं। यूँ तो वह कई सकारात्मक पहलूओं की आन्दोलनकारी रहीं, पर संघर्षपूर्ण हिंसक क्रांति का समर्थन कभी भी नहीं करती थीं। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते उनकी अधिकांश रचनाएँ प्रायः युद्ध विरोधी ही हुआ करती थीं। 

हम अक़्सर पाते हैं, कि बड़ी सोचें हमेशा विस्तृत व विराट होती हैं, जो .. जाति-धर्म, दल-गुट, रंग-नस्ल, कद-काठी, नयन-नक़्श, भाषा-पहनावा, पुरुष-नारी, मुहल्ला-जिला, राज्य-देश जैसे विषयों की सीमा से परे .. बंधनमुक्त होकर विश्व के समस्त मानव जाति के लिए एक समान सोचतीं हैं।

ऐसी ही सोचों वाली हेलेन एडम्स केलर हमेशा इस बात को प्रमुखता देती रहीं, कि इस महान दुनिया में हर जगह घर जैसा महसूस करने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए। उन्होंने महिलाओं और विकलांगों के यथोचित अधिकारों के लिए कई-कई बार विश्व भ्रमण किया था। विश्व भ्रमण के दौरान विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज के बीच एक सहानुभूतिपूर्ण या .. यूँ कहें कि .. समानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण बनाने के प्रयास के साथ ही दानस्वरूप मिले एकत्रित करोड़ों रुपयों से विकलांगो के लिए, विशेष कर नेत्रहीनों के लिए अनेक संस्थानों का निर्माण भी करवाया था। 

वे ब्रेल लिपि में कई मौलिक ग्रंथ लिखी थीं और उन्होंने कई अन्य पुस्तकों का अनुवाद भी किया था। उनकी लिखी आत्मकथा "द स्टोरी ऑफ माई लाइफ" विश्व की लगभग पचास भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है।

लब्बोलुआब ये है, कि जिस तरह अपनी वाक्पटुता और अथक सक्रियता के समर्पण से अपने समस्त जीवन की ऊर्जा असंख्य मानवीय कार्यों के लिए वह न्योछावर करती रहीं, तो .. ये कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि सुनने, देखने और बोलने की क्षमता से वंचित, परन्तु ..  सूँघने, चखने एवं स्पर्श की शक्ति से सिंचित .. नेत्रहीन होते हुए भी एक विलक्षण नज़रिया वाली वह विश्व का आठवाँ आश्चर्य ही थीं।

कहते हैं, कि इन्हीं केलर और ऐनी की ही जीवनी से प्रेरित होकर सन् 1962 ईस्वी में "द मिरेकल वर्कर" नामक अमेरिकी फ़िल्म बनी थी। वर्तमान 'सोशल मीडिया' में प्रचलित निर्लज्ज 'कॉपी & पेस्ट' वाली प्रवृति की तरह ही भारतीय सिनेमा जगत में भी धड़ल्ले से की जाने वाली 'कॉपी & पेस्ट' की चर्चा .. जैसाकि पहले भी हम कर चुके हैं, तो .. उस "द मिरेकल वर्कर" की कथानक में कुछ-कुछ फेर-बदल कर के अपने यहाँ "ब्लैक" नामक फ़िल्म सन् 2005 ईस्वी में संजय लीला भंसाली द्वारा बनायी गयी थी। सर्वविदित है कि उसमें अमिताभ बच्चन और रानी मुख़र्जी ने अभिनय किया था। 

उन्हीं हेलेन एडम्स केलर जैसी महान विभूति की सोचों के अवलोकन से प्रेरित होकर .. आज भी हमारे समाज के इर्द-गिर्द कई या कुछेक नारियों की एक अनछुई-सी .. अनबोली-सी .. अनसुनी-सी और .. अनदेखी की गयी पारिवारिक-सामाजिक समस्या को छूने का एक तुच्छ प्रयास भर है हमारा .. हमारी आज की निम्नलिखित बतकही (कहानी) में ...


खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१) :-

" हेलो ! .. काकोली .. अभी सुबह पार्वती तुम्हारे घर आयी थी क्या ? "

" नहीं तो 'आँटी' .. मेरे यहाँ भी तो .. आज नहीं आयी है। उसका मोबाइल भी 'स्विच ऑफ' आ रहा है। सौम्या भाभी से पता करना पड़ेगा .. "

" मेरे यहाँ भी नहीं आयी। इतना दिन निकल आया। अब तो साढ़े ग्यारह बजने वाला है। दरअसल सुबह-सुबह सबसे पहले तो तुम्हारे घर ही आती है ना .. फिर सौम्या के पास से नैना के घर का काम करते हुए ही हमारे पास आती है। इसीलिए सबसे पहले तुम्हीं को फोन लगायी .. अब सौम्या से पूछती हूँ और फिर नैना से भी .. "

" हाँ 'आँटी' .. पर .. अगर आप कहें, तो सौम्या भाभी और नैना दीदी को मैं 'लाइन' पर ही ले लेती हूँ। "

" हाँ.. यही ठीक रहेगा .. और .. तुम्हारे घोष बाबू चले गए 'ड्यूटी' पर ? "

" हाँ, हाँ .. वो तो .. कब का 'आँटी' .. हम औरतों के घरेलू कामों में परिस्थितिवश लाख कठिनाई आ जाए, पर इन मर्द लोगों को तो सब कुछ समय पर ही तैयार मिलनी चाहिए। वर्ना ..  ख़ैर ! .. अब मैं आपको 'होल्ड' पर रख कर, फ़ौरन दोनों कोई को 'लाइन' पर लेने के बाद .. आपको जोड़ती हूँ .. "

" हाँ .. "

" फोन काटीएगा नहीं .. "

" ना - ना .. "

कुछ ही पलों में काकोली घोष ने सौम्या भाभी और नैना दीदी को 'कॉल' पर जोड़ कर 'होल्ड' पर टिकी हुई अपनी नलिनी 'आँटी' को पुनः जोड़ती है।

दरअसल यहाँ देहरादून के ही एक मुहल्ले में पश्चिम बंगाल की काकोली घोष, उत्तराखंड की ही सौम्या रावत, नैना सेमवाल, पार्वती और उत्तरप्रदेश की नलिनी अष्ठाना का परिवार रहता है। इनमें नैना सेमवाल को छोड़ कर अन्य सभी लोग किराएदार हैं। सौम्या रावत का परिवार उत्तराखंड के ही कुमाऊँ क्षेत्र से और पार्वती का जौनसार क्षेत्र से है। 

यहाँ रेसकोर्स जैसे पॉश कॉलोनियों को छोड़ दें, तो अन्य हिस्से में किराए के मकान आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, क्योंकि गढ़वाल के अधिकांश लोग या तो फ़ौज में हैं या फिर 'होटल-रेस्टोरेंट' व्यवसाय में अपने भारत देश से दूर स्वीडन, पुर्तगाल, न्यूजीलैंड, जापान, कोरिया जैसे विदेशों में जा कर बसे हुए हैं। कुछ लोग सपरिवार, तो कुछ परिवार के मर्द व बच्चे या फिर कुछ के केवल मर्द विदेशों में बसे हुए हैं। यूँ तो वहाँ विदेशों में कुछ लोगों ने खुद के 'रेस्टोरेंट' खोल रखे हैं, पर अधिकतर लोग भले ही वहाँ 'कुक' की नौकरी करते हों, पर यहाँ .. खुद को किसी विदेशी 'रेस्टोरेंट' का 'मैनेजर' या मालिक ही बतलाते हैं। ख़ैर ! .. जो भी हो .. यूँ तो हमारे आसपास वास्तविक अमीरों की संख्या से कई गुणा ज्यादा तो .. डींग हाँकने वाले यानी 'शो ऑफ' करने वाले अमीरों की ही संख्या है। 

जीवकोपार्जन हेतु विदेशों में या सेना में रहने के कारण उनके खाली घर .. यहाँ आए प्रवासियों को किराए पर सुगमता से उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन .. एक 'लीगल रेंट एग्रीमेंट' और 'पुलिस वेरिफिकेशन' की औपचारिकता पूरी करने के बाद। बाक़ी तो घर का मुखिया या उनका परिवार दूर विदेशों में रह कर भी यहाँ अपने घर में लगवाए गए 'सी सी टी वी कैमरों' से अपने घर और अपने किराएदारों की गतिविधियों पर नज़र टिकाए रहते हैं। कुछ भी उन्नीस-बीस होने पर फ़ौरन आदेश-निर्देश भरा उनका 'व्हाट्सएप्प कॉल' आ जाता है। रही बात किराए की तो, वो सही समय पर किराएदारों द्वारा उनको 'ऑनलाइन' भेज दिया जाता है।

हालांकि .. इन मकान मालिक और किराएदारों वाली उपरोक्त बातों का आज की इस बतकही से कोई लेना-देना नहीं है। पर बतकही के दौरान लगा, कि .. जो सब कुछ महसूस किया हूँ यहाँ पर .. वो सब यहाँ .. इस 'ब्लॉग' रूपी 'डायरी' में बकबका ही दूँ .. बस नलिनी अष्ठाना  यूँ ही ...

ख़ैर ! .. काकोली घोष द्वारा सौम्या रावत और नैना सेमवाल के बाद नलिनी अष्ठाना को भी फोन पर जोड़े जाने पर .. चारों लोगों का फ़ोन पर ही पार्वती (कामवाली)-पुराण आरम्भ हो गया है।

काकोली घोष - " आँटी ! .. " 

नलिनी अष्ठाना - " हाँ .. काकोली .. बात हुई सौम्या और नैना से .. "

काकोली - " हाँ आँटी .. वो लोग 'लाइन' पर ही हैं .. "

सौम्या - " प्रणाम .. "

नैना - " नमस्ते आँटी .. "

नलिनी - " सब लोग खुश रहो .. कुशलमंगल रहो .."

सौम्या -" पर ये पार्वती की बच्ची रहने देगी तब ना आँटी .."

सौम्या की इस बात पर चारों के ठहाके एक साथ लगने लगे हैं।

नैना - " पार्वती मुसीबत में है आँटी। आप लोगों से उतनी खुली हुई नहीं है ना, पर हम से अपना हर सुख-दुःख बतलाती रहती है। "

नलिनी - " क्या हो गया उसको ? "

नैना - " अब क्या बोलें आप लोगों से आँटी .. बोलते हुए भी हिचक से ज्यादा .. शर्म आ रही है .. ना-ना .. हम से ना बोला जाएगा .. ना ! .. "

नलिनी - " अब .. अगर हम सभी हिचक या शर्म से मौन रहने लगे, तो .. वो मुसीबत तो .. जानलेवा तक हो सकती है .. नहीं क्या ? .. "

काकोली - " आँटी ठीक ही तो बोल रहीं हैं नैना दीदी .. "

नलिनी - " अगर तुमको बतलाने में शर्म आ रही है, तो उसी को लेकर आ जाओ दोपहर में मेरे घर। हम लोग मिलकर उसकी मुसीबत उसी से सुनेंगे और उसे कम करने की भरसक कोशिश भी करेंगे .. ये ठीक है ना ? .. "

सौम्या -" हाँ .. ये ठीक रहेगा .. इसी बहाने आँटी के हाथों से बनी अदरख़ वाली चाय पीने के लिए मिलेगी .. है ना काकोली ? "

सभी की हामी के बाद फ़ोन कट गयी है। 

अब दोपहर लगभग दो-ढाई बजे सभी का जमावड़ा जम गया है नलिनी आँटी के घर पर।

नलिनी - " क्या हुआ पार्वती ? आज तुम काम करने भी नहीं आयी। कैसी मुसीबत आ पड़ी है तुम पर ? "

{ शेष-विशेष अगले और आख़िरी अंक - "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ..." (२) में .. बस यूँ ही ... }.  

Wednesday, June 5, 2024

प्रेस विज्ञप्ति ...


" माला दी' ! (दीदी) .. हमारी तरफ से तो आज हुए कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति तैयार है। अगर आप कहें तो .. अभी पढ़ कर आपको सुनाऊँ ? .. "

" ठीक है सुषमा .. सुना देना। पर .. इतनी भी हड़बड़ी क्या है .. पहले मुनिया को शरबत लाने तो दो। शरबत पी लो और ..  पी कर थोड़ा सुस्ता लो .. फिर सुना देना। "- कमरे में 'सेंटर टेबल' पर रखे पानी से भरे बोतल की ओर इशारा करते हुए - " तब तक ये 'फ्रिज' का ठंडा पानी पियो। आराम से बैठो .. पैर ऊपर करके .. कुछ देर 'बेड' पर लेटना चाहो, तो .. लेट लो। "

" बस .. ठंडा पानी पी लेती हूँ दी' पर .. लेटने का मन नहीं अभी। ऐसे ही ठीक है। "

" 'ए सी' को अठारह पर कर दूँ ? "

" नहीं , नहीं .. बीस पर ही ठीक है दी' । "

दरअसल माला नागर जी 'आर एन आई' यानी भारत के समाचार पत्रों के 'रजिस्ट्रार ' द्वारा पंजीकृत एक मासिक पत्रिका - "साहित्य उपवन" की संपादिका के साथ-साथ "साहित्य उपवन" संज्ञा वाली ही एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्षा भी हैं। भले ही सरकारी विभाग में दिखाने के लिए इनके तरफ़ से मासिक पत्रिका की उपस्थिति दर्ज़ करायी जाती है ; पर वास्तविकता यही है, कि द्विमासिक पत्रिका ही मूल रूप से छपती है।  और .. सुषमा झा .. स्वाभाविक है, कि उसी संस्था की एक सक्रिय सदस्या हैं व एक कुशल गृहिणी भी , पर .. सक्रिय सदस्या पहले व कुशल गृहिणी बाद में। 

दरअसल आज भी तथाकथित सामाजिक सरोकार वाले कार्यक्रम के समापन के पश्चात लौटने के बाद अभी-अभी माला नागर जी के अतिथि कक्ष में ही उनके और सुषमा झा के बीच उपरोक्त वार्तालाप हो रहा है। 

तभी 'रूह अफ़ज़ा' द्वारा तैयार शरबत से भरे दो काँच वाले क़ीमती पारदर्शी गिलास, जिनमें 'फ्रिज' के 'डीप फ्रिजर' में जमाए हुए चंद तैरते 'आइस क्यूब्स' भी हैं और उसी शरबत व 'आइस क्यूब्स' से भरा एक काँच का ही पारदर्शी 'जग' भी, जिन्हें बाँस से बने एक कलात्मक और स्वाभाविक है कि .. क़ीमती भी .. 'ट्रे' में लेकर अतिथि कक्ष में मुनिया के प्रवेश होते ही ...

" लो सुषमा .. पहले इस ठंडे शरबत से अपना गला तर कर लो, ताकी बाहर की गर्मी का असर कम हो जाए। फिर प्यार से पीते-पीते सुनाओ .. वो प्रेस विज्ञप्ति। "

अभी माला नागर जी व सुषमा झा के बारे में जानने के पश्चात .. उचित है कि .. थोड़ा-बहुत .. मुनिया के बारे में भी हमलोग जान ही लें .. वह इन दिनों लगभग बारह-तेरह साल की एक लड़की है .. वैसे तो यह बकने में शायद अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए, कि वह एक लड़की कम .. एक नौकरानी ज्यादा है। जिसे माला जी अपने श्वसुर जी के खेतों में काम करने वाले कई जन-मजदूर व मजदूरिनों में से किसी एक ग़रीब विधवा मजदूरिन माँ की चार संतानों, वो भी चारों की चारों बेटियाँ, में से एक सबसे बड़ी बेटी- मुनिया को अपने ससुराल के गाँव से क़रीब दो वर्ष पूर्व अपने साथ सौग़ात स्वरुप ले आयीं थीं और .. वो भी .. मुनिया को शहर में अपने पास रख कर उसे काम के बदले खाना-कपड़ा प्रदान करके .. उस को और उस की माँ को अनुगृहित करने के भाव से अपनी बूढ़ी गर्दन को अकड़ाते हुए।

दोनों ही लोगों द्वारा अपना-अपना पहला शरबत का गिलास गटागट तेजी से खाली करने के बाद .. पुनः काँच के क़ीमती 'जग' से उन्हीं दोनों गिलासों में मुनिया द्वारा शरबत उड़ेलने पर अब .. गर्मागर्म चाय पीने की तरह चुस्की लेते हुए ...

" हाँ .. अब बोलो सुषमा .. खाना खाओगी ? .. मुनिया को बोलूँ .. बनाने के लिए ? "

"नहीं दी' .. खाना रहने दीजिए .. और फिर .. समाचार पत्र के 'ऑफिस' भी तो जाना है मुझे .. घर जाते हुए रास्ते में .. ये प्रेस विज्ञप्ति देती हुई चली जाऊँगी .. है ना ? .."

" तुम कहो तो .. अभी 'ओवन' में पकवाएँ 'गार्लिक-लेमन चिकेन' और गर्मागर्म 'चिकेन'-रोटी खाते हैं .. "

" नहीं दी' .. रहने दीजिए .. "

" अरे .. आज तो बुधवार है .. आज तो कोई मंगल-शनि या वृहष्पतिवार वाली कोई बात भी नहीं है .. तुम्हारे बहाने हमारा भी मुँह थोड़ा "सोंधा" जाएगा .."

" ना - ना .. आप परेशान मत होइए दी' .."

" धत् ! .. इसमें परेशानी वाली क्या बात है भला .. मुनिया जा कर ले आएगी पास के बाज़ार से कटवा कर ताजा मुर्गा और कुछ ही देर में बना भी देगी .."

" नहीं दी' .. आज रहने दीजिए .. फिर कभी .. आपको तो पता ही है, कि कल ..  वट सावित्री व्रत है .."

" तो क्या हुआ ? .. कल सिर धो के नहा लेना .. सब शुद्ध हो जाएगा .. नहीं क्या ? .. "

" ना .. दी' .. आज छोड़ दीजिए .."

" ठीक है .. जैसा तुमको अच्छा लगे .. तो चलो .. अब प्रेस विज्ञप्ति ही सुना दो "

" जी ! .. दी' ! अब गौर से सुनिए .. कोई त्रुटि रह गयी हो, तो बोलिएगा .. हाँ ! .." - अपने 'हैंडबैग' से एक 'राइटिंग पैड' निकाल कर - 

" आज ५ जून को "विश्व पर्यावरण दिवस" के अवसर पर "साहित्य उपवन" की अध्यक्षा महोदया श्रीमती माला नारंग जी ने नगर सामुदायिक भवन के प्रांगण में अपने कर-कमलों द्वारा गुलमोहर और पिलखन के एक-एक पौधे का पौधारोपण किया। इस अवसर पर प्राँगण में उपस्थित "साहित्य उपवन" के सभी गणमान्य सदस्यों ने पर्यावरण से सम्बन्धित काव्य पाठन भी किया। काव्य गोष्ठी का संचालन स्वयं माला नारंग जी कर रहीं थीं। उनकी अध्यक्षता में यह कार्यक्रम बहुत ही सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हुआ। पौधारोपण और काव्यपाठन करने वालों में कर्मठ समाजसेविका श्रीमती माला नारंग के साथ-साथ सुषमा झा, दीक्षा मेहता, मनोज भटनागर, समर सिंह, ज्योति अग्रवाल,  ... ... ... ... ... सरिता सहाय, इकराम क़ुरैशी इत्यादि उपस्थित थे। "

" वाह ! .. अति सुन्दर ! .. पर .. सबलोगों का नाम इसमें आ गया है ना ? एक बार ठीक से 'चेक' कर लेना .. किसी का नाम छूट ना जाए कहीं .. "

" हाँ दी' ! .. वैसे तो किसी का भी नाम नहीं छुटा है। सभी उपस्थित जनों का नाम हमने अपने इसी 'नोटबुक' में 'नोट' करके उसके सामने उन सभी उपस्थित लोगों से हस्ताक्षर करवा लिया था। उसी 'लिस्ट' से सारा का सारा नाम लिया है मैंने .. वैसे .. आप कह रहीं हैं, तो एक बार .. पुनः 'चेक' कर लेती हूँ। "

" और हाँ .. सरिता सहाय के नाम को अपने नाम के बाद वाले क्रम में ही डाल दो .. उतना नीचे रखोगी उनका नाम तो .. अगर प्रेस वालों की तरफ से इस विज्ञप्ति में कुछ प्रेस टिप्पणी जोड़ने पर उनके उपलब्ध 'कॉलम' में जगह कम पड़ गयी, तो नीचे वाले कुछ नामों के साथ-साथ इनका नाम भी कुछ यूँ ही छपने से चूक जाएगा। "

" जी दी' .. सही कह रहीं हैं आप .. "

" समझ रही हो ना .. हम क्या कहना चाह रहे हैं .. किसी का भी नाम छपे या कटे, कोई बात नही, पर .. मेरे साथ-साथ तुम्हारा और सरिता का नाम तो छपना ही चाहिए .. समझ गयी ना ? "

" हाँ दी' .. अभी सुधार कर देती हूँ .. पहले जरा 'वाशरूम' से हो आऊँ ? "

गर्मी के मौसम में हर क्षेत्र की उसकी भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग समस्याएँ होती हैं .. कहीं गर्म हवा वाली लू की झुलसन, तो कहीं पसीने वाली चिपचिपी गर्मी की समस्या। पर एक समस्या हर जगह आम है, कि .. ऐसे में जितनी ज्यादा प्यास लगती है, तो ज्यादा से ज्यादा पानी-शरबत पीनी पड़ती है और फिर .. उतनी ही ज्यादा मूत्र विसर्जन की तलब भी होती है। माला नागर जी के घर का एक 'जग' ठंडा पानी और दो-दो गिलास शरबत की ही देन है ये .. सुषमा झा की 'वाशरूम' जाने की तलब .. शायद ...

" अब लो .. ये भी कोई पूछने वाली बात है भला ! .. जाओ .. हो के आओ .. " - फिर सहयोग के लिए मुनिया को आवाज़ देते हुए -" मुनिया ! .. मुनिया !... "

" मैं खुद ही चली जाऊँगी दी' .. उसको रहने दीजिए .." - कहते हुए सुषमा झा अतिथि कक्ष के भीतरी तरफ वाले दरवाज़े की ओर बढ़ चली हैं।

चूँकि सुषमा झा का यदाकदा .. विशेष कर इस साहित्यिक संस्था के किसी भी तथाकथित सामाजिक या साहित्यिक कार्यक्रम के पश्चात माला भटनागर जी के घर उनकी कार में बैठ कर आना-जाना लगा रहता है .. कभी प्रेस विज्ञप्ति को तैयार करने के लिए, कभी कार्यक्रम के बाद बचे 'बैनर'-'पोस्टरों' या अन्य बहुउपयोगी सामानों को माला जी के घर तक सहेजने के लिए या फिर कभी-कभी उनके विशेष आग्रह पर संस्था के जमा-खर्च के हिसाब-किताब वाली 'रजिस्टर' को 'मेन्टेन' करने के लिए ; अतः उन्हें माला जी के घर वाले नक़्शे के चप्पे-चप्पे के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हासिल है।

तो .. वह उनके अतिथि कक्ष के भीतरी दरवाज़े से निकल कर 'डाइनिंग हॉल' पार करते हुए, पाँच-छः कदमों वाले एक गलियारा को लाँघ कर .. घर की पिछली 'बालकनी' में दायीं ओर मुड़ गयीं हैं; जहाँ सामने ही 'वाशरूम' का दरवाज़ा दिखायी देता है। 

यह घर बनते वक्त घर के पिछले हिस्से की कुछ ज़मीन को भवन-निर्माण में प्रयोग नहीं किया गया था, ताकि भविष्य में ज़मीन की दिनोंदिन बढ़ती हुई कीमतों पर बेच कर मुनाफ़ा कमाया जा सके या फिर परिवार में आगे सदस्यों की संख्या बढ़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सके। 

उसी ज़मीन में एक सवैतनिक माली द्वारा 'किचेन गार्डन' के साथ-साथ सुबह-सुबह की पूजा-अर्चना भर के लिए फूलों को प्रदान करने वाली एक फुलवारी भी 'मेन्टेन' की गयी है। उसी में एक अमलतास और एक कटहल के पेड़ भी लगे हुए थे, जो ज़मीन खरीदने के वक्त पहले से ही उपस्थित थे। इन सब को पिछली 'बालकनी' से निहारा जा सकता है।

'वाशरूम' से फ़ारिग होकर निकलने के बाद अपने रुमाल से हाथों को पोंछते हुए सुषमा झा अब पिछली 'बालकनी' में कुछ पल आदतन ठहर कर माला नागर जी के बग़ीचे को निहार रही हैं। तभी वहीं पर पीछे से माला जी भी आ खड़ी हुई हैं।

" ये क्या दी' .. यहाँ तो अमलतास और एक कटहल का भी पेड़ था ना ? आप कटवा दीं क्या दी' ? "

" हाँ .. पिछले ही रविवार को .. "

" हाय राम ! .. आज भी मैं आते वक्त सोच रही थी दी', कि .. आपसे हर साल की तरह ही आज भी कटहल माँग कर ले जाऊँगी ... कुछ अमलतास के फूल भी ले जाने की सोची थी। .. अभी हाल ही में 'यूट्यूब' पर देखी थी, कि अमलतास के फूलों से बहुत ही स्वादिष्ट और स्वास्थ्यप्रद शरबत बनाया जाता है और फिर .. गुलमोहर के फूलों से भी। "

" गुलमोहर का पेड़ तो तुम्हारे मुहल्ले के मैदान में विराजमान है ही ना ? "

" हाँ .. पर .. अमलतास के शरबत के लिए खूब मन बना के आयी थी दी' .. और .. आपके यहाँ के पेड़ वाले कटहल की सब्जी भी बहुत ही मुलायम होती थी। पक जाने पर .. इसका कोआ कितना सोंधा-सोंधा गमकता था .. नहीं दी' ? .. "

" अब क्या करें .. साल भर में कुछ महीने के लिए फल और फूल मिलने के कारण उन्हें कब तक ढोया जा सकता था। "

" सो तो है, पर .. "

" घर में सभी की सहमति से तय होने के बाद ही इनको कटवाया गया है। अब इसमें किराए पर 'कार पार्किंग' के लिए लोगों को जगह उपलब्ध करवायी जाएगी, जिसका 'गेट' पीछे की तरफ से ही रहेगा। "

" ओ ! .. अच्छा ! .."

" हाँ .. दरअसल आजकल 'कॉलोनियों' में रहने के लिए फ्लैट-इमारतें तो हैं, पर सभी के पास सुरक्षित 'कार पार्किंग' की जगह नहीं हैं। .. अगली बार आओगी तो इसके ऊपर 'रेज़िन शेड' लगी हुई  यह 'कम्प्लीट' मिलेगी .. "

तभी चिलचिलाती धूप वाली गर्मी से निजात पाने के लिए एक 'स्ट्रीट डॉग' भटकता हुआ माला जी के घर के उसी पिछले हिस्से की चहारदीवारी फाँद कर अंदर घुस आया है। माला जी जोर से चिल्लाईं, मानो किसी पड़ोसी देश का घुसपैठिया घुस आया हो और उसे देश की सेना ने देख कर उन पर गोली बरसाने की सोच ली हो।

" मु-नि-या !!! .. भगाओ इसको मार के जल्दी से .. पानी फेंक दो इसके ऊपर .. ऊपर से ही .. भाग जाएगा ..."

'बालकनी' में सजे कुछ गमलों के पौधे भी गर्मी से झुलसे हुए दिख रहे हैं। सालों भर खिले रहने वाले सदाबहार के पौधे तक भी। सुषमा झा को ये सब गौर से निहारते हुए देख कर माला जी लगभग झेंपते हुए .. 

" दरअसल इन दिनों "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले आज के कार्यक्रम की तैयारी में कई दिनों से व्यस्त रहने के कारण इन सब पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिल पाया सुषमा ..  " - कुत्ते पर ऊपर से ही पानी उड़ेलती मुनिया को आदेश देते हुए माला जी अचानक पुनः बोल पड़ीं हैं - " जरा बाल्टी में पानी लाकर इन गमलों में भी पानी दे दे मुनिया .. ये सब तुमको तो सुझता ही नहीं है .. जब तक टोको नहीं .. कोई काम नहीं करोगी ठीक से .. "

" हम आपकी डर से पानी नहीं डालते हैं इनमें .. आप गुस्साती हैं ना .. इसीलिए .. "

" अरे ! .. गुस्साए नहीं तो और क्या करें .. बोलो .. तुम्हारी वजह से पिछली बार सारे 'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' बर्बाद हो गए थे। याद है ना ? .."

'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स' जैसे शब्दों को मुनिया कितना ही समझ पायी होगी, पर सुषमा झा के समक्ष माला जी की पेड़-पौधों के बारे में विशिष्ट जानकारी की धाक जरूर जमती जान पड़ रही है। अब सुषमा झा को सम्बोधित करते हुए ...

" जानती हो ! .. पिछले माह "मज़दूर दिवस" के अवसर पर "भिलाई 'स्टील' 'प्लांट' " के "मज़दूर 'ट्रेड' 'यूनियन' " की ओर से आयोजित उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में अपनी संस्था को कविता पाठ के अलावा अन्य साहित्यिक गतिविधियों के लिए जो बुलाया गया था, तो तीन दिनों तक घर से बाहर थी मैं और .. "

" और मैं भी तो थी सभी सदस्यों के साथ-साथ आपके साथ .. और हाँ .. भिलाई आना-जाना और कार्यक्रम .. सब मिलाकर तीन दिन तो लग ही गए थे, तो ... ? " 

" तो .. उसी दौरान ये महारानी (मुनिया) .. तीनों दिन सुबह-शाम सभी गमला में भर-भर के पानी डाल दीं .. बस्स ! .. जो भी  'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' थे, सभी काले पड़ गए .. कुछ सड़-गल भी गए .. "

अचानक माला जी के घर के पिछले हिस्से की जमीन के पीछे वाले मकान की छत्त से "आ-आ .. आ-आ .. आ" की तेज पुरुष स्वर सुनायी पड़ी। अनायास आवाज़ की दिशा में सुषमा झा की नज़र चली गयी। सामने एक वृद्ध पुरुष अपनी छत से आकाश में उड़ते कबूतरों की झुण्ड को और कभी .. अभी-अभी भगाए गए कुत्ते के साथ-साथ एक भटकती कुत्तिया को भी अपने अंदाज में स्नेहपूर्वक बुला रहे हैं।

माला जी बिना वृद्ध की ओर देखे हुए ...

" सनकी है ये बूढ़ा .. 'रेलवे' से 'रिटायर' है .. अपने 'पेंशन' का आधा पैसा इन्हीं सब लावारिस कुत्ता-बिल्ली, कबूतर-गौरैया और चींटी-गिलहरी में लुटाता रहता है। नाम है सतीश सक्सेना .. है तो कायस्थ, पर एक भी कायस्थ वाला गुण नहीं है इस बुड्ढा में .. "

" अच्छा ! .."

" सुबह-सुबह 'कॉलोनी' के 'पार्क' में टहलने के साथ-साथ खुरपी-बाल्टी लेकर पेड़-पौधा में खाद-पानी करता रहता है। एक सवैतनिक माली भी आता है वहाँ देखरेख के लिए .. फिर भी ये आदमी लगा रहता है .. "

" फिर तो ये गज़ब आदमी हैं दी' .. "

" हाँ तो .. कई बार कोशिश की, कि अपनी संस्था से ये जुड़ जाएँ, पर .. हर बार कोई ना कोई बहाना कर के टाल गए श्रीमान। इनका कहना है, कि इनको कविता-कहानी लिखने नहीं आती है। "

" ओ .. अच्छा ! .. "

" अरे ! .. इसमें अच्छा वाली क्या बात है भला। अब तुम ही बतलाओ ना सुषमा .. अपनी ही संस्था में क्या सभी को कविता-कहानी लिखने आती ही है ? .. आधा से ज्यादा तो तुकबंदियों के सहारे ही निभ रहे हैं। "

" हाँ .. सो तो है दी' .. "

" अब अगर सभी को साहित्य ज्ञान के तराजू पर निपटा दें तो फिर .. संस्था को चलाने के लिए मिलने वाले सहयोग शुल्क कैसे एकत्रित कर पायेंगे .. बोलो ! .."

" हाँ .. आप सही कह रहीं हैं .. अपना घर-परिवार तो क्या .. अपना पेट पालने के लिए भी तो पैसे की ही जरूरत पड़ती है .. है कि नहीं ? "

" सब बात यहीं बतिया लोगी क्या ? यहाँ बहुत ज्यादा ही गर्मी है। चलो अंदर 'ए सी' में .. "

पीछे की 'बालकनी' से वापस अतिथि कक्ष की ओर बढ़ते हुए दोनों के वार्तालाप जारी हैं और विषय .. वही आज के "पर्यावरण दिवस" वाले पौधारोपण व उससे जुड़े अन्य कार्यक्रम से सम्बन्धित ...

" और हाँ .. रही बात अख़बार में फ़ोटो छपने की, तो .. वो तो .. वे लोग अपनी मर्ज़ी और अपने 'कैमरे' से ही छापेंगे, पर तुम्हारे 'कैमरे' में तो सब 'पिक्स' साफ़-साफ़ आयी है ना ? .. मुझे 'व्हाट्सएप्प' कर देना .. सभी अच्छी 'पिक्स' अपनी पत्रिका के अगले अंक में छपवानी है .."

" हाँ जरूर .. पर चलिए .. अब निकलती हूँ दी' .. बस .. आपके कथनानुसार सरिता सहाय जी का नाम क्रमवार ऊपर कर देती हूँ। "

" ठीक है .. जाओ .. काफ़ी समय निकल भी गया है .. "

सुषमा झा उनके 'मेन गेट' से निकल कर सामने सड़क पर अपने गंतव्य की ओर जाते हुए 'टेम्पो' का बाट जोहने लगी हैं। तभी माला नागर जी के पड़ोसी .. तथाकथित अज़ब आदमी - सतीश सक्सेना के घर से निकल कर एक पुराने 'स्कूटर' पर सवार हुए एक सज्जन को सुषमा झा अपने गंतव्य की ओर जाते हुए देख कर और .. पहचान कर भी .. लगभग चहकते हुए उन सज्जन पुरुष को सम्बोधित करके बोल पड़ीं हैं ..

" मुख़र्जी 'अंकल' ! .." 

बोलते ही 'स्कूटर' में 'ब्रेक' लग गया और सवार व्यक्ति अपना 'हेलमेट' उतारने के बाद इधर ही ताक कर मुस्कुराते हुए बोल रहे हैं .. 

" ओ .. शुशुमा (सुषमा) .. यहाँ पर क्या कर रहा (रही) है (हो) ? .. बाड़ी (घर) चलना है क्या ? "

" हाँ अँकल " .. - सुषमा झा जाते-जाते अपनी माला दी' को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए - " दी' ! .. प्रणाम ! .. ये श्यामल मुख़र्जी 'अंकल' हैं .. मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। ये भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' हैं। "

ये कहते हुए सुषमा झा .. अपना 'हैंड बैग' सम्भालते हुए .. अपने मुख़र्जी 'अंकल' के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' के दोनों तरफ़ अपने दोनों पैरों को रख के बैठ गयीं हैं और 'स्कूटर' काफ़ी पुराना होने के कारण कुछ-कुछ धुआँ की लकीर हवा के पन्ने पर उकेरता हुआ बढ़ चला है। कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में चलते-चलते हुए ही उन्होंने अपने 'अंकल' को प्रेस जाने वाली बात से अवगत कराते हुए ...

" 'अंकल' ! .. रास्ते में जो अख़बार का 'ऑफिस' है ना ? .. वहाँ पाँच मिनट के लिए रुकिएगा जरा ? .. "

" क्यों ? .. वहाँ बनवारी के दुकान का (की) चाय खिलाएगा (पिलाएगी) क्या अपने मुख़र्जी 'अंकल' को ? .. "

" पिला दूँगी और .. आपके बहाने मैं भी पी लूँगी .. पर .. दरअसल .. वहाँ 'प्रेस' में आज के कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति सौंपनी है। "

" कौन सा कार्यक्रम ? "

" हे भगवान ! .. आज पूरा विश्व मिलकर "विश्व पर्यावरण दिवस" मना रहा है और आपको ये भी नहीं पता कि आज किस का कार्यक्रम है भला .. "

" ना रे बाबा .. हमको ये सब नहीं पता है। वैसे .. कोई बात नेही (नहीं) है। रुक जाएगा बाबा .. चाय का तो बस .. थोड़ा मज़ाक कर रहा था। तुमको तो पता ही है आमरा (हमारा) किसी के साथ भी मज़ाक करने का आदत .. "

" इस गर्मी में चाय क्यों .. चलिए आपको बजरंगी की लस्सी पिलाते हैं .. "

" ना बाबा .. तुमको तो पता है शुशुमा (सुषमा) कि चाय हमारा (हमारी) कमजोरी है। " - 'स्कूटर' की गति धीमी करते हुए 'प्रेस' के 'गेट' के पास 'पार्किंग' में ले जाने से पहले रोक कर सुषमा झा को उतरने के लिए कहते हुए ..

" लो .. आ गया तुमरा (तुम्हारा) 'प्रेस' .. जा के तारातारि (जल्दी से) काज (काम) कर के आओ।" - अपने 'स्कूटर' को 'पार्किंग' की ओर ले जाते-जाते- " फिर साथ में बनवारी का 'स्पेशल' चा' (चाय) मिल के खाएगा .. "

कुछ ही मिनटों के बाद अंदर से सुषमा झा मुस्कुराते हुए बाहर आकर, बाहर प्रतीक्षारत मुख़र्जी अंकल के साथ चाय की दुकान की ओर बढ़ चली हैं। चलते-चलते उनके वार्तालाप जारी हैं ...

" तुम उस वक्त मेरे बारे में उन भद्र महिला को बोल रहा था (थी), कि हम भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है .. तो "भी" का क्या मतलब ? वो महिला भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है क्या शुशुमा (सुषमा) ? "

" ना, ना .. वो जिनके घर से अभी आप निकले थे ना .. उनके बारे में वो माला दी' बतला रहीं थीं, कि उनका नाम सतीश सक्सेना है और वो 'रेलवे' से 'रिटायर' हैं। "

" हाँ .. सही तो बतलाया (बतलायीं) .. ये सतीश और मैं साथ में ही काम करता था। उसका तो इधर में पुश्तैनी बाड़ी (घर) है और हम .. दोसरा राज (दूसरे राज्य) से यहाँ पर नौकरी करने आया था, लेकिन सतीश जैसे लोगों का साथ क्या मिला .. 'रिटायर' होने बाद भी यहीं जगह-ज़मीन लेकर .. यहीं बस गया। " 

" ये दिनभर चिड़िया-जानवरों और पेड़-झाड़ों के पीछे लगे रहते है क्या ? सुना है कि अपना आधा 'पेंशन' उड़ा देते हैं इन सभी के पीछे  .. ऐसा ही है क्या ? "

" हाँ .. बिलकुल ऐसा ही है। " अब तक साथ-साथ पैदल ही चलते-चलते चाय की दुकान के समीप आने के कारण दुकानदार को सम्बोधित करते हुए श्यामल मुख़र्जी - " दो कुल्हड़ .. 'स्पेशल' वाला .. एक चीनी और एक सादा .."

चाय आने तक बातों को आगे जारी रखते हुए सुषमा झा " ऐसा क्यों करते हैं वो ? .. उनका घर-परिवार नहीं है क्या ? "

" सब है .. पर अभी केवल मियाँ-बीवी है बाड़ी (घर) में .. मेरी तरह। सतीश अपनी एक बड़ी बेटी को पहले ही .. नौकरी करते हुए में शादी दे दिया (ब्याह कर दिए) और एक बेटा-बहू है .. वो लोग मेरे बेटे-बहू की तरह ही बाहर 'जॉब' करता है। साल में एक-दो बार आता है मिलने-मिलाने के लिए। बाक़ी तो .. मोबाइल है ही ना आजकल .. सबको मिलने और मिलाने के लिए .. "

बिना चीनी वाली 'स्पेशल' चाय का एक कुल्हड़ आ चुका है। अब श्यामल मुख़र्जी जी चाय की चुस्की लेते हुए ..

" परन्तु .. ये तो शुरू से ही ऐसा है। सतीश अपने आसपास के सभी उपलब्ध पशु-पक्षियों को शुरू से ही अपना परिवार मानता है। हाँ .. ये अलग बात है कि नौकरी और अपनी शादीशुदा पारिवारिक जिम्मेवारियों के कारण इन सब बातों में उतना समय नहीं दे पाता था। पर ... "

चीनी वाली चाय का दूसरा कुल्हड़ भी आकर सुषमा झा के होठों से लग चुका है। चुस्की के साथ वार्तालाप चल ही रहा है ...

" पर अब .. 'रिटायर' होने के कारण इतना समय दे पाते हैं .. है ना ? "

" हाँ.. पर .. सवाल समय का नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. बस रुचि होनी चाहिए। अगर रुचि हो तो .. समय अपने-आप निकल जाता है। "

" सो तो है अंकल .."

" वैसे .. तुमको मालूम .. सतीश कोई 'शो ऑफ' नहीं करता। आज के चलन के मुताबिक 'सो कॉल्ड' 'सोशल मीडिया' पर अपनी 'शो ऑफ' वाली 'सेल्फियाँ' नहीं चिपकाता .. "

" पर .. ज़माना तो 'शो ऑफ' का ही है ना अंकल ? "

" होगा .. होता रहे .. मुझे सब मालूम है, कि बिना  'शो ऑफ' के तो सरकारी अनुदान भी नहीं मिलते हैं। पर इस सतीश को थोड़े ही ना किसी संस्था या किसी 'एन जी ओ' के नाम पर किसी सरकारी या ग़ैर सरकारी अनुदान की अपेक्षा है .."

" हाँ .. तभी तो उनका लगभग आधा 'पेंशन' ..."

" उसका मानना है, कि आसपास के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी .. ये सारे के सारे ही हमारे पर्यावरण के हिस्से हैं। इनके खुश रहने पर ही हमें 'रेगुलर' 'पॉजिटिव औरा' (सकारात्मक ऊर्जा) मिल पाएगी और इन सब को खुश रखने की जिम्मेवारी भी हमारी ही है। नहीं क्या ? .. हम केवल पेड़ लगाने की बातें कर-कर के पर्यावरण के बारे में नयी पीढ़ी को भी गुमराह कर रहे हैं .. "

" उनकी सोच और आपकी बातें तो पते की हैं अंकल .."

" हमारी नहीं .. ये सब उसी की बातें हैं। सुबह 'फ़्रेश' होने के बाद उसकी सुबह की शुरुआत होती है .. अपने बाड़ी (घर) की चहारदीवारी पर गिलहरियों के लिए एक मिट्टी के बर्त्तन में मूँगफली के दाने और दूसरे में पानी रखने से। "

" अच्छा ! " .."

" फिर मिट्टी के ही अलग-अलग बर्त्तनों में कबूतरों-पंडूकों के लिए बाज़रे, गौरैयों के लिए खुद्दी (टूटे चावल) या कँगनी, तोतों के लिए साबूत मौसमी फल या उस के टुकड़े , चींटियों के लिए गुड़ के टुकड़े और इन सब के पीने-नहाने के लिए पानी नियमित रूप से रखता है। "

" इतना सब कुछ ? .."

" उसके बाद मुहल्ले के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम कभी दूध-रोटी, कभी 'अरारोट बिस्कुट', तो कभी उबले अंडे खिलाता है। फिर घर और आसपास के भी पेड़-पौधों को एक-एक कर खाद-पानी देने के साथ-साथ विशेष ध्यान भी देता है। "

दोनों के होठों को चूमने वाले चाय के कुल्हड़ अब बारी-बारी से कूड़ेदान की आबादी बढ़ा रहे हैं।

" दिलचस्प क़िरदार हैं .. ये सतीश अंकल तो .. "

" तो .. तुमको क्या लगा था ? .."

" सनकी .. अरे धत् .. 'सॉरी' .. मैं भी क्या बोल गयी .. ऐसा मैं नहीं बोल रही .. वो तो .."

" ख़ैर ! .. ये कोई नई बात नहीं है। ज्यादातर लोग उसको ऐसा ही कहते हैं। पर उसको इन सब से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। उसको धर्म-पूजा, पाप-पुण्य में तनिक भी यक़ीन नहीं है। वह अपनी मन की शान्ति के लिए ये सब करता है। उसकी निगाह में यही पूजा है .. शायद ..."

" 'सॉरी' अंकल .."

" अरे बाबा .. 'सॉरी' वाली कोई बात ही नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. जब वह अपनी 'वाइफ' का मन रखने के लिए किसी धार्मिक स्थल पर जाता है, तब भाभी जी पूजा-पाठ वाले कर्मकांडों में तल्लीन रहती हैं और ये अपने साथ ले गए बिस्कुट-केले आसपास के बन्दरों की टोली को खिलाने में मग्न रहता है। अगर मन्दिर परिसर के आसपास नदी या तालाब अवस्थित हुए, तो नदी या तालाबों में मछलियों के लिए चौलाई के लावे या आटे की गोलियॉं डाल के आता है ये सतीश ... "

अब तक बात करते-करते दोनों 'पार्किंग' तक पहुँच चुके हैं।

" अब तुम ही बतलाओ शुशुमा (सुषमा) कि .. ऐसे मानुष को पर्यावरण दिवस मनाने या पौधे को पकड़ कर 'फ़ोटो' खिंचवाने की जरूरत है क्या ? .. चलो .. अब बाड़ी (घर) चलें .. "

सुषमा झा निरूत्तर-सी पुनः अपने पड़ोसी मुख़र्जी अंकल के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' पर बैठ गयी है अपने घर जाने लिए और पुनः पुराने 'स्कूटर' के धुएँ की लकीर फिर से हवा के पन्ने को धूमिल करती हुई बढ़ चली है। पर .. सुषमा झा के मन के पन्ने पर आज के "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति को धूमिल करते हुए, सनकी .. 'सॉरी' .. सतीश सक्सेना अंकल की धवल छवि ने ले ली है .. बस यूँ ही ...


Thursday, May 16, 2024

"पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ...


हम सभी को तो आज भी याद होनी ही चाहिए 2010 में आयी 'फ़िल्म' "पीपली लाइव" .. जो काला हास्य (Black Comedy) की श्रेणी में रखी गयी थी या आज है भी। जिसमें किसानों की आत्महत्या जैसी त्रासदी को हास्य-व्यंग्य की चटपटी चाशनी में सराबोर करके हम दर्शकों के समक्ष पेश की गयी थी। यूँ तो यह छत्तीसगढ़ के पीपली गाँव की पृष्ठभूमि की कहानी होते हुए भी .. लगभग समस्त त्रस्त किसानों की दुखती रगों का परत-दर-परत बख़िया उधेड़ती प्रतीत होती है, जिन किसानों को देश-समाज के लिए उनके किए गए मूलभूत योगदान का यथोचित प्रतिफल नहीं मिल पाता है। ऐसे में इसे मनोरंजक 'फ़िल्म' कम, बल्कि किसी घटनाचक्र का तेज रफ़्तार से गुजरता हुआ एक मार्मिक वृत्तचित्र ही ज्यादा महसूस किया जा सकता है .. शायद ...

वैसे भी इतिहास की मानें तो नाटकों के मंचन एवं उससे उपजी 'फ़िल्मों' के अस्तित्व का औचित्य समाज को आइना दिखाना और किसी प्रकाशस्तंभ की तरह राह दिखाना भी/ही रहा है .. मनोरंजन तो उसका उप-उत्पाद भर ही था, ताकी इन दोनों के माध्यम से कही गयी संदेशपरक बातें जनसाधारण के दिमाग़ में आसानी से धँस सके। परन्तु कालान्तर में आज .. समाज का एक वृहद् अनपढ़ कामगार वर्ग और कमोबेश बुद्धिजीवी वर्ग भी उसको मनोरंजन का एक साधन मात्र मान बैठा है । 

आम लोग तब भी उनमें संलिप्त लोगों को, ख़ास कर महिलाओं को, हेय दृष्टि से देखते थे और आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी उनसे जुड़े लोगों को अक़्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से "नचनिया-बजनिया" कह कर उन्हें सिरे से नकार देते हैं .. शायद ...

ख़ैर ! ..  बात करते हैं, "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' के उस लोकप्रिय गीत- "सखी, सैयाँ, तो खूबई कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है"  "की, जो हम जनसाधारण के मानसपटल पर गाहे-बगाहे बजती ही रहती है। जिस तरह तथाकथित तौर पर टूटे दिल वाले इंसानों को कोई दर्द भरा फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल उनके अपने मन में उभरते हुए दर्द की ही अभिव्यक्ति लगती है और अक़्सर .. हम में से कई ऐसे दिलजलों को रुमानी दर्द भरे नग़में गाकर, गुनगुनाकर या सुनकर भी कुछ देर के लिए ही सही पर दिल को राहत मिलती है। ठीक उसी तरह यह गीत भी देश भर के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को अपने-अपने मन में उभरती-उमड़ती टीस की ही अभिव्यक्ति लगती है। जिसको गाने, गुनगुनाने, सुनने या फिर बतियाने भर से भी/ही हमारे समाज के आर्थिक रूप से निम्न या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को कुछ पलों के लिए तो मानसिक राहत का छद्म फाहा ही सही, पर मिल तो जाता है .. शायद ...

दरअसल यह एक पुराना लोकगीत है, जिसका इस्तेमाल "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' में किया गया था। यूँ तो समालोचक वाली पैनी नज़रों से हम सभी ग़ौर करेंगे तो .. ज्ञात होगा कि अनेक पुराने लोकगीतों, शास्त्रीय संगीतों और सूफ़ी शैली का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैकड़ों भारतीय सिनेमा में वर्षों से धड़ल्ले से प्रयुक्त किया जाता रहा है .. नहीं क्या ? ...

अब आज की मूल बतकही ... .. हमें तो ये भी याद होनी ही चाहिए कि .. इसी 'फ़िल्म' में एक अन्य "छत्तीसगढ़ी लोकगीत" का भी इस्तेमाल किया गया था - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." , जो जीवन-दर्शन से परिपूर्ण है। जिसके मुखड़ा एवं हरेक अंतराओं से हमारी अंतरात्मा को आध्यात्मिक स्पंदन व स्फुरण मिलता है। जितनी बार भी इसे सुना जाए, हर बार यह लोकगीत सूक्ष्म आध्यात्मिक आत्मा को स्थूल भौतिक देह-दुनिया से पृथक करता हुआ एक निस्पंदन जैसी प्रक्रिया की हमें अनुभूति करा जाता है .. शायद ...

दरअसल इस मूल छत्तीसगढ़ी लोकगीत में छत्तीसगढ़ी लेखक गंगाराम शिवारे जी से कुछेक बदलाव करवाने के बाद .. इस गीत को लोक वाद्ययंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से अपने "नया थिएटर" नामक रंगशाला के नाटकों में प्रयोग कर-कर के इसे जनसुलभ करने का पुनीत प्रयोग किया था विश्व प्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर जी ने। इसीलिए आज भी इस गीत के रचनाकार के रूप में गंगाराम शिवारे जी को ही जाना जाता है। 

हबीब तनवीर जी केवल एक नाट्यकर्मी ही नहीं, बल्कि प्रसिद्ध पटकथा लेखक, नाट्य निर्देशक, संगीतकार, कवि और फ़िल्मी अभिनेता भी रहे हैं। उन सबसे भी बढ़ कर वे एक महान प्रयोगधर्मी थे। तभी तो अपने रंगशाला- "नया थिएटर" में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को गढ़-गढ़ के .. तराश-तराश के रंगमंच के कलाकार के रूप में विश्वस्तरीय मंचों का हक़दार बनाने का काम किए, जो उनकी अनुपम उपलब्धि रही। यूँ तो हबीब तनवीर जी और उनके "नया थिएटर" के लिए श्रंद्धाजलि स्वरूप अगर कभी कुछ बतकही की जाए तो, वो एक-दो भागों में नहीं समेटा या लपेटा जा सकता है .. क्योंकि वे नाटक का एक सिमटा हुआ अध्याय भर नहीं थे, वरन् स्वयं में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय समेटे हुए थे .. शायद ...

संदर्भवश बकता चलूँ कि .. "पीपली लाइव" में रघुवीर यादव व नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे नामचीन कलाकारों के साथ-साथ मुख्य पात्र "नत्था" का क़िरदार निभाने वाले छत्तीसगढ़ के रंगमंच कलाकार- "ओंकार दास मानिकपुरी" की भले ही यह पहली 'फ़िल्म' थी। पर इन्हें पहले से ही हबीब तनवीर जी के "नया थिएटर" के स्थापित कलाकारों में से एक होने का गौरव मिला हुआ था।

अब बारी आती है .. इस विशेष "छत्तीसगढ़ी लोकगीत"- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." की आवाज़ की, तो .. इस गीत को तब भी आवाज़ मिली थी हबीब तनवीर जी और उनकी प्रेमिका-सह-पत्नी रहीं अभिनेत्री व महिला-निर्देशक मोनिका मिश्रा जी की बेटी - "नगीन तनवीर" जी की और अब भी .. "पिपली लाइव" 'फिल्म' के लिए भी उन्होंने ही गाया था, जो अपने दिवंगत माता-पिता की अनुपस्थिति में आज भी "नया थिएटर" का कार्यभार बखूबी संभाल रही हैं। यूँ तो वह रंगकर्मी भी हैं, परन्तु मूलरूप से स्वयं को लोकगीत गायिका मानती हैं, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी लोकगीत की। 

उन्हीं "नगीन तनवीर" जी को सामने से 'लाइव' सुनने का एक शाम मौक़ा मिलना मन चाही मुराद से बढ़कर था। दरअसल "दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून" के सौजन्य से "दून पुस्तकालय सभागार" में पाँच दिवसीय- 8 मई से 12 मई तक होने वाले "ग्रीष्म कला उत्सव" में गत रविवार 12 मई के दोनों सत्रों में जाने का सुअवसर मिला था। पहले सत्र में थोड़ा विलम्ब से जाने कारण केवल हबीब तनवीर जी और उनके लोकप्रिय व प्रसिद्ध नाटकों में से एक - "चरणदास चोर" पर आधारित एक दुर्लभ श्वेत-श्याम वृत्तचित्र देख पाया और दूसरे सत्र पर ही तो आज की ये बतकही आधारित है .. बस यूँ ही ...

जहाँ "नगीन तनवीर" जी को 'लाइव' सुनने के साथ-साथ लोकगीत, संगीत, ग़ज़ल या हबीब तनवीर जी व उनके नाटकों से जुड़े विषयों पर श्रोता श्रेणी में दो-चार गज की दूरी पर बैठकर गीतों के बीच-बीच में सार्वजनिक रूप से उनके साथ बतियाना .. एक अभूतपूर्व अनुभूतियों की त्रिवेणी बन गयी थी। तभी तो आज की बतकही को नाम दिया है- " "पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ..."। लगभग साठ वर्षीया नगीन तनवीर जी के आभामण्डल को लगभग डेढ़ घंटे तक पास से महसूस करना अपने-आप में एक रविवारीय उपलब्धि भर ही नहीं, बल्कि जीवन की एक अनुपम उपलब्धि रही .. बस यूँ ही ...

वैसे भी जो लोग मन से कलाकार होते हैं, उन विभूतियों के लिए जाति-धर्म या देश-परदेश की सीमाएँ बंधन नहीं बन पाते हैं। इनके कई सारे ज्वलंत उदाहरण मिलते भी हैं। उन्हीं में दिवंगत हबीब तनवीर जी के साथ-साथ उनकी जीवनसंगिनी दिवंगत मोनिका मिश्रा जी और उनकी सुपुत्री नगीन तनवीर जी का भी नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। तभी तो वह छत्तीसगढ़ी लोकगीत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को भी उतनी ही अपनापन से अपना स्वर देती हैं और वह अन्य राज्यों के लोकगीतों को भी सीखने के लिए भी प्रयासरत हैं। 

जब वह छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के लोकगीत और ग़ज़ल भी सुनायीं, तो उनसे कार्यक्रम के बीच-बीच में होने वाली बातचीत के दौरान हमने पूछा कि "आपकी आज की पोटली में "बिहार" (लोकगीत) भी है क्या ?" तो .. उनका मुस्कान भरा उत्तर था, कि "अभी सीखना है .. सीख रही हूँ।" फिर बीच में एक बार हमने "जरा हल्के गाड़ी हाँकों, राम गाड़ी वाले" गाने का अनुरोध किया, तो स्नेहिल भाव के साथ इस कबीर भजन को ना गा पाने की अपनी असमर्थता जताईं। पर यकीनन ये जीवन दर्शन भरा कबीर भजन भी उनके मन के काफ़ी क़रीब रहा होगा, तभी तो उस भजन के मुखड़े को सुनकर उनके मुखड़े पर एक आध्यात्मिक मुस्कान तैर गयी थी।

आइए सबसे पहले .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में हबीब तनवीर जी की लिखी एक रचना- "बताओ गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी .." का एक अंश सुनते हैं, जिसे संगीतबद्ध भी उन्होंने ही किया था। जिसका अपने नाटक में अक़्सर प्रयोग भी करते थे। वह अपनी लिखी रचनाएँ स्वयं ही लोक वाद्य यंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से संगीतबद्ध करके अपने नाटकों में प्रायः प्रयोग में लाया करते थे। 

अब जीवन-दर्शन से सराबोर एक अन्य छत्तीसगढ़ी लोकगीत - "पापी चोला रे, अभिमान भरे तोरे तन में ..." का एक अंश उनकी आवाज़ में ...

एक अन्य लोकगीत, वह भी छत्तीसगढ़ से ही है। जिसे प्रत्यक्ष तो नहीं पर परोक्ष रूप से भारतीय सिनेमा के नामचीन लोगों ने चुराया है, जिसके मूल बोल का एक अंश है -" सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर, सैंया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल। अरे... केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ~~~ आये ब्यापारी गाड़ी में चढ़ीके, तोला आरती उतारंव थारी में धरी के, हो ~~~ करार गोंदा फूल, सास गारी देवे...."; परन्तु आपको ज्ञात होगा कि इसी के बोल में कुछ परिवर्त्तन करके 'फ़िल्म' - "दिल्ली 6" में "सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल, छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का, हो ~~ सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल ~~~ सैंया है व्यापारी, चले है परदेश, सुरतिया निहारूं जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल ~~~" के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जिससे उन लोगों को तो परोक्ष नक़ल के कारण बैठे-बिठाए ख्याति मिल गयी और दूसरी तरफ वर्षों से एक कोने में सिमटे उस लोकगीत को देश के कोने-कोने में वृहद् विस्तार मिलने से वह जनसुलभ बन गया .. भले ही बदले हुए रूप में। 

मतलब .. किसी दूसरे की बहुरिया को अपनी तरफ से दूसरी अँगिया पहना के अपनी बहुरिया होने का दावा करने जैसा ही है ये सब .. शायद ... ख़ैर ! .. बड़े लोगों की बड़ी बातें, हम जनसाधारण को क्या करना भला। चलिए उस मूल लोकगीत का एक अंश 'लाइव' सुनते हैं नगीन तनवीर जी की खनक भरी आवाज़ में - "ससुराल गेंदा फूल ~~~"

आइए .. अब मिलकर "पीपली लाइव" को 'लाइव' सुनते हैं .. मने .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." के एक अंश को सुनते हुए "पीपली लाइव" की याद ताजा करते हैं  .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते स्मरण कराता चलूँ कि इसी छत्तीसगढ़ी लोकगीत- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." को "सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी", पटना (बिहार) से 'मास कम्युनिकेशन' में कला स्नातक करने वाले युवा छात्र-छात्राओं ने अपने 'प्रोजेक्ट वर्क' के तहत "मुंशी प्रेमचंद" जी की मशहूर कहानी- "कफ़न" पर आधारित एक लघु 'फ़िल्म' बनाने के दौरान उस 'फ़िल्म' के अंत में भी बहुत ही कलात्मक ढंग से जीवन-दर्शन की गूढ़ता को दर्शाते हुए प्रयोग किया था। । जिसकी चर्चा आदतन विस्तारपूर्वक "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' " नामक बतकही को चार भागों ( भाग-१, भाग-२, भाग-३ व भाग-४ ) में यहाँ साझा करते हुए " ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' .. (अंतिम भाग-४)" में उस 'फ़िल्म' को भी चिपकाया था। 

आत्ममुग्धतावश या आत्म-प्रशंसावश तो नहीं, पर .. हम "घीसू" के पात्र को जीने के आत्म-गौरव की अनुभूति करते हुए पुनः एक बार "कफ़न" को यहाँ चिपकाने से स्वयं को संवरण नहीं कर पा रहे हैं .. .. बस यूँ ही ...

अगर हृदय स्पंदन आगे भी गतिमान रहा तो पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ... 🙏🙏🙏


Saturday, May 4, 2024

उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम ...


जीवन के बचपन की सुबह हो, जवानी की भरी दुपहरी हो या फिर वयस्कता की ढलती हुई शाम .. जीवन के हर मोड़ पर पनपने वाले सपने .. अलग-अलग मोड़ पर पनपे अलग-अलग रंग-प्रकार के सपने और कुछेक ख़ास तरह के .. ताउम्र एक जैसे ही रहने वाले, परन्तु .. परिस्थितिवश सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह सुषुप्तावस्था में कुछ-कुछ सोए, कुछ-कुछ जागे, कुछ उनिंदे-से सपने .. जब कभी भी जीवन के जिस किसी भी मोड़ पर कुलाँचें भरने लगें और यदि वो सपने बड़े हों, तो ऐसे में छोटी-छोटी उपलब्धियाँ मन को गुदगुदा नहीं पाती हैं .. मन में रोमांच पैदा नहीं कर पाती हैं .. शायद ...

ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी उपलब्धियाँ देहरादून प्रवास के दौरान जब कभी भी मिली हैं, हम इस 'ब्लॉग' के पन्नों को अपनी आधुनिक 'डायरी' मानते हुए अपनी चंद छोटी-छोटी उपलब्धियाँ इस पर उकेरने के बहाने ही आप सभी से भी साझा कर लेते हैं। मसलन -

 प्रसार भारती के अन्तर्गत आकाशवाणी, देहरादून द्वारा प्रसारित 02.01.2023 की "कवि गोष्ठी" में उत्तराखंड के अन्य कवि-कवयित्रियों के साथ हमें हमारी बतकही के रूप में अपनी तीन कविताओं को पढ़ने का मौक़ा मिल पाया था, जिसके लिए हम कार्यक्रम अधिशासी दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी का आभारी हैं। उस "कवि गोष्ठी" के अपने हिस्से की आवाज़ की 'रिकॉर्डिंग' हमने बाद में यहाँ आप सभी से साझा भी किया था।

उसके बाद पुनः 21.04.2023 को आकाशवाणी, देहरादून द्वारा ही प्रसारित "कथा सागर" कार्यक्रम के तहत बतकही के रूप में हमें हमारी कहानी - "बस यूँ ही ..." सुनाने का मौका मिला था, जिसकी ध्वनि की भी 'रिकॉर्डिंग' हमने आगे साझा की थी। यह भी कार्यक्रम अधिशासी दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी के ही सौजन्य से मिला था।

फिर हमारी मुलाक़ात हुई थी, 27.05.2023 को प्रसार भारती के तहत दूरदर्शन, उत्तराखण्ड से प्रसारित "हिन्दी कवि गोष्ठी" के तहत; जब हमें उत्तराखंड के अन्य कवि-कवयित्रियों के लिए मंच-संचालन के साथ-साथ स्वाभाविक है, कि हमारी बतकही के रूप में अपनी कविताओं को सुनाने का भी सुअवसर मिल पाया था। जिसकी 'यूट्यूब' अभी तक यहाँ साझा नहीं कर पाया, जो अभी आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...


पुनः विगत बार हमलोग मिले थे, देश भर में मनाए जा रहे "हिंदी माह" के तहत 18.09.2023 को आकाशवाणी, देहरादून द्वारा ही प्रसारित एक कार्यक्रम "एक वार्ता" के तहत "अंतरराष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" नामक वार्ता के संग। उसकी भी अभिलेखबद्ध ध्वनि हमने यहाँ पर साझा किया था .. बस यूँ ही ...

अब पुनः ध्वनि के माध्यम से हमारी भेंट हो रही है .. 05.05.2024 को रात्रि के 8 बजे प्रसार भारती के ही आकाशवाणी, देहरादून से कार्यक्रम अधिशासी राकेश ढौंडियाल जी के सौजन्य से प्रसारण होने वाले "काव्यांजलि" कार्यक्रम के तहत, जिसमें हमारी एकल बतकही सुन सकेंगे आप .. अगर आपकी इच्छा हुई तो .. बस यूँ ही ...

आप अपने मोबाइल पर Play Store से News On Air नामक App को download कर लीजिए, जिससे आप समस्त भारत के प्रसार भारती से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम को सुन सकते हैं।

अब एक नज़र आज की बतकही पर .. जिसे हमने नाम दिया है - "उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम ..."

किसी भ्रामक विज्ञापन-सी,

मनलुभावन, मनभावन-सी,

रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधन

पुतवायी किसी श्रृंगार केन्द्र से,

लिपटी स्व संज्ञान में 

कुछ विशिष्ट लिबासों से,

विशिष्ट आभूषणों से लदी लकदक

कृत्रिम सुगंधों के कारावास में,

आवास में, प्रवास में,

तीज-त्योहारों में, शादी-विवाहों में,

बन के मिसाल, एक प्रज्वलित मशाल-सी

सजधज कर, बनठन कर, 

मचलती हुई, मटकती हुई,

कभी अलकों को झटकाती,

कभी लटों को सँवारती,

बनी-ठनी, सजी-सँवरी,

प्रयास करती हो प्रायः ..

ठगे गए उपभोक्ताओं जैसी

अनगिनत अपलक निग़ाहों के 

केंद्र बिंदु बनने की, बनती भी हो, बनी रहो .. बस यूँ ही ...


वैसे भी तो .. 

उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम,

जितने हैं भ्रामक वो विज्ञापन सारे,

ना जाने भला कैसे-कैसे ? ..

लेके आड़ काल्पनिक व रचनात्मक चित्रण के

और अक्षर भी वो आड़ वाले सारे छोटे-छोटे, 

लेकिन केसर उस अक्षर से भी बड़े-बड़े,

हैं दिख जाते प्रतिष्ठित लोग छींटते हुए ढेर सारे।

"बोलो जुबां केसरी" के बहाने 

केसर व केसरिया रंग भी

हैं पैरों तले मिलकर रौंदते।

एक मोहतरमा देकर हवाला 

एक पुराने फ़िल्मी गीत के,  

दिखती हैं अक़्सर .. पुरुष जांघिए में ढूँढ़ती 

अपना दीवानापन या सुरूर मोहब्बत के।

हद हो जाती है तब, जब "ठंडा" जैसा ..

एक शब्द हिंदी शब्दकोश का जैसे,

मतलब ही अपना है खो देता एक शीतल पेय (?) से।

दिमाग़ी और शारीरिक ताक़तें व ऊर्जा हैं इनमें,

ऐसा दिखलाते-बतलाते हैं मिल कर सारे वो .. शायद ...


किन्तु हमें तो बस्स ! ...

पढ़ना है तुम्हारे अंतस मन को,

जिसमें मैं शायद शेष बचा होऊँ

आज भी या नहीं भी, 

पूजन की थाली में

रंचमात्र बचे अवशेष की तरह

जले भीमसेनी कपूर के।

तुम आओ, ना आओ कभी समक्ष मेरे, 

परन्तु .. पढ़ना है मुझे एक बार ..

बारम्बार .. केवल और केवल 

तुम्हारे चेतन-अवचेतन मन को,

पल-पल, हर पल .. मन में आते-जाते

तमाम तेज विचारों से इतर,

कुछ सुस्त, सुषुप्त पड़ी तुम्हारी भावनाएँ।

ठीक है ? .. ठीक .. ठीक-ठीक .. 

किसी भ्रामक विज्ञापन की

लघु मुद्रलिपि वाले अस्वीकरण की तरह

या किसी चलचित्र के किसी कोने की

संवैधानिक चेतावनी की तरह 

मन के कोने में तुम्हारे जो कुछ भी दबी हो .. बस यूँ ही ...


Tuesday, April 30, 2024

मुताह के बहाने गुनाह ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(१) :-

आज की बतकही की शुरुआत करने में ऊहापोह वाली स्थिति हो रही है .. ऐसे में इसका मूल सिरा किसे मानें .. ये तय कर पाना .. कुछ-कुछ ऊहापोह-सा हो रहा है, पर कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी .. तो फ़िलहाल अपनी बतकही शुरू करते हैं .. किसी भी एक सिरे से .. बस यूँ ही ...

प्रायः किसी के साथ बचपन में घटी घटनाओं या यूँ कहें कि दुर्घटनाओं से जुड़ी आपबीती उसे पूरी तरह से या तो तोड़ देती है या फिर फ़ौलादी इरादों वाला एक सफल इंसान बना देती है। तो फ़िलहाल हम .. कुछेक लोगों के बचपन की घटित दुर्घटनाओं से उनके सफल इंसान बनने की सकारात्मक बातें करने का प्रयास करते हैं, तो .. एक तरफ "तस्लीमा नसरीन" जैसी को उनकी कमसिन उम्र में दी गयी अपनों (?) की यौन शोषण वाली प्रताड़नाएँ "लज्जा" और "बेशरम" जैसी अनगिनत किताबें लिखवा देती हैं; तो दूसरी तरफ अफ़्रीकी मूल की अमरीकी महिला नागरिक "ओपरा विनफ़्रे" जैसी को पारिवारिक परिमिति में ही मिली जन्मजात पीड़ा की तपन विश्व की सबसे प्रभावकारी और बहुमुखी प्रतिभाशाली महिलाओं में से एक बना देती है तथा साथ ही उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार विश्व की पहली अश्वेत महिला अरबपति भी। तो कभी "सुज़ेना अरुंधति राय" जैसी से "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" लिखवा डालती है और उस उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिल जाता है।

यूँ तो प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के अनुसार मनोलैंगिक विकास के सिद्धांत के अनुसार किसी भी इंसान के मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है, जिसके तहत जन्म से पाँच वर्ष तक की उम्र को मानसिक या शारीरिक विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना गया है। राष्ट्रीय सेवा योजना (एन एच ) के अनुसार भी बच्चों के मस्तिष्क का नब्बे प्रतिशत विकास उनके पाँचवें वर्ष से पहले तक होता है। यानी .. पाँच वर्षों तक किसी के बचपन के चित्रफलक पर जो भी घटित घटनाओं या दुर्घटनाओं के रेखाचित्र उकेरे जाते हैं, इंसान ताउम्र उन्हीं में अपने मनपसंद जीवन-रंगों को भर कर अपने भविष्य की रंगोली सजा पाता है .. शायद ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(२) :-

आज जब बचपन से सम्बन्धित बातें चली ही है, तो इस बतकही के प्रसंगवश पचास और उसके बाद के दशकों के दौर में सामुदायिक स्तर पर बीते बचपन की बातें हमलोग आपस में बतिया ही लेते हैं। 

यूँ तो सर्वविदित है, कि बीसवीं सदी वाले पचास के दशक के उत्तरार्द्ध यानी सन् 1957 ईस्वी में .. जब शुरूआती दौर का "ऑल इंडिया रेडियो" बदल कर "आकाशवाणी" हो गया था; तब उससे प्रसारित होने वाले अधिकांशतः सामाजिक सरोकार वाले ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के साथ-साथ उसकी "विविध भारती" सेवा के माध्यम से अनेकों मनोरंजक कार्यक्रमों की भी शुरुआत हो गयी थी। मसलन - "इनसे मिलिए, संगीत सरिता, भूले बिसरे गीत, चित्रलोक, जयमाला, हवामहल, छायागीत" इत्यादि। लगभग पचास से सत्तर तक के दशक वाले प्रायः सभी बचपन व किशोरवय को लगभग इन सभी लोकप्रिय कार्यक्रमों के श्रोता बनने का अवसर प्राप्त हुआ था और आप भी शायद उनमें से एक हों .. है ना ? ..

अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध यानी सन् 1982 ईस्वी में दिल्ली में आयोजित अप्पू हाथी शुभंकर वाले "एशियाई खेल" के आरम्भ होने के पूर्व ही लगभग देश भर में श्वेत-श्याम दूरदर्शन की पैठ जमने के पहले तक .. देश के लगभग कोने-कोने के सभी वर्गों में रेडियो का या .. यूँ कहें कि आकाशवाणी का बोलबाला रहा है। आज की पीढ़ी के लिए प्रसून जोशी वाले "ठंडा मतलब कोका-कोला" की तर्ज़ पर हम कह सकते हैं, कि वो दौर था .. "रेडियो मतलब मर्फी" का .. शायद ...

आकाशवाणी की "विविध भारती" सेवा के उपरोक्त लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक- "भूले-बिसरे गीत" कार्यक्रम का आनन्द उस दौर के लोगों ने अवश्य ही लिया होगा। इस कार्यक्रम के समापन की सबसे ख़ास बात ये थी, कि प्रत्येक दिन सुबह के लगभग आठ बजे या यूँ कहें कि लगभग सात बज कर सत्तावन मिनट पर इसके समापन के समय "के. एल. सहगल" जी का गाया हुआ कोई भी एक गीत बजाया जाता था। इनके गीत बजने की घोषणा होते ही लोगबाग़ बिना घड़ी देखे सुबह के आठ बजने का अनुमान ही नहीं, वरन् पुष्टि कर लेते थे। रसोईघर में काम कर रहीं महिलाएँ काम में तेजी ले आती थीं। बच्चे अपना खेल या 'होमवर्क' छोड़ कर 'स्कूल' जाने की और वयस्क जन 'न्यूज़ पेपर' का चस्का एवं चाय की चुस्की त्याग कर तत्क्षण 'ऑफिस' जाने की तैयारी में स्फूर्ति के साथ लग जाया करते थे।लब्बोलुआब ये है, कि तत्कालीन "आकाशवाणी" के तहत "विविध भारती" से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "भूले-बिसरे गीत" के समापन में सहगल जी का बजने वाला गीत सुबह आठ बजने का द्योतक बना हुआ था .. शायद ...

अब ये अलग बात है, कि आज "बाबा सहगल" यानी भारतीय 'रैपर' "हरजीत सिंह सहगल" को जानने वाली वर्तमान नयी व युवा पीढ़ी "के. एल. सहगल" यानी "कुन्दन लाल सहगल" जी के नाम और काम से शायद ही अवगत होगी। परन्तु सन् 1938 ईस्वी में आए एक श्वेत-श्याम चलचित्र- "स्ट्रीट सिंगर" में भैरवी राग पर आधारित उन्हीं का गाया हुआ और उन्हीं पर फ़िल्माया हुआ एक गीत .. उस दौर के लोगों द्वारा काफ़ी बार सुना और गाया या गुनगुनाया गया है या यूँ कहें कि लगभग तीस से नब्बे तक के दशक में यह गीत काफ़ी लोकप्रिय रहा है। 

जिसका मुखड़ा है .. "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. जो दरअसल एक पूर्वी ठुमरी है। जिसमें तबला, तानपुरा के अलावा सारंगी और हारमोनियम जैसे वाद्य यंत्रों की कर्णप्रिय ध्वनि सन्निहित हैं। इस गीत के संगीतकार थे .. उस समय के जाने माने संगीतकार - आर. सी. बोराल (रायचन्द बोराल) .. इस दार्शनिक भावपूर्ण गीत को कलमबद्ध करने वाले रचनाकार ही आज की बतकही के मुख्य केंद्र बिंदु हैं।

तो आइए ! .. बतकही के इस पड़ाव पर अल्पविराम लेते हुए तनिक विश्राम करते हैं और "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की गुनगुनी आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...


मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(३) :-

कहते हैं, कि हरेक इंसान के गुण व अवगुण दोनों ही होते हैं। हर इंसान में अच्छे पक्ष और बुरे पक्ष .. दोनों ही समाहित होते हैं। पर सारे गुण-अवगुण की बुनियादें इंसान के बचपन की परवरिश से बहुत हद तक प्रभावित होती हैं .. शायद ... 

एक परवरिश विशेष ही महज़ छ्ब्बीस साल की उम्र में ही किसी इंसान से एक तरफ तो "परीखाना" नामक आत्मकथा लिखवा डालती है और "परीख़ाना" नामक नृत्य और संगीत की मुफ़्त में शिक्षा दिए जाने वाले रंग महल भी बनवा देती है। जिसकी वजह से वह शहर तत्कालीन उत्तर भारत का सांस्कृतिक केन्द्र बन जाता है और दूसरी तरफ .. उसी इंसान से .. अगर उपलब्ध इतिहास को साक्ष्य मानें तो .. एक दिन में तीन-तीन और स्वयं के सम्पूर्ण जीवनकाल में तीन सौ से भी ज्यादा .. उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक लगभग पौने चार सौ निकाह करवा देती है। इस तरह उन इतिहास-पुरुष की एक तरफ तो सृजनशीलता की पराकाष्ठा थी, तो दूसरी तरफ अय्याशों वाली प्रवृत्ति भी थी .. शायद ...

उपलब्ध जानकारियों से पता चलता है, कि यूँ तो इस्लामी शरीया कानून एक व्यक्ति को अधिकतम चार निकाह करने की ही सशर्त अनुमति देता है; लेकिन इस्लाम के चार प्रमुख समुदायों- सुन्नी, शिया, सूफ़ी व अहमदिया में से एक- शिया समुदाय में एक अन्य प्रकार का निकाह- "मुताह निकाह" उन्हें अनगिनत निकाह की इजाज़त देता है और उसे जायज़ ठहराता है। सामान्य निकाह जिसे ताउम्र चलना चाहिए या यूँ कहें कि चलता है, इस के विपरीत "मुताह निकाह" एक तयशुदा समय पर आधारित करार भर होता है। जो करार एक दिन से साल भर तक या उससे भी ज्यादा दिनों तक का हो सकता है। लोग कहते हैं कि दरअसल ये धर्म-सम्प्रदाय की आड़ में अय्याशी करने का ही एक ज़रिया था या है। जैसे माँसाहारियों के लिए निरीह पशुओं-पक्षियों की निर्मम बलि को उचित ठहराया जाना और गँजेड़ियों-भँगेड़ियों के लिए गाँजा-भाँग तथाकथित शिव जी का प्रसाद माना जाना .. वो भी अपनी गर्दन को अकड़ाते हुए .. शायद ... .. नहीं क्या ? ...

इतिहास बतलाता है, कि वो इंसान एक भावपूर्ण ठुमरी "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. को रचने वाले सृजनशील रचनाकार होने के साथ-साथ एक अय्याश इंसान भी थे; जो कुछ मान्यताओं के मुताबिक़ अवध के आख़िरी नवाब थे और .. कुछ इतिहासकारों की मानें तो .. दरअसल अवध के आख़िरी से ठीक पहले के नवाब- "अबुल मंसूर मिर्ज़ा मुहम्मद वाजिद अली शाह" थे, जिन्हें "वाजिद अली शाह" नाम से हम सभी जानते हैं। आख़िरी नवाब उन्हीं के बेटे बिरजिस क़द्र थे। 

एक तरफ तो संगीत की दुनिया में नवाब वाजिद अली शाह का नाम अविस्मरणीय है और इन्हें संगीत विधा- "ठुमरी" का जन्मदाता भी माना जाता है। कहते हैं, कि वह एक संवेदनशील, सृजनशील एवं रहमदिल इंसान थे। फ़ारसी व उर्दू भाषा की अच्छी जानकारी होने के नाते उनके द्वारा कई किताबें लिखी गयीं, जिनमें कई कविताओं और नाटकों को भी स्थान मिला था। दूसरी तरफ उन्होंने कपड़े बदलने की रफ़्तार से भी तीव्र गति के साथ कई-कई निकाहें भी रचाई।

उनकी इन दोहरे चरित्र की पृष्टभूमि में भी उनके बचपन की परवरिश का ही असर झलकता है .. शायद ... 

अपनी आत्मकथा “परीखाना” में उन्होंने लिखा है, कि - "जब मेरी उम्र आठ वर्ष की थी, रहीमन नाम की एक औरत मेरी ख़िदमत में लगाई गई थी। उसकी उम्र तकरीबन पैंतालिस साल थी। एक दिन जब मैं सो रहा था, तो उसने मुझ पर काबू पा लिया, दबोच लिया और मुझे छेड़ने लगी। मैं डरकर भागने लगा, लेकिन उसने मुझे रोक लिया और मुझे मेरे उस्ताद मौलवी साहब से शिकायत करने का डर भी दिखलाया।" .. आगे लिखते हैं, कि - "मैं परेशान था, कि किस मुसीबत में फंस गया। फिर भी अगले दो साल तक जब तक रहीमन रही, यह रोज का सिलसिला हो गया। आगे भी .. अम्मी की लगभग पैंतीस-चालीस वर्षीया मुलाज़िम अमीरन ने भी मेरे साथ यही सब दोहराया।"

उनके अनुसार उनके ग्यारह वर्ष की उम्र तक में ही उनको औरतों के साथ हमबिस्तरी भाने लगी और रहीमनअमीरन के अलावा उन उत्कंठा भरे क्रिया-कलापों में और भी कई उम्रदराज़ मोहतरमाओं के नाम जुड़ते चले गए थे .. शायद ...

आज भी .. वो सब .. सोच कर भी .. कोई भी संवेदनशील और समानुभूति वाला मन सिहर जाता है, कि पहली बार जब एक तरफ आठ साल का अबोध बालक और दूसरी ओर पैंतालिस साल की वे कामुक महिलाएँ रहीं होंगी; तब .. उस बाल नवाब वाजिद अली शाह की क्या मनःस्थिति रही होगी भला ...

आगे "परीखाना" के अनुसार- "हर इंसान को ऊपर वाले ने मोहब्बत करने का मिज़ाज दिया है। इसे बसंत का बग़ीचा होना चाहिए, लेकिन मेरे लिए यह एक खर्चीला जंगल बन चुका है।"

इसके लिए वे उन रहीमन-अमीरन जैसी अधेड़ मोहतरमाओं को दोषी मानते हैं, जिनके जिम्मे आठ साल के शहजादे की देखरेख थी, पर वो कई सालों तक उनका यौन शोषण करती रहीं थीं। बचपन की इन्हीं सोहबतों और लतों ने उन्हें ताउम्र शाही ख़ानदान, चकलेदार, जमींदारों, ताल्लुक़ेदारों के घरानों की बेटियों के साथ-साथ कई ब्याहताओं, कोई सब्जी बेचने वाली, कई कोठे वालियों और अफ्रीकन मूल की घुंघराले बालों वाली काली लड़कियों तक से मुताह निकाह के बहाने निकाह करवाया। उस पर तुर्रा ये था, कि उनके तत्कालीन समर्थकों के मुताबिक़ नवाब वाजिद अली शाह एक ऐसे पवित्र इंसान थे, जो किसी परायी स्त्री से निकाह किए बिना उसके साथ हमबिस्तर नहीं होते थे।

ख़ैर ! ... हम सभी को इन सब में क्या करना भला ? .. ये सब तो बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें हैं। ऐसे परिदृश्य हर कालखंड में अपने स्वरूप को परिवर्तित करके स्वयं को दोहराते हैं तथा हम आमजन केवल इनकी चर्चा भर करते आए हैं और शायद .. आगे भी करते भर रह जाएंगे; क्योंकि तथाकथित समाज में किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव लाने की मादा है ही नहीं हमारे भीतर .. शायद ... 

आइए ! .. बतकही के अंत से पहले वाजिद अली शाह द्वारा अवधी भाषा में रचित  "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की जगह ताल दीपचंदी में "किशोरी अमोनकर" जी की मधुर आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

यूँ तो अवध की राजधानी पहले फ़ैज़ाबाद में थी, जो वर्तमान अयोध्या है, पर बाद में राजधानी लखनऊ बनायी गयी थी। इतिहासकारों की मानें, तो जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अवध की तत्कालीन राजधानी लखनऊ से निर्वासित करते हुए कलकत्ता भेज दिया था, तभी उनके द्वारा एक शोक गीत के रूप में लिखा गया था ये- "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" यानी अनुमानतः उन्होंने बाबुल और नैहर को अपने प्रिय शहर लखनऊ से स्वयं को ज़बरन निर्वासन के लिए बिम्ब की तरह प्रयुक्त किया होगा .. शायद ...

महज़ कुछ पँक्तियों की ये दार्शनिक कालजयी रचना अनगिनत सिद्धहस्त लोगों द्वारा समय-समय पर अपने-अपने अलग-अलग अंदाज़ में गाया गया है।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें  

मोरा अपना बेगाना छुटो जाय

बाबुल मोरा ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश

ले बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश

बाबुल मोरा ...

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

यदि शास्त्रीय संगीत सुनते-सुनते मन अब ऊब या उचट गया हो, तो इसी गीत को फ़िल्म- "आविष्कार" के लिए फिल्माए गए जगजीत-चित्रा सिंह जी की आवाज़ में सुन लीजिए एक रूमानी अंदाज़ में .. बस्स ! .. मन बहल जाएगा .. शायद ...

https://youtu.be/FImnFvwuPfg?si=5yrS8bBwSOARuDlW

और हाँ .. चलते-चलते एक विषयान्तर बात .. कि जब कभी भी आपके पास फ़ुर्सत और मौका दोनों हो, तो .. दिवंगत किशोरी अमोनकर जी के इस लगभग पौन घंटे लम्बे साक्षात्कार का अवश्य अवलोकन कीजिएगा और .. साहित्य व संगीत के संगम में गोते लगाइएगा .. उम्मीद है आनन्द और ज्ञानवर्द्धन .. दोनों ही होगा .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के बहाने .. बतकही के अंत में .. उपरोक्त सभी विभूतियों को हम सभी के मन से शत्-शत् बार नमन 🙏 .. बस यूँ ही ...