एक शाम किसी लार्वा की तरह कुछ बिम्बों में लिपटी चंद पंक्तियाँ मन के एक कोने में कुलबुलाती-सी, सरकती-सी महसूस हुई .. बस यूँ ही ... :-
" मन 'फ्लैट'-सा और रुमानियत आँगन-सी
सोचें रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरे-सी
और है हो गई रूहानियत किसी गौरैये-सी ... "
पर उन लार्वा सरीखे उपर्युक्त पंक्तियों को जब अपने मन के डाल पर अपनी सोचों की चंद कोमल पत्तियों का पोषण दे कर, उन्हें उनके रंगीन पँखों को पनपाने और पसारने का मौका दिया तो उनका रूप कुछ इस क़दर विकसित हो पाया ... :-
मुँहपुरावन वाली चुमावन ...
डायनासोर ही तो नहीं केवल हो चुके हैं विलुप्त इस ज़माने भर से,
जीवन की बहुमंजिली इमारतों में सुकून का आँगन भी अब कहाँ ?
सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!
अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?
रूहानियत बेपता, रुमानियत लापता, मिलते हैं अब मतलब से सब,
प्यार से सराबोर जीता था मुहल्ला कभी, वो जीवन भी अब कहाँ ?
लाख कर लें गंगा-आरती हम, कह लें सब नदी को जय गंगा माता,
शहर के नालों को गले से लगाकर भला गंगा पावन भी अब कहाँ ?
बढ़ गई है मसरूफ़ियत हमारे रोज़मर्रे में जानाँ कुछ इस क़दर कि ..
रुमानियत भरी तो दूर .. मुँहपुरावन वाली चुमावन भी अब कहाँ ?