Thursday, November 21, 2024

दो टके का दो टूक ... (२)


अब आज इस बतकही के शेष-अवशेष को "दो टके का दो टूक ... (२)" में हम जानते-समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाला तथाकथित हिंदूओं का एक समुदाय दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाता है भला ! .. बस यूँ ही ...

दरअसल पूरे वर्ष भर किसी भी धर्म-सम्प्रदाय द्वारा अपनी-अपनी आस्था के अनुसार मनाया जाने वाला कोई भी त्योहार या धार्मिक अनुष्ठान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समस्त समष्टि को जोड़ने का ही कार्य करता है .. शायद ... 

अब यदि ऐसे अवसर पर समष्टि को तोड़ने का या फिर निज पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का कोई भी कृत्य होता हो, तो ऐसे कृत्य कम से कम हमारे पुरखों द्वारा तो हमें विरासत -स्वरूप कतई नहीं सौंपे गए होंगे। निश्चित रूप से पुरखों की थाती के अपभ्रंश रूप ही ये सारे के सारे नहीं भी, तो .. अधिकांश अपभ्रंश प्रचलन हमारे वर्तमान समाज में प्रचलित हैं .. शायद ...

ऐसे विषयों पर हमारे बुद्धिजीवी समाज के प्रबल प्रबुद्ध गण भी सकारात्मक विश्लेषण करने की जगह प्रायः अंधानुकरण करने में ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते देखे जाते हैं। नतीजतन हाल ही में बीती दिवाली के मौके पर इस वर्ष ही नहीं, वरन् हर वर्ष दो खेमों में बँटे लोग आतिशबाज़ी के पक्ष और विपक्ष में टीका-टिपण्णी करते हुए दिखते तो हैं, परन्तु हल के नाम पर .. वही ढाक के तीन पात .. शायद ...

जबकि हमारे पड़ोस के कट्टर हिंदूवादी देश - नेपाल में पूरी तरह से आतिशबाज़ी प्रतिबंधित है। इस से सम्बन्धित किसी भी सामग्री-उत्पाद के उत्पादन और विपणन पर भी रोक है। वैसे तो तस्करी या अन्य किसी जुगाड़ से चोरी-छिपे वहाँ पटाख़ों का उपलब्ध होना, बिकना और जलाना एक अलग ही बात है , जो है तो वहाँ के कानून के अनुसार एक दंडनीय अपराध ही।

ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता  .. हमारे देश-समाज में धर्म-परम्परा की आड़ में अगर कुछ विनाशकारी या हानिकारक परम्पराएँ हैं भी तो .. उन्हें प्रतिस्थापित करना भी हमारा ही धर्म है। इनमें बलि प्रथा , जल्लीकट्टू , दिवाली के दिन पिंजड़े में बंद उल्लू का दर्शन , दशहरे में पिंजड़े में बंद नीलकंठ पक्षी का दर्शन , मृत्युभोज , बकरीद के दिन तथाकथित क़ुर्बानी जैसी अंधपरम्पराएँ भी शामिल हैं। वैसे भी कोई भी धर्म व्यष्टि संगत के साथ-साथ समष्टि संगत भी होनी ही चाहिए .. शायद ... 

यूँ तो हम लोगों ने अपनी दिनचर्या में जाने-अंजाने नाना प्रकार के अनगिनत प्रतिस्थापन कर रखे हैं .. न जाने हमने कब पजामे से धोती को और पतलून से पजामे को प्रतिस्थापित किया है। भाषा-बोली के मामले में भी संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत, अवहट्ट, पुरानी हिन्दी, अपभ्रंश हिन्दी तक में कई प्रतिस्थापन किए हैं। अब हम भाषा- बोलियों में, परिधानों में, खान-पानों में, पकवानों में निरन्तर अनेकों प्रतिस्थापन किए हैं , तो धार्मिक परम्पराओं में भी एक- दो सकारात्मक परिवर्तन- प्रतिस्थापन करके कोई गुनाह तो नहीं ही करेंगे ना हम ? .. शायद ...

हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी दिवाली मनाई तो जाती है, पर भिन्न तरीके से और भिन्न मान्यताओं के साथ। वहाँ तथाकथित राम आगमन वाली कोई मान्यता है ही नहीं , बल्कि वहाँ तथाकथित लक्ष्मी व विष्णु के पूजन वाली मान्यता है और .. सबसे विशेष बात तो ये है, कि दीपावली के दिन पालतू ही नहीं, बल्कि गली के सभी कुत्तों की भी पूजा की जाती है। बाज़ाब्ता उन्हें साफ़-सुथरा कर के गुलाल, दही व अक्षत् के मिश्रण का टीका उनके माथे पर लगा कर और फूलों की माला पहना कर लोग उनकी आरती उतारते हैं। फिर उन्हें उनके मनपसन्द व्यंजनों को भरपेट खिलाया जाता है। 

जबकि हमारे यहाँ तो कुत्तों के दसियों मुहावरे दोहरा- दोहरा कर उन्हें ताउम्र हेय दृष्टि से देखकर हम कोसते रहते हैं। मसलन - धोबी का कुत्ता, ना घर का, ना घाट का / सराय का कुत्ता / दहलीज़ का कुत्ता / अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है / कुत्तों को घी हज़म नहीं होता / अँधी पीसे, कुत्ता खाए / कुत्ते की दुम, टेढ़ी की टेढ़ी / कुत्ते की तरह पेट पालना / कुत्ते की ज़िंदगी जीना / कुत्ते की मौत मरना / कुत्ते की तरह दुम दबा कर भागना / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / ऊँट चढ़े पर कुत्ता काटे / पुचकारा कुत्ता सिर चढ़े / सीधे का मुँह कुत्ता चाटे / कुत्ते डोलना / हाथी चले बाज़ार, कुत्ता भौंके हजार / बासी बचे न कुत्ता खाय / घर जवांई कुत्ते बराबर / भौंकने वाले कुत्ते कभी काटते नहीं / कुत्ते को हड्डी प्यारी / कुत्ते की तरह दुम हिलाना / खौरही कुतिया, मखमली झूल / अपने कुत्तों को बुलाओ इत्यादि -इत्यादि।

उपरोक्त सारे मुहावरे तो सर्वविदित हैं, पर प्रसंगवश दोहरा कर हम में से ज़्यादातर लोगों की अपनी दोहरी मानसिकता को दोहराने की कोशिश भर कर रहे हैं, कि एक तरफ़ तो हमारे यहाँ क्रमशः कुत्ते और चूहों को तथाकथित भैरव एवं गणेश की सवारी मानने की मान्यताएँ हैं ; तो दूसरी तरफ़ हम चूहों को जान से मारने व अपने-अपने घरों से भगाने के विभिन्न तरीके अपनाते हैं तथा कुत्तों के लिए हमारी मानसिक कलुषिता को दर्शाने के लिए हमारे व्याकरण में उपलब्ध उपरोक्त कहावतें ही पर्याप्त हैं .. शायद ...

ख़ैर ! .. बतकही हो रही है नेपाल की दिवाली की, जिसे वहाँ "तिहार" कहा जाता है , जो पाँच दिनों तक मनाई जाती है। हमारे देश में जिस दिन छोटी दीपावली मनाते हैं, वहाँ कौओं की पूजा की जाती है, जिसे "काग तिहार" कहते हैं तथा हमारे यहाँ जिस दिन दिवाली मनाते हैं, वहाँ "कुकुर तिहार" मनाते हुए कुत्तों की पूजा की जाती है। जिसके पीछे हमारी तरह उनकी भी कई तथाकथित धार्मिक लोक मान्यताएँ हैं। इसी दिन "नरक चतुर्दशी" नामक त्योहार भी मनाया जाता है।

फिर तीसरे दिन "गाय तिहार" व लक्ष्मी पूजा की जाती है , जो हमारे देश के गोवर्धन पूजा व लक्ष्मी पूजा से मेल खाती है। इसी क्रम में चौथे दिन "गोरू तिहार" व "महा पूजा" होता है, जिसके तहत बैलों और परिवार के वृद्धों की पूजा की जाती है तथा अगले दिन यानि पाँचवे दिन "भाई टीका" नामक त्योहार मनाते हैं , जो हमारे देश में मनाए जाने वाले भैया दूज ता भाई पोटा की तरह ही है।

इस प्रकार "तिहार" केवल रोशनी का ही त्योहार नहीं है, बल्कि यह जीवन, प्रकृति, जानवरों और पारिवारिक बंधनों का उत्सव है। यह कौवे, कुत्ते, गाय और बैलों की पूजा द्वारा मनुष्यों और जानवरों के बीच के रिश्ते के मजबूत बंधन को दर्शा कर उनका सम्मान करता है। यह प्रकृति और आध्यात्मिकता के बीच एक गहरा संबंध विकसित करता है और लोगों को अपने पर्यावरण के साथ भी सद्भाव की महत्ता की याद दिलाता है।

'सोशल मीडिया' से पता चला है, कि इस वर्ष हमारे देश में भी छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में पुराने बस स्टैंड स्थित एक कुत्ता केंद्र में बड़ी संख्या में कुत्तों की पूजा करके "कुकुर तिहार" मनाया गया है। यह छोटा ही सही, पर यह सकारात्मक प्रयास हमारे मानव समाज के लिए अनुकरणीय है .. शायद ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (३)" में साझा करते हैं और अगर .. आप हमारी तरह बेवकूफ़ हैं व हमारी बतकही को झेलने का धैर्य रखते हैं, तो .. गत वर्ष की दीपावली की एक संवेदनशील घटना- दुर्घटना की अनुभूति पढ़ने आ सकते हैं या फिर ... 🙏


Thursday, November 14, 2024

दो टके का दो टूक ... (१)

 


आज हम उपलब्ध इतिहास की मानें, तो कभी कंदराओं में रहने वाले नग्न आदिमानव भले ही क़बीलों में बँटे हुए, तब अपनी उत्तरजीविता के लिए आपस में युद्धरत रहा करते थे। परन्तु उन क़बीलों से वर्तमान क़ाबिल हो जाने तक का एक लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी आज तो और भी ज़्यादा ही अन्य कई सारे आपसी दृष्टिकोणों वाले मतभेद जनित वर्चस्व की प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आपसी लड़ाई में वो निरन्तर तल्लीन दिखाई देते हैं .. शायद ...

चाहे वो मामलात धर्म-सम्प्रदाय के हों, पर्व-त्योहार के हों, जाति-क्षेत्र के हों, जीवनशैली के हों .. हर क्षेत्र में, हर पल .. जनसमुदाय खेमों में बँटा हुआ दिखता है। इस वर्ष दीपावली जैसे त्योहार में भी हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी एवं तथाकथित सनातनी समाज दो-तीन अलग-अलग हास्यास्पद मामलों में .. विवादास्पद रूप से दो गुटों में बँटा हुआ दिखा है .. शायद ...
पहले मामले में .. एक गुट, जो अपने तर्क की बुनियाद पर 31 अक्टूबर को दीपावली मनाने की बातें कह रहा था, तो दूसरा गुट 1 नवम्बर को मनाने की पैरवी कर रहा था। दूसरे मामले में एक तरफ़ आज भी तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह मानता है, कि धनतेरस-दीपावली के दौरान उल्लू दिख जाने से सालों भर घर में लक्ष्मी आतीं हैं और दूसरा वर्ग वह .. जो तथाकथित रूप से नास्तिक या फिर अल्पज्ञानी कहलाता है, वह इस मान्यता को एक सिरे से नकार देता है। उसी प्रकार तथाकथित धनतेरस के दिन अपनी हैसियत के अनुसार एक वर्ग कुछ धातु , सोना-चाँदी व उससे बने गहनों से लेकर एल्युमीनियम-स्टील तक के बर्त्तन या साईकिल से लेकर कार तक , की खरीदारी करने से अपने-अपने घर में सालों भर तथाकथित लक्ष्मी आगमन की बात मानता है ; तो वहीं दूसरा वर्ग धनतेरस के अवसर पर तथाकथित भगवान धन्वंतरि को स्वास्थ्य व औषधि- अमृत का देवता मान कर उनकी पूजा करता है।

फिर .. तीसरे मामले में .. एक गुट धर्म-त्योहार एवं सभ्यता- संस्कृति की आड़ में आतिशबाज़ी के प्रयोग का पक्षधर बना हुआ था, तो दूसरा गुट आतिशबाज़ी से फ़ैलने वाले वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण के परिणामस्वरूप पर्यावरण की क्षति की बात करते हुए इसके विरोध में कई तरह के तर्क दे रहा था। अमूमन ऐसा हर वर्ष ही होता है। एक तरफ़ कई राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल वाले अपनी तथाकथित टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के लालच में बहुसंख्यक जनसैलाब की अपभ्रंश व रूढ़िवादी सोचों वाली मान्यताओं की हाँ में हाँ मिलाते हुए, आतिशबाज़ी से पर्यावरण को कम हानि होंने की बात बतला कर आतिशबाज़ी को सही ठहरा रहे थे।
ये वही संचार के साधन हैं, जो अपने माध्यम से हमारे घरों में, हमारी हैसियत के मुताबिक उपलब्ध सस्ते से सस्ते और महँगे से महँगे टी वी पर .. नर-नारी को पहनने के लिए हमारे बाज़ारों में  उपलब्ध एक 'ब्रांडेड' चड्ढी-बनियान की बिकवाली वाले विज्ञापन में एक युवा द्वारा एक पिता से उसकी बेटी को भगा कर ले जाने की बात मोबाइल फ़ोन पर .. बड़े ही आराम से .. करते हुए दिखलाते हैं .. वो भी हमारी युवा संतानों के मस्तिष्क में .. बड़े ही आराम से .. भागने-भगाने जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दिखलाते हुए .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. बिना किसी लाग-लपेट के .. इसी चार नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका ने प्रतिबंध आदेशों के बावजूद दिल्ली में दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोगों द्वारा आतिशबाज़ी किए जाने पर दिल्ली सरकार और पुलिस आयुक्त को भी जवाब तलब किया है। साथ ही उन्हें 2025 में पटाख़ों की बिक्री और उपयोग को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए उनकी अपनी योजनाओं के साथ एक सप्ताह में हलफ़नामा दायर करने का भी आदेश दिया है।
इस मामले की गंभीरता न्यायमूर्ति के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो रही है, कि "अगर उन प्रतिबंध आदेशों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्थिति अराजक हो सकती है।" उनका ये भी कहना था, कि "भारत सरकार द्वारा "वायु प्रदूषण अधिनियम" में 1 अप्रैल, 2024 से संशोधन करते हुए, इसके दंडात्मक प्रावधान को हटा कर, केवल जुर्माना भरने तक का ही प्रावधान कर देने से उल्लंघनकर्ताओं का भय और भी ज़्यादा कम हो गया है।

सर्वोच्च न्यायालय का मानना ​​है, कि कोई भी धर्म ऐसी किसी भी गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं करता है, जिससे प्रदूषण पैदा होता है। अगर इस तरह से पटाख़े जलाए जाते हैं, तो इससे नागरिकों के स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार पर भी असर पड़ेगा।"

कई समाचार पत्रों में तो ये भी टिप्पणी आयी, कि "दिल्ली में पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाने वाले कई आदेश दीपावली के दौरान धुएँ में समा गए हैं।" दिवाली से पहले भी दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए एक हलफ़नामे के अनुसार केवल दिवाली के दौरान पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाए जाने और शादी व चुनाव समारोहों के दौरान प्रतिबंध नहीं लगाए जाने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। स्वाभाविक है, कि दिवाली के साथ-साथ बारातों, जन्मदिन समारोहों, चुनाव या क्रिकेट मैच की जीत वाले समारोहों में भी आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करनी चाहिए और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है, कि सरकार जो भी प्रतिबंध आदेश लगाती है, उसे कड़ाई से लागू भी होनी चाहिए।

अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका देश की राजधानी - दिल्ली के लिए आतिशबाज़ी के कारण भावी अराजक स्थिति की बात कर रहे हैं ; तो ये बात कमोबेश समस्त देश ही नहीं , वरन् .. समस्त विश्व या .. यूँ कहें , कि .. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भी उतनी ही घातक होने वाली कड़वी सच्चाई है .. शायद ...

आज (12.11.2024) .. अभी (रात के 9.12 बजे) .. इस बतकही के कुछ अंश को लिखते वक्त भी उत्तराखंड का एक विशेष त्योहार - इगास बग्वाल के अपभ्रंश स्वरुप के तहत आस-पड़ोस से जलते हुए तेज़ पटाख़ों की आवाज़ें आ रहीं हैं। इस त्योहार के बारे में हमने गत वर्ष "उज्यालू आलो, अँधेरो भगलू" ... के अन्तर्गत आदतन विस्तारपूर्वक बतकही की थी .. बस यूँ ही ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (२)" में साझा करते हैं और समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाले एक तथाकथित हिंदू समुदाय ही दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाते हैं भला ! ..



Saturday, November 2, 2024

कुछ सौग़ात अख़बार में ...


यूँ बुलाया तो था उसने .. फोन कर, बड़े ही प्यार से,

व्यंजन भी तो फिर .. परोसे उसने अनेक प्रकार के। 

पर पास बैठे, करे बातें कुछ देर, हम रहे इंतज़ार में,

चलते वक्त मिले खाने के सौग़ात भी तो अख़बार में।

आज की उपरोक्त चार पंक्तियों वाली बतकही .. मन के पन्ने पर क्यों पनपी, कब पनपी, कहाँ पनपी, कैसे पनपी .. इन सब से परे .. हम अभी तो .. हमारी मूल बतकही की ओर अग्रसर होते हैं .. बस यूँ ही ...

एक उपलब्ध अनुमानित आँकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन अख़बारों की लगभग करोड़ों प्रतियाँ मुद्रित होती हैं और इनमें से लाखों प्रतियाँ आज भी प्रायः समोसे, जलेबियों, कचौड़ियों, कचड़ी-पकौड़े, रोटी, पराठे, नान, कुलचे, भटूरे, कतलम्बे, बन टिक्की, झालमुड़ी, घुघनी, वड़ा पाव, 'टोस्ट-आमलेट' जैसे व्यंजनों को 'पैक' करने में या परोसने में, ख़ास कर सड़क के किनारे ठेले पर बिकने वाले भोजन के लिए, 'स्ट्रीट फूड वेंडर्स' (Street Food Vendors) द्वारा धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं। 

जबकि "भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India = FSSAI)" तो "खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम, 2018" के तहत समस्त देश के हम उपभोक्ताओं और खाद्य विक्रेताओं को आगाह करते हुए आग्रह कर चुका है, कि पके खाद्य पदार्थों की 'पैकिंग', भंडारण या परोसने के लिए या फिर उपरोक्त तले हुए खाद्य पदार्थों से अतिरिक्त तेल को सोखने के लिए भी अख़बारों यानि समाचार- पत्रों के पन्नों का उपयोग हमें नहीं करनी चाहिए। 

क्योंकि .. इस संस्थान के अनुसार समाचार-पत्रों में व्यवहार की जाने वाली स्याही में सीसा और भारी धातुओं जैसे कुछ ऐसे विषैले रसायन होते हैं ; जो समाचार-पत्रों में परोसे गए या लपेटे गए खाद्य पदार्थों के जरिए मानव शरीर में प्रवेश कर के विभिन्न प्रकार की घातक बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।

साथ ही .. समाचार-पत्रों के वितरण के दौरान उसको प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनके कारण वे बैक्टीरिया, वायरस या अन्य रोगजनकों द्वारा संदूषित हो सकते हैं। जिनमें परोसा या लपेटा गया भोजन संभवतः खाद्य जनित गंभीर बीमारियों का वाहक बन सकता है।

वैसे भी हमारे जैसे आम लोग तो आम दिनों में या त्योहार विशेष के मौकों पर भी .. अपने मुहल्ले में नित्य आने वाले नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों तक को भी .. कुछ भी खाने के सौग़ात समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर नहीं देते ; पर आज भी कई घरों के लोग या तो अपनी नासमझी के कारण या त्योहारों के दिन दिनभर उनके घर आए मेहमानों के जूठन को निपटाने के ख़्याल से भी या फिर सामने वाले को कमतर आँकते हुए भी .. खाने के सामान को जैसे-तैसे समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर दे देते हैं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है, कि हमें इस प्रकार से किसी को भी कमतर नहीं आँकना चाहिए और भूले से भी .. किसी को भी अख़बार के पन्नों में खाने के सामान नहीं देने चाहिए और किसी का जूठन तो कतई नहीं .. बस यूँ ही ...

क्योंकि अगर .. सामने वाला कोई भी आपको स्नेह, प्रेम या श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता है, तो फिर .. आप से एक करबद्ध निवेदन है, कि आप उसके विश्वास को मत तोड़िए, ताकि उसे ये महसूस ना हो कि वह आपके घर गलत समय पर आकर उसने कोई गलती कर दी है .. शायद ...

क्योंकि .. अगर सामने वाला आपसे .. आपका विषैला सौग़ात (?) बिना कुछ बोले .. हँस कर स्वीकार कर लेता है, तो .. वो कोई बुड़बक, बकलोल, बकचोंधर या बकलण्ड यानि मूर्ख इंसान थोड़े ही ना है !!! .. शायद ...




Sunday, October 27, 2024

लज्जा की लाज ...


एक ताज़ातरीन घटना पर नज़र डालें तो .. अपने देश भारत की वर्तमान सरकार, विशेषकर गृह मंत्रालय, की उदारता की पराकाष्ठा नज़र आती है ; जब तसलीमा नसरीन जी द्वारा इसी 21 अक्टूबर को सामाजिक माध्यमों  (Social Media) में से किसी एक पर गृह मंत्री को सम्बोधित करते हुए एक प्रार्थना पत्र लिखने के बाद .. अगले ही दिन उनके (अस्थायी) निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) का नवीकरण (Renew) कर दिया गया, जो कि इसी वर्ष जुलाई माह में ही रद्द हो चुका था।

जब कि दूसरी तरफ़ .. यही सरकार अपने देश में रोहिंग्या समुदाय के लोगों की होने वाली घुसपैठ का कड़ा विरोध करती रहती है और उन्हें खदेड़ने के लिए आमादा भी रहती है। चाहे उनकी घुसपैठ का उद्देश्य मजबूरीवश विस्थापन का हो या आतंकवाद से प्रेरित हो। जबकि वोट बैंक के निजी स्वार्थवश कई अन्य राजनीतिक दलों का उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन ही मिलता रहता है। फलस्वरूप इस मामले में केन्द्र में वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार को कई विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा अनुचित विरोध का निरन्तर सामना करना पड़ता है .. शायद ...

यूँ देखा जाए तो .. तसलीमा जी और रोहिंग्या लोगों के समान सम्प्रदाय से जुड़े होने के बावजूद दोनों के साथ हमारी वर्तमान सरकार द्वारा किये जाने वाले बर्ताव में अन्तर का कारण है .. दोनों के हमारे देश में यहाँ आने के उद्देश्य में अन्तर का होना .. शायद ...

एक तरफ़ तसलीमा नसरीन, तारिक़ फ़तह, सलमान रुश्दी, कलबुर्गी, गोविंद पंसारे, नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर, भगत सिंह, कबीर इत्यादि जैसे लोग, जो धर्म-सम्प्रदाय या समुदाय से तटस्थ होकर, उनकी बुराईयों के लिए बेबाक बयानबाजी करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं ; तो दूसरी तरफ़ शिवानी जी, इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो जैसे लोग भी थे या हैं, जो तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हुए तनिक भी नहीं सहमते। और तो और .. कभी मीराबाई, तो कभी अमृता प्रीतम जैसी महान आत्माएँ अपने-अपने प्रियतम से हुए मन के जुड़ाव की बेबाक बयानी में कहीं भी .. कभी भी .. कोताही नहीं बरतती हैं .. शायद ...

खास बात तो ये है, कि इनमें अधिकांश लोग लेखन या पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। परन्तु उन तुकबंदियों वाले और 'पैरोडीनुमा' लेखन से तो कतई नहीं, जिसे आज अधिकांश लोग अपनी उपलब्धि मानते हुए .. अपनी गर्दन को अकड़ाते नज़र आते रहते हैं .. शायद ..

वैसे भी ग़ौर करने वाली बात ये है, कि किसी भी कालखंड में, किसी भी समाज, प्रान्त या देश भर में तसलीमा नसरीन या सआदत हसन मंटो जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। जिन्हें प्रायः भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा एक सिरे से नकार दिया जाता है तथा उन्हीं भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा ऐसे विरले बेबाक बयानबाजी करने वालों के विचारों वाले मार्ग या मार्गदर्शन में अनगिनत अड़चनें लगायी जाती हैं। जिनके फलस्वरूप प्रायः उन्हें उन भेड़चाल वाली भीड़ से प्रायः फ़तवा, कारावास, निर्वासन या हत्या तक जैसी अनुचित प्रतिक्रियाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ...

कभी सत्येंद्र नाथ बोस जी जैसे लोग भी हुए थे और आज भारतीय चलचित्र जगत के जॉन अब्राहम व अमोल पालेकर जैसे लोग भी हैं, जो बेबाक बयानबाजी तो नहीं करते ; परन्तु भेड़चाल वाली भीड़ के लिए ये लोग तथाकथित नास्तिक कहे / माने जाने वाले लोग हैं।

हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली शास्त्रार्थ वाली परंपराओं वाले भारत देश में भी ऐसे किसी विषय पर तर्कसंगत तथ्यात्मक विचार विमर्श करने की जगह लोग अक्सर सामने वाले का उपहास करते हुए .. अन्ततः उसको चुप करा देते हैं। हँसी आने के साथ-साथ अफ़सोस भी तो तब होता है, जब आज सहज उपलब्ध सामाजिक माध्यम (Social Media) के स्रोतों पर होने वाले तथ्यात्मक वार्तालाप के दौरान तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा यदाकदा 'अन्फ्रेंड' (Unfriend) कर दिए जाने वाली टपोरी धमकी दी जाती है या फिर .. कर ही दी जाती है .. शायद ...

सर्वविदित है, कि सन् 1993 ईस्वी में बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन जी का उपन्यास "लज्जा" पहली बार बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ था ; जिसमें एक काल्पनिक कहानी ना होकर .. तत्कालीन बांग्लादेश में बचपन से उनकी आँखों देखी और उनके द्वारा जी गयी नारकीय ज़िन्दगी का बखान है। उसमें वहाँ की साम्प्रदायिकता और महिला अधिकारों को कुचले जाने की घटनाओं के साथ- साथ एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की वास्तविक आलोचना की गयी है।

हम सभी ने भी तो .. अभी हाल ही में इसी वर्ष अगस्त महीने में उन सभी के प्रत्यक्ष प्रमाण-स्वरुप वहाँ के आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन की आड़ में एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा घटित .. मन को विचलित करने वाली उन्हीं सारी भयावह घटनाओं वाले दृश्यों को किसी डरावने वृत्तचित्र की तरह दूरदर्शन के तमाम समाचार 'चैनलों' के माध्यम से देखा है।

बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेग़म खालिदा जिया जी की सरकार ने उनकी उस "लज्जा" के साथ-साथ अन्य कई किताबों को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। फिर वहाँ के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा उनके लिए फ़तवा जारी कर दिए गए थे। जिससे कुछ दिनों तक उनको वहीं गुप्त रूप से भूमिगत रहना पड़ा था और अंततोगत्वा बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। तब से लेकर आज तक तसलीमा जी निर्वासन में ही हैं।

हालांकि बाद में बेग़म शेख हसीना जी के शासनकाल में भी उन्हें वही सारे विरोध झेलने पड़े थे। बांग्लादेश और एक समुदाय विशेष वाले अन्य कई देशों में भी भले ही आज भी "लज्जा" प्रतिबन्धित है ; परन्तु सन् 1993 ईस्वी के बाद के वर्षों से लेकर आज तक में "लज्जा" के अंग्रेजी व हिंदी के अलावा अन्य कई भाषाओं में अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

निर्वासन के पश्चात तसलीमा जी शुरू के लगभग दस वर्षों तक अलग-अलग समय में अलग-अलग देशों - स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में रहीं और सन् 2004-05 ईस्वी में वह भारत आकर कोलकाता शहर में रहने लगीं ; ताकि वह अपने स्वदेश से दूर रह कर भी अपनी स्वदेशी सभ्यता व संस्कृति की अनुभूति पश्चिम बंगाल की राजधानी में रह कर कर सकें।

लेकिन सन् 2007 ईस्वी में भारत में पुनः उनका विरोध बढ़ने लगा था। उस समय पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री। मतलब .. केंद्र में यूपीए (UPA) की सरकार थी और पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की।

उसी दौरान समुदाय विशेष के कट्टर गुटों ने तसलीमा जी को भारत से निकालने की अनुचित माँग करते हुए .. जगह- जगह पर अनेक हिंसक विरोध-प्रदर्शन किए थे ; जिन कारणों से उनको कोलकाता छोड़ कर पहले तो दिल्ली और फिर उसके बाद लगभग तीन माह के बाद दोबारा अमेरिका जाना पड़ा था। अमेरिका से पुनः वह सन् 2011 ईस्वी में भारत लौटीं और तब से अब तक वह भारत में ही रह रहीं हैं। हालांकि उनके पास स्वीडन की नागरिकता है, पर उन्हें भारत में ही सुकून मिलता है और इसीलिए वह फ़िलहाल भारत की राजधानी नई दिल्ली में रह रही हैं।

तसलीमा जी अपनी किताबों और बेबाक बयानों की वजह से आज भी भारत, बांग्लादेश समेत दुनियाभर के समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की आँखों की किरकिरी बनी हुई .. उनके निशाने पर रहती हैं।

मसलन - अभी हाल ही में उन्होंने एक सामाजिक माध्यम (Social Media) पर अपने एक 'पोस्ट' में लिखा / कहा है, कि - "बांग्लादेश में हर कोई झूठ बोल रहा है। सेना प्रमुख ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। राष्ट्रपति ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। यूनुस ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। लेकिन किसी ने भी त्यागपत्र नहीं देखा है। त्यागपत्र भगवान की तरह है, हर कोई कहता है कि यह वहाँ है, लेकिन कोई भी यह नहीं दिखा सकता या साबित नहीं कर सकता कि यह वहाँ है।"

वैसे तो ग़ौर करने वाली उनकी सभी खास अनुकरणीय व सराहनीय कृत्यों में से एक सबसे खासमखास है, कि कुछ वर्षों पूर्व ही उन्होंने अपने सम्प्रदाय या समुदाय के कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना, भेड़चाल वाली भीड़ से परे हट कर स्वेच्छा से एक निर्णय लिया है और सामाजिक माध्यम (Social Media) पर इसकी घोषणा भी कीं हैं, कि वह  स्वयं के मरणोपरान्त दफ़न होना नहीं चाहती हैं। बल्कि वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स / AIIMS), नई दिल्ली के चिकित्सा अनुसंधान विभाग को अपना देहदान कर चुकी हैं।

यूँ तो अभी हाल ही में हमारे भारत की वर्तमान सरकार की एक और उदारता देखने / सुनने के लिए मिली है, जब हाल ही में बांग्लादेश की पदच्युत प्रधानमंत्री - शेख हसीना जी के बांग्लादेश से जान बचाकर भारत भाग आने के बाद से आज तक यहाँ किसी गुप्त स्थान पर उनको सुरक्षित शरण मिली हुई है।

लब्बोलुआब यही है, कि तसलीमा नसरीन जी के निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) के नवीकरण (Renew) हो जाने से .. उनकी "लज्जा" की लाज आज रह गयी है .. बस यूँ ही ...

Monday, October 7, 2024

"अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" ...


आज की बतकही की शुरुआत करने के पहले आप को मन से नमन !

ईंटें भी बड़े ही कमाल की चीज़ हैं। स्थान परिवर्तन के साथ-साथ इनकी संज्ञा बदल जाती है। एक समान ईंटें, कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं गुरुद्वारा, तो कहीं गिरजाघर। कहीं विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, सचिवालय, तो कहीं देवालय, मदिरालय बन जाती हैं .. बस यूँ ही ...

एक तरह की ही हवाएँ भी .. जब गुलाब की फुलवारी से होकर आती हैं, तो हमारी साँसों को गुलाब की सुगंध से सुगन्धित कर जाती हैं और महुआ के बागान से गुजरती हुई आती है, तो हमारी साँसें महुआ के महक से महमहा जाती है।

ठीक वैसे ही .. एक बिन्दु .. हम फ़िल्म अभिनेत्री बिन्दु जी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सामान्य बिन्दु की चर्चा कर रहे हैं। इन ईंटों और हवाओं की तरह जब उसी एक ही बिन्दु का हम अपनी मातृभाषा में इस्तेमाल करते हैं, तो उसे "अनुस्वार" कहते हैं, उर्दू में "नुक़्ता", गणित में दशमलव या सामान्य बिन्दु और अँग्रेजी में तो .. 'फुल स्टॉप' .. शायद ...

पर हमारी बतकही का अभी 'फुल स्टॉप' नहीं हुआ है। अभी तो आगे भी बातें करनी है, कि हमारी हिंदी भाषा में "अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" का भी हम इस्तेमाल करते हैं और देखते हैं, कि इनके अलग-अलग इस्तेमाल से शब्द के अर्थ बदल जाते हैं। जैसे - अगर अनुस्वार के साथ "अंगना" लिखने पर, इसका मतलब स्त्री होता है और अगर चन्द्रबिन्दु के साथ "अँगना" लिखा गया तो .. अर्थ हो जाता है, आँगन यानी Courtyard ...

तो इन्हीं दो अलग-अलग अर्थ वाले दो शब्दों से जुड़ी दो पँक्तियों वाली हमारी आज की मूल बतकही है, कि -

साहिब ! ये दौर भी भला आज कैसा गुजर रहा है ?

अंगना तो हैं घर में हमारे, पर .. वो अँगना कहाँ है ?

फिर मिलेंगे नए-नए शब्दों वाली बतकही के साथ .. तब तक के लिए पुनः .. आपको मन से नमन ... .. बस यूँ ही ...

Saturday, October 5, 2024

सेरेब्रल पाल्सी ...



सेरेब्रल पाल्सी
, मालूम नहीं, आप को इसके बारे में कितनी जानकारी है। सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात, जिसे कई लोग, कई दफ़ा "सी पी" भी कहते हैं। जिसकी विस्तृत जानकारी गूगल पर उपलब्ध है, अगर आप जानना चाहें तो ...

हम सभी प्रतिवर्ष 6 October को "विश्व सेरेब्रल पाल्सी दिवस" मनाते हैं। वैसे तो इस दिवस की शुरुआत सन् 2012 ईस्वी में हुई थी, परन्तु यह बीमारी सदियों पुरानी है। जिसका इलाज आज भी समस्त विश्व में उपलब्ध नहीं है। भले ही हमारे वैज्ञानिक चाँद व मंगल तक को लाँघ आए हों और .. सूरज तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हों, पर इतने उन्नत विज्ञान, ख़ासकर चिकित्सा विज्ञान, के बावजूद .. यह बीमारी अन्य असाध्य रोगों की तरह आज तक .. अब तक लाइलाज है।

इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों के साथ-साथ उनके परिवार के समस्त संलिप्त सदस्यों को भी ताउम्र मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक अतिरिक्त पीड़ा से प्रभावित रहना पड़ता है। 

परन्तु इन बीमारियों और बीमारों से जुड़ी हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में कई गलत अवधारणाएँ व्याप्त हैं। उन्हीं अवधारणाओं पर कुठाराघात करती हुई, हमारी दो पंक्तियों वाली बतकही, उन सभी सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त बच्चों को और उनके साथ समस्त संलिप्त परिवार के सदस्यों को समर्पित है .. बस यूँ ही ...

ग्रस्त तमाम बीमारियों के बीमारों को, भोगने की बात कहने वाले बुद्धिजीवियों, उन बीमारों को बतला कर, उन्हें जतला कर, उनके पाप कर्मों का फल, उनके पूर्व जन्मों का फल ।

सोचो रूढ़िवादियों, (क्षमा करें, बुद्धिजीवियों !) इहलीला हुई समाप्त जिन सभी की कोरोनाकाल में, जिस कारण से भी हो चाहे, था वो सब विज्ञान या पाप कर्मों का ही फलाफल ?









Monday, September 23, 2024

खुरचा हुआ चाँद ...


आज की बतकही की शुरुआत बिना किसी भूमिका के .. आज पढ़ने से ज़्यादा आपकी तो .. देखने व सुनने की बारी है .. शायद ...

तो सबसे पहले आप देखिए-सुनिए .. उपरोक्त 'वीडियो' को, जिसमें गत रविवार, 22.09.2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी देहरादून द्वारा प्रसारित लगभग पन्द्रह मिनट वाले साप्ताहिक कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में हमारी एकल बतकही (चार कविताओं के एकल काव्य पाठ) को .. बस यूँ ही ...
उपरोक्त 'वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व 'एडिटिंग' का सारा श्रेय जाता है .. मेरी भतीजी - "श्रेया श्रीवास्तव" को, जो 'रेडिओ स्टेशन' में 'रिकॉर्डिंग के दिन तो मेरे साथ ही थी .. देहरादून में अपने सपरिवार होने के कारण और कल रात वह लखनऊ से कार्यक्रम प्रसारण के दौरान अपने 'मोबाइल' से सम्पूर्ण कार्यक्रम के 'ऑडियो-वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व तत्पश्चात् 'एडिटिंग' करके मुझे 'व्हाट्सएप्प' पर उपरोक्त 'वीडियो' भेज दी .. जो आपके समक्ष है, श्रेया के ही सौजन्य से .. बस यूँ ही ...
चलते-चलते .. उपरोक्त चारों बतकही में सबसे ताज़ातरीन बतकही है - "खुरचा हुआ चाँद" .. जो .. जाने-अंजाने में .. दरअसल .. वास्तव में .. 'रेडिओ स्टेशन' में जिस दिन दोपहर में 'रिकॉर्डिंग' होनी थी, उसी दिन सुबह-सुबह जागने के बाद ही स्वतःस्फूर्त शैली में बिस्तर छोड़ने के पूर्व ही पूर्ण होता चला गया था .. बस यूँ ही ...
तो आप ही के लिए ...

खुरचा हुआ चाँद ...


आज ...
सुबह की पोटली में,
क्षितिज की एक छोर से,
उचकता, उभरता, ऊँघता-सा
मद्धिम सूरज, दिखा कुछ-कुछ कुतरा हुआ-सा .. शायद ...

दिखी परकटी हवा,
बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ,
कहीं-कहीं से कतरी हुई धरती,
सागर .. किसी गिरहकट का सताया हुआ-सा .. शायद ...

शाम की गठरी में
दिखा खुरचा हुआ चाँद,
अलोप लगे कुछ तारों के कंचे भी,
भटकती आत्माएँ विलुप्त जुगनुओं की यहाँ-वहाँ.. शायद ...

सिकड़ी में जकड़ी सुगंधें,
दिखी बिखरी ठठरियाँ फूलों की,
टकले दिखे सारे के सारे जंगल भी,
मानव दिखे ग़ुलाम-हाट में, रोबोट बने क्रेता-विक्रेता.. शायद ...

बन गए अल्पसंख्यक, मानव सारे,
बाद भी यहाँ जनसंख्या-विस्फोट के,
सत्ता सारी धरती की, हाथों में रोबोट के,
मानवी कोखों में भ्रूण, रोबोट-शुक्राणु है बो रहा .. शायद ...

तभी अज़ान की और,
पूजन की घंटियों की आवाज़ें,
पड़ोस के अलार्म व कुकर की आवाज़ें,
लोगों की आवाजाही की आवाज़ें, गयीं नींद से मुझे जगा.. शायद ...

साथ-साथ नींद के,
सुबह के सुनहरे सपने भी,
बिखर गए काँच की किरिच की तरह,
वही तो सोचूँ, कि हम मानवों का ब्रह्माण्ड भला ऐसा हो सकता है क्या ?
नहीं ना ? .. शायद ...

विशेष - आपको उपरोक्त बतकही के एक अनुच्छेद में पढ़ने के लिए मिला होगा - "बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ", परन्तु आकाशवाणी की अपनी कुछ विशेष हदों के कारण उसी बतकही के वाचन में आपको सुनने के लिए मिलेगा - "शोषित अल्हड़ नदियाँ" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो हम इसे "अपहृत अल्हड़ नदियाँ" भी बोल या पढ़ सकते हैं, क्योंकि .. बलात्कृत, शोषित व अपहृत .. तीनों ही विशेषणों में आपसी तालमेल है .. कारण .. बलात्कार भी एक अपहरण है और अपहरण भी बलात्कार ही है, अगर बलात्कार के संकुचित अर्थ से परे उसके विस्तृत अर्थ पर ग़ौर की जाए तो .. और .. दोनों ही दुर्घटनाओं में .. पीड़ित हो या पीड़िता .. दोनों ही का समान शोषण होता है .. शायद ... .. नहीं क्या ? ... 】🙏

Thursday, September 19, 2024

चौबीस दिनों तक .. बस यूँ ही ...


अक्सर देखी है हमने, वकालत करते लोगों को, दुनिया भर में, अपने ख़ून के अटूट रिश्ते की।

पर महकती तो है मुस्कान घर-घर में, दो अलग-अलग ख़ूनों के संगम से, पनपे नन्हें फ़रिश्ते की।

उपरोक्त दो पंक्तियों के साथ आज की बतकही की शुरुआत (और अन्त भी .. शायद ...) करते हुए, इसकी अगली श्रृंखला में आप सभी से अपनी भी एक बात कह लेते हैं .. .. आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में ध्वनितरंगों के माध्यम से मेरी एकल बतकही के दौरान होने वाली है .. हमारी और आपकी एक संवेदनात्मक मुलाक़ात .. बस यूँ ही ...

अब .. आज चलते-चलते .. अपने साथ-साथ कुछ .. कुछ-कुछ अपने परिवेश की भी बतकही कर ली जाए .. .. विगत मंगलवार को सुबह मुहल्ले में आसपास नित्य विचरने वाले तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' .. मने .. कुत्ते-कुत्तियाँ को रोज़ की तरह 'बिस्कुट' या दूध-रोटी देने पर, वो सभी अपना-अपना मुँह घुमा कर, पड़ोस की कुछेक चहारदीवारियों के किनारे पड़ी जूठी हड्डियों की ओर तेजी से लपक लिए और उनको चबाने में मशग़ूल हो गए। हड्डियाँ भी तादाद में दिखीं थीं। स्वाभाविक है, कि एक दिन पहले की रात ही में आसपास के लोगों द्वारा इतने सारे माँस भक्षण किये गए होंगे। एक जगह तो बकरे (या बकरी) की और एक जगह मुर्ग़े (या मुर्गी) की हड्डियाँ पड़ी हुई जान पड़ती थीं .. शायद ...

यहाँ देहरादून में वर्तमान प्रवास के दौरान आसपास में एक-दो लोग .. जो लोग पहाड़ी-मैदानी में भेद किए बिना .. हमसे बातचीत करते हैं, उनसे तहक़ीक़ात की गई, तो मालूम हुआ, कि विगत मंगलवार से ही हमारे सभ्य-सुसंस्कृत समाज में हर वर्ष माना जाने वाला या मनाया जाने वाला तथाकथित पितृ पक्ष का आरम्भ हुआ है। इसीलिए पितृ पक्ष और नवरातरा (नवरात्रि) में क्रमशः पन्द्रह व नौ यानी कुल चौबीस दिनों तक लगातार धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मांसाहार वर्जित होने के कारणवश .. चौबीस दिनों तक शाकाहारी व सात्वीक रहने की बाध्यता के कारण .. उन धार्मिक चौबीस दिनों के आरम्भ होने के एक दिन पहले तक तो .. यानी विगत सोमवार की रात तक मांसाहारी लोगों द्वारा मन भर या दम भर माँस भकोसा गया है।

ख़ैर ! .. पितृ पक्ष और नवरात्रि क्यों मनायी जाती है .. कब मनायी जाती है .. और इसका क्या महत्व है .. इन सब की चर्चा ना करते हुए .. बस्स ! .. समाज के उन तमाम मनीषियों से .. बुद्धिजीवियों से .. केवल और केवल .. एक ही सवाल है, कि .. पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों और इसके तदनंतर नौ दिनों की नवरात्रि के कुल चौबीस दिनों के आरम्भ होने के दो-तीन दिन पहले से ही और एक दिन पहले की देर रात तक इतना अत्यधिक मात्रा में मांसाहार का उपभोग लोगबाग क्यों करते हैं भला ? 

जिसका प्रमाण .. मुहल्ले भर में कुछ चहारदीवारियों के आसपास विगत मंगलवार की सुबह में .. सोमवार की रात तक खाए गए मांसाहार की अवशेष पड़ी जूठी, चूसी-चबायी हड्डियाँ थीं। वैसे तो अगर .. विज्ञान की बात मानें, तो बकरे के माँस को मानव के पाचन तंत्र में पच कर अपशिष्ट निकलने तक में बारह से चौबीस घन्टे का समय लग सकता है। परन्तु हम सभी अगली सुबह .. सुबह-सुबह नहाने के क्रम में सिर (बाल) धोकर नहा लेने के बाद स्वयं को एकदम पाक-साफ़ मान लेते हैं .. शायद ...

अगर उपरोक्त विधियों से हम पाक-साफ़ होने वाली बात को सही व सच मान भी लें, तो भी .. ये बात नहीं पच पाती है, कि तीन सौ पैंसठ दिनों में कुछ ही दिनों के लिए ही लोग पाक-साफ़ होने या रहने की चेष्टा क्यों करते हैं भला ? और तो और .. उन पाक-साफ़ रहने वाले विशेष दिनों के समाप्त होने के बाद भी तो पुनः मांसाहार के लिए हमलोग बेतहाशा टूट पड़ते है .. शायद ...

ये तो वही बात हुई, कि धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करने वाले किसी युवा विद्यार्थी को जब ये पता चलता है, कि उस के अभिभावक उसके अध्ययन के दौरान उससे मिलने के लिए उसके छात्रावास तक या किराए के कमरे तक आने वाले हैं, तो उनके आने के एक दिन पहले अपने व्यसनानुसार मन भर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करके .. अपने धूम्रपान व मद्यपान के सारे साजोसामान उनसे छुपा कर रख देता है और फिर उनके जाने पर भी, जाते ही वह युवा विद्यार्थी उतनी देर या उतने दिनों की भरपाई (?) करते हुए .. छूट कर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करता है, क्योंकि उस दौरान तो उस युवा विद्यार्थी को अपना धूम्रपान व मद्यपान का व्यसन मज़बूरन बन्द रखना पड़ता है .. शायद ...

हम लोगों की भी मनःस्थिति इन चौबीस दिनों में कुछ-कुछ या ठीक-ठीक .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही व्यसन करने वाले उस युवा विद्यार्थी की तरह ही होती है ..  नहीं क्या ?


आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में पुनः मिलते हैं हमलोग .. बस यूँ ही ...

Wednesday, September 4, 2024

शिक्षक दिवस के बहाने ...

 


सुना है, कि आज शिक्षक दिवस है। 

तो ऐसे पावन अवसर पर हमारे समाज के सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन। परन्तु उन धर्म गुरुओं को तो कतई नहीं, जो हमारे समाज में सदियों से भावी पीढ़ियों के सामने अंधविश्वास एवं पाखण्ड परोसते आ रहे  हैं।

यूँ तो सवैतनिक गुरुओं को हम हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों व अन्य शिक्षण संस्थानों में पाते हैं, परन्तु अवैतनिक गुरु तो हमारे जीवन में पग-पग पर, पल-पल में मिलते हैं। 

चाहे वो अभिभावक के रूप में हों, सगे-सम्बन्धियों के रूप में हों, सखा-बंधुओं के रूप में हों या प्रेमी-प्रेमिका के रूप में या फिर शत्रु के रूप में।

वैसे तो हम इन दिवसों के पक्षधर कतई नहीं, क्योंकि जो हमारे जीवन की हमारी दिनचर्या में पग-पग पर, पल-पल में शामिल हैं, उन्हें एक दिवस की हद में बाँधना उचित नहीं है .. शायद ...

ख़ैर ! .. ऐसे अवसर पर हम बचपन से कबीर के इस दोहे को दोहराते आएँ हैं, कि ...

" गुरु गोविंद दोउ खङे, काके लागूं पांय,

  बलिहारी गुरु आप की, गोविंद दियौ बताय। "

परन्तु कबीर के उस दोहे से हमें हमेशा वंचित रखा गया, जिसमें कबीर आगे कहते हैं, कि ...

 " गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।

    आपा मैटैं हरि भजैं,   तब पावैं दीदार। "

पुनः सभी सवैतनिक एवं अवैतनिक शिक्षकों को श्रद्धापूर्वक सादर नमन .. बस यूँ ही ...

Monday, August 19, 2024

छड यार ! ...

जला चुके साल-दर-साल, बारम्बार, मुहल्ले-मैदानों में, पुतलों को रावण के, था वो व्यभिचारी।

पर है अब, बारी-बारी से, निर्मम बलात्कारियों व नृशंस हत्यारों को, जबरन ज़िंदा जलाने की बारी।

वर्ना, होंगी आज नहीं तो कल, सुर्ख़ियों में ख़बरों की, माँ, बहन, बेटी या बीवी, हमारी या तुम्हारी।

यूँ तो आज बाज़ारों से राखियाँ बिकेंगी, खरीदी जाएंगी, बाँधी-बंधवाई भी जायेंगी, हर तरफ़ है ख़ास तैयारी।


मुर्दों के ठिकानों को, अक़्सर सजदा करने वाले, पर बुतपरस्ती के कट्टर दुश्मन।

घर नहीं "राहुल आनंद" का, जलाया है उन्होंने गीत- संगीत, नृत्य- साहित्य का चमन।

नालन्दा जैसी धरोहर व विरासत को हमारी, राख करने वाले, बलवाई बख्तियार खिलजी 

और लुटेरे चंगेज़ का कॉकटेल बहता रगों में उनकी,भाता ही नहीं उन्हें दुनिया का अमन।


Friday, August 9, 2024

बिल्कुल तुम-सा ...



सर्वदा रहे अदृश्य 

पूजे की थाली से,

प्रसाद के रूप में।


रहे नदारद सदा

घर में अमीरों के,

जूस के रूप में।


है मगर ये सिक्त 

सोंधी सुगंध से,

स्निग्ध स्वरूप में।


अंग-अंग रसीला,

बिल्कुल तुम-सा 

कोआ कटहल का।

Sunday, July 21, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (२)


"असाध्य दंतहीन दंश ... (१)" वाली गत बतकही में हम सभी ने देखा, कि समीर माथुर द्वारा .. अपनी दिनचर्या के तहत उस दिन सुबह-सुबह 'स्ट्रीट डॉग्स' को सामान्य दूध-रोटी देने के बजाय .. एक दिन पहले अपने घर आए मेहमानों के स्वागत में बने 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही परोसे जाने पर .. उन्हीं कुत्तों में से एक कुत्ते ने मांसाहार के कारण उनकी दायीं हबक (हथेली) को किस तरह हबक लिया था .. बस यूँ ही ...

अब आज उसी बतकही के दूसरे भाग - "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" में प्रसंगवश समीर माथुर से जुड़ी अतीत की दो अन्य घटनाओं (कहानियों को नहीं) को दोहराते हैं, जो यहाँ बतलाना नितांत आवश्यक है .. तो आगे .. पहले .. पहली घटना बकते हैं .. बस यूँ ही ...

एक बार समीर माथुर के एक पड़ोसी का एक रिश्तेदार .. फ़िलहाल "पड़ोसी का एक रिश्तेदार" ही कह रहा हूँ, क्योंकि .. समीर माथुर के किसी रिश्तेदार से सम्बंधित जातिवाचक संज्ञा की भी बात करने भर से ही तदनुसार उनके व्यक्तिवाचक संज्ञा वाले रिश्तेदार विशेष को .. उस कही गयी बातों को अपने लिए मान कर .. समीर माथुर से मुँह फुलाने का एक सुनहरा अवसर मिल जाता हैं।

हाँ तो .. फिलहाल उनके किसी "रिश्तेदार" की जगह उनके एक "पड़ोसी के एक रिश्तेदार" को ही इस घटना का पात्र मानते हुए ... ... समीर माथुर के एक पड़ोसी और उस पड़ोसी के रिश्तेदार की ही बात करते हैं, तो ... ...  एक बार उनके उस पड़ोसी की एक बच्ची का पाँचवा जन्मदिन मनाया जा रहा था, जहाँ हम भी सपरिवार आमंत्रित थे। ऐसे सुअवसर पर वहाँ उस बच्ची के एकलौते मामा जी भी सपरिवार मेहमान के रूप में पधारे हुए थे। 

'केक' कटने और बँटने के बाद रात्रिभोज यानी भोजन में 'वेज' पुलाव, मूँग दाल की कचौड़ी, शाही पनीर, परवल 'फ्राई', बूँदी रायता, पापड़, तसमई और गर्मागर्म गुलाबजामुन के साथ-साथ 'आइसक्रीम ब्रिक' के टुकड़ों को भी मेहमानों के समक्ष परोसा गया था। 

भले ही आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से खाने का उपरोक्त संयोजन अस्वास्थ्यकर हो, पर ऐसे आयोजन-प्रायोजन के अवसरों पर आयुर्वेदिक आहार तालिका के मापदंडों के निर्देश किसे याद रह पाते हैं भला ! .. स्वघोषित घोर सनातनी लोग भी अपनी दिनचर्या में योग और आयुर्वेद को किंचित् मात्र भी समाहित करते नहीं जान पड़ते हैं .. शायद ...

मानो .. जैसे कि धूम्रपान के व्यसन से ग्रसित लोगबाग सिगरेट के डिब्बों पर या विज्ञापनों में कैंसर से ग्रस्त वीभत्स चेहरों को लाख बार देखने के बावज़ूद अपनी बुरी लत को नहीं छोड़ पाते हैं .. शायद ...

अब तक पड़ोस की उस बच्ची के जन्मदिन का रात्रिभोज समापन के क़रीब था। सभी लोग अंत में 'आइसक्रीम' खाते हुए आपसी गपशप में तल्लीन थे। तभी उस बच्ची के आये हुए मेहमान मामा जी वहाँ उपस्थित समस्त परिजनों को सपरिवार औपचारिक प्रणाम-नमस्ते करते-स्वीकारते .. 'रिटर्न गिफ़्ट' को भी सम्भालते-सहेजते अपने घर जाते-जाते .. हँस कर बच्ची की 'मम्मी' यानी अपनी छोटी बहन को सम्बोधित करके बोलते हुए गए, कि ...

" बीनू ! .. मजा नहीं आया आज की 'पार्टी' में .. केवल घास-फूस खिला के टरका दी तुम .. हमलोगों को .. है ना ? .. बिना "हड्डी" ('नॉन वेज') के .. 'पार्टी' में मजा आता है क्या ? .."

बच्ची के मामा जी तो हँसते-हँसते ये बोल कर चले गए, परन्तु उस रात बच्ची की 'मम्मी' का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। स्वाभाविक ही/भी था, क्योंकि .. बातों-बातों में पता चला था, कि उपरोक्त परोसे गए सारे शाकाहारी व्यंजनों की फ़ेहरिस्त बच्ची की 'मम्मी' के स्वयं अकेले का .. दिनभर के परिश्रम व लगन का ही परिणाम था ..  सिवाय गुलाबजामुन और 'आइसक्रीम ब्रिक' के, जो कि बाज़ार से बना-बनाया 'रेडीमेड' आया था।

अब दूसरी घटना को भी समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा। इस दूसरी घटना के पात्र को भी समीर माथुर के "एक अन्य पड़ोसी के मामा-मामी" को ही मान कर विस्तार देते हैं। 

हाँ .. तो .. एक दिन उस पड़ोसी के मामा-मामी उनके यहाँ दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित थे। शायद रविवारीय अवकाश का दिन रहा होगा। उस दिन उस सुअवसर पर मैं आमंत्रित तो नहीं था, पर बाद में एक दिन वह पड़ोसी स्वयं ही उस दिन वाली घटना से जन्मी अपने मन की व्यथा मुझ से साझा कर रहे थे, कि .. एक दिन दोपहर में उनके द्वारा दिए गए आमंत्रण को पाकर, उनके मामा- मामी के उनके घर आने के बाद अन्य सारी औपचारिकताओं के पश्चात .. उन दोनों के समक्ष जब दोपहर का भोजन 'डाइनिंग टेबल' पर पेश किया गया, तब .. उनके सेवानिवृत्त मामा जी मुस्कुराते हुए सर्वप्रथम .. अतिविशेष शोरबेदार सब्जी से भरे कटोरे में 'टेबल स्पून' से टटोलते हुए पूछ बैठे थे, कि ..

" क्या बना है ? .. म-ट-न है क्या ? "

तब उनके मेजबान भांजा यानी समीर माथुर के पड़ोसी ने आदरपूर्वक उत्तर दिया था, कि ..

" नहीं .. मामा जी .."

तभी मामी जी मुस्कुराते हुए बोल पड़ीं थीं, कि ..

" तब .. जरूर 'चि-के-न' बना होगा ? .. है ना ? .. "

पुनः समीर माथुर के पड़ोसी यानी उन मामा-मामी के भांजा को उत्तरस्वरुप बोलना पड़ा था, कि ..

" नहीं मामी जी .. 'चिकेन' भी नहीं है .. "

तभी तपाक से पुनः मामा जी ..

" तब तो जरूर 'फ़िश करी' या फिर 'एग करी' .."

तभी समीर माथुर के पड़ोसी की धर्मपत्नी रसोईघर से दो प्रकार के गर्मागर्म तले पापड़ों और तिसियौरी (तीसी यानी अलसी और मसूरदाल से बनने वाली बिहार की एक प्रकार की बड़ी, जिसे तेल में तल कर खाया जाता है) से भरी एक तश्तरी लिए 'डाइनिंग टेबल' की ओर आती हुई .. उन दोनों मामा-मामी जी की ऊहापोह को विराम देते हुए बोल पड़ी थी, कि ..

" नहीं मामा जी .. 'मटन' नहीं, मटर-पनीर की सब्जी बनाए हैं .. "

इतना सुनने-जानने के बाद उन दोनों यानी मामा-मामी के मुँह अनायास उदास-निराश जैसे हो गए थे। मानो घड़ी की साढ़े छः बजे की सुइयों की तरह लटक गए हों। जबकि उनके समक्ष खाने के लिए मटर-पनीर की शोरबेदार सब्जी के अलावा चना दाल का तड़का, बासमती चावल का शुद्ध देसी घी में पका जीरा 'फ्राइड राइस' के साथ-साथ सत्तू की कचौड़ी या विकल्प में सत्तू भरी रोटी, मसालेदार गोभी 'फ्राई', मूली-गाजर-टमाटर के सलाद, तले हुए दो तरह के पापड़, तिसियौरी के अलावा 'यू ट्यूब' पर देख कर बनाया गया .. मीठा ज़र्दा पुलाव व गाजर का हलवा .. यूँ तो मीठे व्यंजन विशेष रूप से मामी जी के लिए ही बने थे, क्योंकि मामा जी को मधुमेह की शिकायत है। हालाँकि दो-चार चम्मच वे भी चख ही लिए थे .. दोनों ही मीठे व्यंजनों- मीठा ज़र्दा पुलाव और गाजर के हलवा में से। हँसते हुए ये कह कर कि ..  " आज रात में दो 'पॉइंट' ज्यादा इन्सुलिन ही लेना पड़ेगा ना .. ले लेंगे .. पर सब व्यंजनों का स्वाद तो चखना ही पड़ेगा ना .."

इधर मामा जी की हसरत भरी नज़रें खानों के बीच जिस बेसब्री से अपने मेहमाननवाजी में 'मटन-चिकेन' या 'फ़िश-एग' तलाश करने के बाद भी .. ना मिलने पर .. निराशा से भर गयीं थीं .. साथ में मामी जी की भी .. तो उधर .. समीर माथुर के पड़ोसी और उनकी धर्मपत्नी को इतनी सारी तैयारी करने के बाद भी आत्मग्लानि की अनुभूति हो रही थी .. शायद ...

थाली से उनके मुँह तक निवाले ले जाने वाले हाथों की गति धीमी-सी ही रही थी। वो तो शुक्र है, कि .. हँस के या फिर .. रो के-गा के .. जैसे भी हो .. थाली में वो लोग जूठन नहीं छोड़े, वर्ना .. मांसाहारी भोजन में विशेष चाव रखने वाले कई लोग तो परोसे गए शाकाहारी भोजन को गिंज-मथ के और कुछ लोग तो उन व्यंजनों को बिना छुए ही .. उस शाकाहारी भोजन को घास-फूस की संज्ञा देकर .. बस यूँ ही ... बेमन से जूठन छोड़ देते हैं।

समीर माथुर के पड़ोसियों के रिश्तेदारों से जुड़ी उपरोक्त दोनों घटनाओं के आलोक में हमने पाया, कि कई मांसाहारी मानवों की मांसाहार के लिए कितनी ज्यादा आसक्ति व मंत्रमुग्धता है, तो .. फिर भला मांसाहारी पशुओं का आसक्त व मंत्रमुग्ध होना तो स्वाभाविक ही है .. है ना ?

सबसे मजेदार पक्ष तो ये है, कि यही मांसाहार के आसक्त लोग सालों भर किसी वार विशेष .. जैसे- मंगलवार, वृहष्पतिवार या .. कोई-कोई शनिवार को या फिर .. भर माह सावन में या दस दिनों तक नवरातरा (नवरात्रि) या एकादशी-पूर्णिमा के दिन .. दुनिया के सबसे बड़े वाले शाकाहारी मानव होने का ढोंग करेंगे। मानो पेटा (PETA) के 'प्रेसिडेंट' वही हैं .. शायद ...

इन पेटा (PETA) के तथाकथित स्वघोषित 'प्रेसिडेंट' जन की उपरोक्त दिनों की स्वाद लोलुपता भरी बेचैनी की एक बानगी भी प्रसंगवश बहरहाल देख ही लेते हैं। 

किसी एक साल समीर माथुर के एक अन्य पड़ोसी (समीर माथुर के नहीं) के मंझले मामा जी भी सपरिवार छठ (बिहार में सूर्य उपासना से जुड़ा चार दिवसीय एक महिमामंडित व्रत) मनाने के लिए उन पड़ोसी के घर आए हुए थे। व्रत-अनुष्ठान के आख़िरी व चौथे दिन सुबह ही, जैसाकि अमूमन होता है, समापन हो जाने के बाद और प्रसाद ग्रहण करने के बाद मामा जी अपनी रसना के रस को लगभग सुड़कते हुए अपने भांजे यानी समीर माथुर के पड़ोसी से बोले कि - 

" अब तो .. आज शाम तक सब 'गेस्ट' लोग चले ही जायेंगे, तो .. क्यों ना .. दोपहर में 'मटन' बनवाओ .. सभी का "मुख शुद्धिकरण" (उनकी भाषा में किसी निरामिष व्रत-त्योहार के बाद 'नॉन भेज' को उदरग्रस्त करने की प्रक्रिया है ये) हो जाएगा .."

उसी पड़ोसी की मामी जी - " हाँ जी ! .. ढेर दिन हो गया मन को रोके हुए .. ले आइए 'मटन' .. चाहे 'चिकेन' .. कुच्छो (कुछ भी) ले आइए .. "

पड़ोसी के मामा जी - " ना - ना .. ना 'मटन', ना 'चिकेन' .. व्रत-पूजा के बाद तो मछली से ही 'नॉन भेज' शुरू करना चाहिए .." - ऐसा कह रहे थे, मानो किसी गीता-ग्रंथ में ऐसा लिखा गया हो। 

ख़ैर ! .. उपरोक्त दोनों घटनाओं से इतना तो पता चल ही गया, कि मांसाहारी पशुओं की तरह मांसाहारी मानवों में भी मांसाहार के प्रति सम्मोहन, आकर्षण, स्वाद लोलुपता भरी पड़ी है .. शायद ... 

लेकिन .. मांसाहारी पशुओं का मांसाहार के प्रति सम्मोहन होना तो स्वाभाविक है, परन्तु मानव .. जिसके आहार के इतने सारे शाकाहारी विकल्प की उपलब्धता होने पर भी मांसाहार के प्रति अतिविशेष सम्मोहन कायम रहना .. उन्हें तरजीह देना .. एक अचरज का ही विषय है। तभी तो स्वजनों के मृत देह को दफ़नाने या जलाने वाले मांसाहारी स्वाद लोलुपों की .. मृत पशु-पक्षियों के तेल-मसालों में 'मैरीनेट' करके पकाए गए व्यंजनों से .. क्षुधा पूर्ति हो रही है .. शायद ...

फ़िलहाल तो .. इतनी ज्यादा बतकही बहुत है, मेरे द्वारा मांसाहार के रूप में आपका दिमाग़ खाने के लिए .. शायद ... 

अब आइये मूल बतकही के पात्र - समीर माथुर का हालचाल भी जान लेते हैं .. बस यूँ ही ...

अब जब मानव के खाने की मात्रा और गति .. दोनों ही मांसाहार परोसे जाने पर बढ़ जाते हैं, तो मांसाहारी पशु तो फिर भी पशु ही हैं। प्रतिदिन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को कटोरे में दूध-रोटी खिलाने के बाद समीर माथुर उनके सामने से कटोरों को समेट कर व धोकर .. नियमित रूप से सहेज कर यथोचित स्थान पर रख देते हैं। हाथ से ही एक-एक कर कौर के रूप में 'बिस्कुट' भी खिलाते हैं। उस रोज भी सुबह-सुबह वे उन सभी के लिए परोसी गयी .. गुज़रे हुए कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए .. मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी .. कुछ हड्डियाँ उन सभी के खा लेने पर .. उनके सामने से बर्तनों को उठाने के क्रम में .. एक कुत्ते ने मांसाहार के सम्मोहन में बर्त्तन को चाटना नहीं छोड़ना चाहता था, तो प्रतिरोध में घुड़कने के क्रम में बर्त्तन को उठाने के लिए बढ़ी हथेली पर आशातीत हबक लिया था। 

उसके नुकीले दाँतों के चुभन-खरोंच से हथेली के ऊपर-नीचे पाँच-छः जगहों से तीव्र गति से रक्त प्रवाह बहने लगा था। हल्की-सी चीख़ भी निकल गयी थी। फ़ौरन घर में उपलब्ध "सुथॉल" लगा कर .. उनके व उनकी धर्मपत्नी श्रावणी सहाय द्वारा रक्त प्रवाह को रोकने का भरसक प्रयास किया गया था। तभी तो वह सुबह -सुबह आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक 'क्लीनिक' में जाकर 'एंटी रेबीज इंजेक्शन' लिए थे।

इंसान कई बार सामने वाले का मन रखने के लिए सामने वाले की रूचि में अपनी रूचि का दिखावा करता तो है, पर .. कभी-कभी अपने मन की बातों को सामने वाले के सामने रखने के लिए दूसरों के वक्तव्यों का या किसी अवसर विशेष का सहारा लेते हुए अपनी सहमति- असहमति प्रायः जतला ही देता है। 

अभी ऐसा ही अवसर श्रावणी सहाय को मिल गया है, समीर माथुर को सुबह एक कुत्ता के काट लेने भर से। यूँ तो रोज उन कुत्तों के लिए रोटियाँ बनाना .. दूध सुसुम-सुसुम गर्म करना .. वही करतीं हैं। पर .. समीर माथुर की रूचि व ख़ुशी भर के लिए .. अपने मन से नहीं, तो .. आज सुबह एक कुत्ते को खिलाते वक्त उसके काट लेने से श्रावणी सहाय को समीर माथुर से भविष्य में प्रतिदिन कुत्ते को ना खिलाने की बात कहने का मौका मिल गया है। जिन्हें पहले से ही मजबूरी में .. बिना अपने मन के भी .. उनका मन रखने के लिए मजबूरीवश उनको सहयोग करनी पड़ जाती थी।

श्रावणी सहाय - " अब कोई जरूरत नहीं है जी .. रोज-रोज कुत्ता-बिल्ली करने का .. बहुत हो गया .. कैसा भुगतना पड़ रहा है अभी .. आपको .. "

समीर माथुर - " तुमको तो बस्स ! .. अपने मन की बात कहने का मौक़ा भर मिलना चाहिए। फिर तो अपनी मर्ज़ी थोपने में तनिक भी देरी नहीं करती हो तुम .. अब तुम्हें हमारे सफ़ेद बाल भी अच्छे नहीं लगते हैं, तो .. तुम चाहती हो कि .. तुम्हारी तरह हम भी अपने बाल 'डाई' करें .. है ना ?" 

श्रावणी सहाय - " हाँ जी .. सही में .. जरा भी ठीक नहीं लगता है .. "

समीर माथुर - " हाँ .. वही तो ! .. वही तो कह रहे हैं कि .. जो अपने मन की बात तुम सीधे-सीधे नहीं बोल पाती हो तो .. किसी-किसी का हवाला दे कर अपने मन की बात मुझ पर थोपोगी तुम .. अब कहोगी, कि बगल वाली भाभी बोल रहीं थी, कि अच्छा नहीं लग रहा है .. भईया को बोलिए .. अपना बाल रंगेंगे .. "

श्रावणी सहाय- " हम झूठ थोड़े ही ना बोले हैं जी .. बोलिएगा तो उनसे पूछवा देंगे आपको .."

समीर माथुर - " छोडो भी .. मुझे नहीं चाहिए .. किसी का 'सर्टिफिकेट' .. हमारी जीवन शैली के लिए .. फिर कभी कहोगी, कि शाहरुख खान और सलमान खान भी तो अपना-अपना बाल रंगता ही है ना जी .. आयँ ! .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ जी ! .. रंगता ही तो है .. तभी ना जवान लगता है जी .. "

समीर माथुर - " जवान लगना और जवान होना .. दो अलग.अलग बातें हैं जी .. बाल रंगने से कुछ नहीं होता जी .. बस .. मन जवान होना चाहिए .. "

श्रावणी सहाय- " आप तो हर बात में ही .. अपना कुतर्क करने लग जाते हैं .. जाइए .. जैसे रहना है, रहिए .. हम नहीं बोलेंगे आपको .. कुछ भी .. "

समीर माथुर - " ना-ना .. बोलो .. बोलते रहा करो .. हमारे ज्ञान की वृद्धि होती रहती है इससे .. और .. अभी जो तुम ज्ञान दे रही थी ना .. कुत्ता-बिल्ली नहीं करने का .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ .. सही ही तो बोल रहे हैं आपको .."

समीर माथुर - " कुछ भी सही नहीं बोल रही हो तुम .. एक कुत्ता काटा .. वो भी अंजाने में .. उसको लगा था, कि हम उसके खाने का बर्त्तन हटा रहे हैं। वो भी .. वो काटा नहीं था, बस .. घुड़का था .. झटके से हम ही अपनी हथेली वहाँ से हटाए तो .. उसके दाँत की खरोंच लग गयी थी .. "

श्रवणी सहाय - " जैसे भी हो .. लग गयी ना ? .. लग गया ना ढाई-तीन हजार की चपत ? .. "

समीर माथुर - " तुमको तो मेरे घाव से ज्यादा .. पैसे की फ़िक्र है, पर .. पैसा तो .. कहते हैं ना कि .. हाथ का मैल भर है और वैसे भी .. मान लिया कि .. कुत्ते ने वैसे तो अंजाने में काटा है, पर .. मान लिया कि जानबूझ कर काटा है, पर .. उसका तो उपचार है .. इंजेक्शन' (सुई) भी है; पर .. तुम ये बतलाओ, कि .. स्वजन जो जानबूझ कर .. मतलब .. जानते-सुनते अपनी बोली के बाण से मानसिक रूप से हमें प्रताड़ित कर के पीड़ा प्रदान करते हैं .. उन असाध्य दंतहीन दंश का कोई उपचार है क्या ? फिर भी .. इनसे रिश्ते हम तोड़ पाते हैं क्या ? नहीं ना ? .. फिर कुत्ते को .. "

श्रावणी सहाय चुप्पी का लबादा ओढ़े रसोई मकी ओर चली गयी हैं, क्योंकि उनका 'प्रेशर कुकर' .. पक रहे चना दाल के लिए चार सीटी बजा चुका है और समीर माथुर 'बाथरूम' में चले गए हैं नहाने, क्योंकि उनके काम पर जाने का समय हो चला है .. शायद ...

अंत में .. हम पुनः दोहरा रहे हैं, कि उपरोक्त बतकही की दोनों घटनाओं को समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा .. बस यूँ ही ...


Friday, July 19, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (१)

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

समीर माथुर .. जिनकी दिनचर्या में यूँ तो .. सुबह-सुबह किसी भी तरह का 'बिस्कुट' खाना शामिल नहीं है ; क्योंकि उनका मानना है, कि सारे के सारे 'मल्टिग्रेन' वाले या 'रागी' तक से बने होने के दावे करने वाले 'बिस्कुटों' में भी प्रायः पचास प्रतिशत से भी ज्यादा तो मैदा ही होता है और .. आयुर्वेदिक परामर्शों के अनुसार मैदा, सफ़ेद नमक, चीनी इत्यादि जैसे निषिद्ध वस्तुओं का वह अपने आहारों में अमूमन इस्तेमाल नहीं होने देते हैं। 

पर .. चूँकि चिकित्सकीय दृष्टिकोण से .. सुबह-सुबह खाली पेट में या यूँ कहें, कि बासी मुँह रह कर 'इंजेक्शन' नहीं ली जानी चाहिए, तो ऐसे में .. मज़बूरीवश चार 'पीस' 'क्रीम क्रैकर' 'बिस्कुट' ही खा कर, अभी उनको तत्काल सुई लेने के लिए आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक दवा दुकान से उचित दवाएँ लेते हुए, मुहल्ले के ही एक 'क्लिनिक' में जाना पड़ा था। अभी-अभी वह वहीं से 'इंजेक्शन' लगवा कर वापस घर आए हैं और आते ही उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय अपनी तरफ़ से भरसक सहानुभूति जतलाते हुए .. उनसे यही दो उपरोक्त प्रश्न उत्सुकतावश पूछ बैठी हैं, कि ..

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

वैसे तो अभी सुबह के लगभग साढ़े आठ ही बजे हैं। पर बाहर चल रही धधकती गर्म हवा और तीखे धूप से उबल-भून कर घर आते ही 'फुल स्पीड' में 'सीलिंग फैन' को चालू कर के उसके नीचे उसकी तेज हवा में बैठते हुए समीर माथुर अपनी धर्मपत्नी को प्रत्युत्तरस्वरुप बोल रहे हैं -

" कुछ नहीं .. बोलेंगे क्या भला ! .. एक "टेट्वैक" का और एक "रैबीवैक्स एस" का 'इंजेक्शन' अभी दिए हैं .. बारी-बारी से दोनों बाजूओं में .. बाकी .. और भी पाँच 'एंटी रेबीज इंजेक्‍शन' लेनी है .. अलग-अलग दिनों के अंतराल पर .." 

श्रावणी - " मतलब ? "

समीर - " मतलब क्या ? .. मतलब दूसरी सुई आज से तीन दिनों बाद, फिर तीसरी सात दिनों बाद, फिर चौथी .. "

श्रावणी - " अच्छा .. अच्छा .. समझ गए .. समझ गए। और .. डॉक्टर साहब .. खाने-पीने में भी कोई परहेज़ बोले हैं क्या ? "

समीर - " हाँ .. खाने में तो नहीं, पर पीने में .. बोले हैं कि .. "ड्रिंक" नहीं करनी है। "

श्रावणी - " वो तो .. आप वैसे भी नहीं करते हैं जी। "

समीर - " हाँ तो .. बस्स .. मतलब कोई भी परहेज़ नहीं करनी है .. और हाँ .. लाल मिर्ची का 'पाउडर' है क्या घर में ? .. थोड़ा देना .. "

समीर माथुर के घर की रसोई में लाल मिर्च नाममात्र ही इस्तेमाल की जाती है। वो भी उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय जी की बरज़ोरी से और वो भी .. कश्मीरी लाल मिर्च .. कभी-कभार, किसी-किसी आए-गए अतिथियों के स्वागत में बनायी गयी रसोई में रंग लाने के लिए। दो-तीन महीने में कभी एक बार सौ ग्राम कश्मीरी लाल मिर्च के 'पाउडर' का डिब्बा आ गया घर में, तो काम चल जाता है। बाकी तो .. पाचन तंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनज़र हरी मिर्च ही उनकी रसोई में प्रयोग की जाती है। इसीलिए वह अपनी धर्मपत्नी से लाल मिर्च के 'पाउडर' की उपलब्धता के लिए ऐसी शंका से भरा सवाल कर रहे हैं।

श्रावणी - " हाँ .. है .. दे रहे हैं .. पर उसका क्या .. "

समीर - " उसका .. डॉक्टर साहब बोले हैं, कि जहाँ-जहाँ काटा है, वहाँ-वहाँ नल के पानी की तेज धार में रगड़-रगड़ कर साबुन से पाँच-दस मिनट तक धो लीजिएगा और उसी जगह पर मिर्ची भी रगड़ कर धो दीजिएगा .."

श्रावणी - " ओ ! .. अच्छा ! .. मतलब एक तो काटे का दर्द और .. ऊपर से साबुन-मिर्ची से भी आपको परपराएगा .. वो अलग .. "

समीर - " अरे .. ये जानकारी तो 'स्कूल' में 'कोर्स' की किताबों में भी पढ़ायी गई थी .. प्राथमिक उपचार के तहत; पर सुबह .. घबराहट के कारण दिमाग़ में ये बात एकदम से नहीं आ पायी थी।"

श्रावणी - " अच्छा ! "..

समीर - " वैसे भी हमलोग अपने 'स्कूल-कॉलेज' के दिनों में पढ़ी-पढ़ायी बातों को अपने जीवन में कितना ही व्यवहार में ला पाते हैं भला ? हम लोग अपनी पढ़ाई को केवल अच्छे अंकों से 'पास' करने का एक माध्यम भर मानते हैं, ताकी .. कोई भी एक प्रतियोगी परीक्षा 'पास' करके .. ऊपरी आमदनी वाली किसी भी एक सरकारी नौकरी को पा जाना ही मानो .. हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो जैसे। फिर उसके बाद तो .. किताबी बातें आयीं-गयीं हो जातीं हैं। "

श्रावणी - " कितना लगा (रुपया) ? "  - किसी भी 'मिडिल क्लास फैमिली' की आर्थिक तंगी वाली चिंताओं से भरा एक आम-सा सवाल।

समीर - " दोनों 'इंजेक्‍शन' के लगभग चार सौ और पचास रुपए के हिसाब से दोनों (सुई) को लगाने के सौ रुपए .. आगे भी .. अगली पाँचों सुइयों के लिए हर बार लगभग चार-साढ़े चार सौ रुपए का ख़र्च .. "

श्रावणी - " एक बात बोलें जी ? .. अब से ना .. इन सब से दूर ही रहा कीजिए। क्या जरूरत है सुबह-शाम खाना खिलाने की इन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को। और भी तो बहुत सारे लोग हैं जी .. मुहल्ले भर में .. इन सब को खिलाने वाले। कैसा ! .. अभी एक शारीरिक कष्ट हो गया आपको .. बैठे- बिठाए .. वो भी सुबह-सुबह। ऊपर से .. सब मिलाकर ढाई-तीन हजार की चपत लगेगी .. सो अलग .. ना जाने किसका मुँह देख कर आज सुबह उठे थे आप .. "

समीर - " धत् ! .. मौका मिला नहीं, कि .. ऊटपटाँग बातें बकने लगती हो तुम .. कितनी बार कहते हैं, कि मेरे सामने इस तरह की ऊल-जलूल दकियानूसी बातें मत किया करो .. पर तुम .. " - फिर बोझिल माहौल को कुछ हल्का करने की सोच कर मुस्कुराते हुए - " तुम्हारा ही तो मुँह देखकर उठते हैं जी रोज और .. आज भी ... "

दरअसल .. कुछ 'स्ट्रीट डॉग', जिनके लावारिस होते हुए भी प्रायः हर मुहल्ले में समीर माथुर जैसे एक या अनेक पालनहार होते हैं, जो स्वतः उनका दायित्व निभाते हैं; जिनसे कुछ को मन की शांति मिलती है और कुछ के लिए पुण्य कमाने का एक माध्यम बनता है। वहीं दूसरी तरफ़ .. कुछ पड़ोसियों के पाले हुए पालतू, पर अपनी गर्दन में बिना 'चेन' वाले पट्टे लपेटे हुए खुले में विचरने वाले कुत्ते; जो अपने तथाकथित पालनहार मालिक के होने के बावज़ूद लावारिस बने मुहल्ले भर में इधर-उधर मुँह मारते फ़िरते हैं। जो गाहे-बगाहे किसी-किसी फेरी वाले या साइकिल-स्कूटी सवार या फिर विशेष लिबासों वाले भिखमंगों को देखकर बेतहाशा भौंकते रहते हैं। मुहल्ले से बाहर के कुत्ते-कुत्तियों को अपने इलाके से गुज़रने पर भौंक -भौंक कर उनको खदेड़ना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार होता ही है।

यूँ तो समीर माथुर की दिनचर्या में शामिल है .. मुहल्ले भर में ऐसे ही विचरते कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' खिलाना। परन्तु आज दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' की जगह सुबह-सुबह उन सभी के लिए .. गुज़रे कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही उनके बर्तनों में परोस दिए थे। 

अब 'कैनाइन' दाँतों वाले मांसाहारी पशुओं को अगर मांस-हड्डियाँ परोस दी जाएँ, तो मांसाहारी भोजन के सम्मोहन में उनके खाने की गति व चाव दोनों ही तीव्र हो जाते हैं। वैसे तो ये सिद्धांत केवल कुत्तों पर ही नहीं, वरन् मांसाहारी इंसानों पर भी लागू होता है। 

किसी मांसाहारी परिवार में कोई मांसाहारी मेहमान आएँ और उनके स्वागत में 'नॉन वेज' ना बने, ऐसा हो ही नहीं सकता। बशर्ते .. मानने वालों के लिए उस दिन कोई विशेष हिंदू वार या कोई एकारसी (एकादशी) -पूर्णिमा या फिर नवरात्रि जैसा दिन ना हो। फिर तो .. मेज़बान प्रायः मेहमान पर अपना प्रभाव जमाने के लिए 'ग्रेवी' वाले या 'फ्राई' 'चिकेन' के 'लेग पीस' के साथ-साथ पेटी (मछली के पेट के कटे हुए टुकड़े) वाली 'फ्राई फ़िश' परोसने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। वर्ना मांसाहारी मेजबान भी केवल शाकाहारी व्यंजनों-भोजन को खिलाए जाने पर अपनी तौहीन समझते हैं। 

ऐसे में मेजबान-घर के सदस्यों को भी, जो प्रतिदिन शाकाहारी भोजन मन मार के उदरग्रस्त करते हैं, उन्हें मेहमान के बहाने 'नॉन वेज' खाने का सुअवसर मिल जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे .. किसी बच्चे को सेहत का हवाला देकर समोसा खाने से मना करने वाले अभिभावकों की भी विवशता हो जाती है, जब मेहमानों के आने पर उनके लिए बाज़ार से मंगवाए गए गर्मागर्म समोसे में से बच्चों को खाने से नहीं रोक पाते हैं और बच्चे उन सुअवसरों का आराम से आनन्द लेते हैं। और तो और .. ऐसे अवसरों पर ही मुहल्ले भर के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों और बिल्लियों को भी चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियों से उनके मुँह के स्वाद को "सोंधाने" का सुनहरा अवसर मिल जाता है।

अभी सोच रहा हूँ, कि प्रसंगवश समीर माथुर के साथ जुड़ी अतीत की दो घटनाओं (कहानियाँ नहीं) को दोहराउँ ? .. क्योंकि उन्हें यहाँ दोहराना .. कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तो आगे .. पहली घटना बकते हैं .. परन्तु आज नहीं .. बल्कि .. "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" (अंतिम) में पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ...


Wednesday, July 17, 2024

मैली चादर ओढ़ के ...

जब 22 जनवरी 2024 को राम मन्दिर के उद्घाटन के दिन अपने देश के प्रधानमंत्री जी ने सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध गायक हरिहरन जी द्वारा गाए गए एक राम भजन को साझा किया था, जिसके बोल थे - "सबने तुझे पुकारा श्री राम जी, देना हमें सहारा श्री राम जी", तब तमाम मीडिया वालों ने भी इस प्रकरण को कुछ ज्यादा ही महिमामंडित किया था .. जो ऐसे पावन मौके पर स्वाभाविक भी है। परन्तु ऐसे में तनिक विस्मित करने वाली बात थी .. कला के उसी क्षेत्र से जुड़े एक महान विभूति को हमारा विस्मृत कर देना .. उन प्रसिद्ध धरोहर की लोकप्रियता का आशातीत कम हो जाना .. शायद ...

विश्व भर के हिंदू बहुल देशों में दशकों अपनी प्रभावशाली व भावपूर्ण वाणी के कारण भजन, विशेष कर राम व राम-भक्त हनुमान भजन, के पर्याय बने रहने वाले तथा अपने देश में ही अन्य सम्प्रदाय के लोगों द्वारा भी सुने जाने वाले महान भजन गायक, जो ऑल इंडिया रेडियो (प्रसार भारती) के भजन सम्बन्धित कार्यक्रमों के आजीवन प्राण बने रहे .. जिनको आज की युवा पीढ़ी तो निःसन्देह ही जानती तक नहीं होगी; परन्तु उन स्वर्णिम दशकों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हमारे जैसे लोग भी उनको विस्मृत कर चुके हैं। जबकि उन दशकों के अभिनेता-अभिनेत्रियों, राजनेताओं तक को हम बेशक़ आज भी नाम से जानते व पहचानते हैं .. शायद ...

कितनी दुःखद बात है, कि आज हम उन्हीं अद्वितीय महापुरुष - हरि ओम शरण जी को बिसरा चुके हैं। उससे भी दुःखद बात ये है, कि आज तथाकथित सोशल मीडिया के पन्नों पर लोकप्रिय .. किन्तु फूहड़ नृत्यांगना - सपना चौधरी के जितने यूट्यूबस् व व्यूअरस् उपलब्ध है, उतने हरि ओम शरण जी के नहीं .. शायद ...

दरअसल हम अक़्सर अनुभव करते हैं, कि हम अपने जीवन के जिस पहलू को बार-बार तथाकथित सोशल मीडिया पर देखते या 'सर्च' करते हैं; फिर उसी पहलू से जुड़े यूट्यूबस्, रील्स या गूगल न्यूज़ हमारे मोबाइल या डेस्कटॉप पर मंडराने लगते हैं। स्वाभाविक है, कि जब हमने लोकप्रियता की परिभाषा के अपभ्रंश स्वरूप को ही प्रमाणिक मान लिया है, तो ऐसे में सोशल मीडिया के पन्नों पर हरि ओम शरण जी की जगह सपना चौधरी का दिखना लाज़िमी है। वैसे भी वर्तमान में तथाकथित जागरण या माता की चौकी जैसे आयोजनों में प्रायः गाए-बजाए जाने वाले पैरोडीनुमा भजनों ने भक्तिभाव से परिपूर्ण भजनों की लोकप्रियता को कम कर दिया है .. शायद ...

विकिपीडिया पर भी बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है उनके बारे में। परन्तु जो भी जानकारी है, उसके अनुसार उनका जन्म जिस शहर में हुआ था, वह वर्तमान में पाकिस्तान में है। वैसे भी .. अगर हम स्वतंत्रता के समय के विभाजन से जुड़े अनगिनत मार-काट वाले नकारात्मक पक्ष को दरकिनार करके कुछ पल के लिए सकारात्मक पक्ष को निहारते हैं तो .. हम पाते हैं, कि भारतीय गीत-संगीत, साहित्य और सिनेमा को तत्कालीन विस्थापितों का अत्यधिक योगदान मिला है .. शायद ...

आइए .. मिलकर उन दशकों की गुनगुनी गूँज को पुनः अनुभव करके उनके लोकप्रिय राम भजनों की नैया पर अपने जीवन के भवसागर से क्षणिक ही सही, पर .. पार पाते हैं .. बस यूँ ही ...

वैसे उनके भजनों में मुझ जैसे तथाकथित नास्तिक को निजी तौर पर जो सर्वाधिक पसंद है .. वो है ...

और अंत में तथाकथित आस्तिकों के लिए चलते-चलते सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


Tuesday, July 16, 2024

बना तो कीर्तिमान् ...


बढ़ी हो या नहीं 
तुम्हारी रौनक, 
पर बेटियों के हर
ग़रीब पिता की
बढ़ ही गयी होगी 
शायद कसक।
 
देख तुम्हारी 
अमीरी की
फिजूलखर्ची की 
हलचल,
वर्षों होते रहेंगे
कई सारे मन विह्वल।

ख़र्चा करोड़ों धन,
कई महीनों की रस्में,
प्रतिष्ठितों ..
नामवरों के जमघट,
बना तो कीर्तिमान्
बेशक अलबेला, अद्भुत।

पर इन सब से क्या ?
इतर ..
चौंसठ कलाओं से,
होंगे क्या कुछ
करतब विशेष भी
उनकी सुहाग-सेज पर ?

शायद .. नहीं।
फिर भला क्यों
व्यर्थ धन प्रदर्शन ?
करते क्यों नहीं
जनकल्याण में तुम भी
"टाटा" जैसा धन समर्पण ?


Sunday, July 14, 2024

नर्म बुग्याल अकूत ...


मूँदे
अपनी
आँखें,
मख़मली
ग़िलाफ़ में 
पलकों के,
मिलो ना 
कभी हमदोनों, 
रहो तुम भी मूक,
घंटों .. रहें हम भी मूक .. बस यूँ ही ...

तन तानती,
लेती अंगड़ाई,
थोड़ी अलसायी,
थोड़ी कुनमुनाती,
रहे पसरी
बाहों में मेरी
काया तुम्हारी,
मानो हों जैसे
हिमशिखरों की तलहटी में 
फैले नर्म बुग्याल अकूत .. बस यूँ ही ...

टटोलती उंगलियाँ
हमारी-तुम्हारी,
एक-दूसरे के 
देह को,
बिंदुओं के 
उभार से भरी 
ब्रेल लिपि के 
किसी पन्ने-सी,
होगी अनुभूति अद्भुत .. बस यूँ ही ...

करना 
टालमटोल कभी,
कभी-कभी 
टटोलना 
अंग-अंग
तन के,
एक-दूजे के,
कभी टोहना
एक-दूजे के मन-अमूर्त .. बस यूँ ही ...

Friday, July 12, 2024

हरकतों की हरारतों को ...


सिखला दो ना जरा 

'एडिट' करना भी कभी,

'फोटोशॉप एक्सप्रेस' से

मन की बातों को।


सिखला दो ना जरा 

'डिलीट' करना भी कभी,

मन की 'गैलरी' से

तुम्हारी यादों को।


सिखला दो ना जरा 

'रीसायकल बिन' भरना भी कभी,

ताकी कर सकूँ दफ़न

तुम्हारी बीती रूमानी बातों को।


सिखला दो ना जरा 

'एम्प्टी' करना भी कभी

'रीसायकल बिन', मिटा दे जो

तुम्हारे अर्थहीन वादों को।


सिखला दो ना जरा 

'अनडू' करना भी कभी,

संग बीते लम्हों की

शरारती हरकतों को।


सिखला दो ना जरा 

'सेव' करना भी कभी,

उन जवान पलों की

हरकतों की हरारतों को।


सिखला दो ना जरा 

'मैट्रिमोनियल साइट्स' देखना भी कभी,

भरे असंख्य बेहतर विकल्पों से,

तोड़ के संग किए प्रेम-संकल्पों को .. बस यूँ ही ...

Monday, July 8, 2024

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)


गतांक वाली बतकही यानी "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१)" में हम अवगत हुए, कि जब नेत्रहीन पर .. दृष्टीहीन नहीं, बधिर पर .. समस्त मानव के हृदय-स्पंदन को सुनने वाली तथा आंशिक मूक पर .. समस्त विश्व में अपनी रचनाओं .. अपने आंदोलनों और समाज में किए गए सकारात्मक परिवर्तनों के माध्यम से बोलने वाली एक महिला - हेलेन एडम्स केलर .. अपने वृहत् दृष्टिकोण से कई सामाजिक समस्याओं के लिए जमीनी अभियान चला कर विश्वस्तरीय बदलाव ला सकती हैं, तो .. ऐसे में हमलोग जैसे मौखिक मुहीम चलाने वाले लोगों को .. यानी स्वयं को .. जिनके पास आँख, कान और बोलने वाला मुँह भी है  .. बौना महसूस करने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करना चाहिए .. शायद ...

परन्तु .. हमें हमारी संतानों के रूप में अपनी भावी पीढ़ी को उनके पाठ्यक्रमों से इतर भी .. हेलेन एडम्स केलर और ऐनी सुलिवन मैसी जैसी विश्वस्तरीय महान विभूतियों के बारे में अवगत करानी चाहिए। बेशक़ .. विभिन्न शैक्षिक परीक्षाओं या प्रतियोगी परीक्षाओं को 'पास' करने हेतु विशिष्ट अंक प्राप्त करने भर के लिए नहीं, बल्कि उनमें एक वृहत् व विस्तृत दृष्टिकोण एवं उन्नत मानसिकता वाली सोचों की उत्पत्ति के लिए .. बस यूँ ही ...

अब आज के आख़िरी पृष्ठ में "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)" के शेष-विशेष अंश में कामवाली- पार्वती की मुसीबतों के बारे में उसी से जानते हैं और उनके समाधान अवश्यंभावी हो या ना हो, पर हमें उनकी तलाश के लिए अवश्य ही हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए .. शायद ...

वैसे इस बतकही के प्रेरणास्रोत की बातें भी अभी बतकही के अन्त में हम अवश्य करेंगे, तो अब .. तब तक झेलते हैं इस बतकही को .. बस यूँ ही ...

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)

अभी दोपहर के लगभग दो-ढाई बजे काकोली घोष, सौम्या रावत, नैना सेमवाल और पार्वती .. सभी का जमावड़ा जम गया है नलिनी (अष्ठाना) आँटी के घर पर।

नलिनी - " क्या हुआ पार्वती ? आज तुम काम करने भी नहीं आयी। कैसी मुसीबत आ पड़ी है तुम पर ? "

पार्वती - " आपसे बतलाने में लाज आ रही है आँटी .. हिम्मत नहीं हो पा रही .. आपको बतलाने की .. "

नलिनी - " लज्जा करने से कैसे काम चलेगा पार्वती ? ऐसे में थोड़े ही ना मुसीबत टल जाएगी तुम्हारी .. आँ .. "

सौम्या - " ऐसे में हमलोगों के कामों का भी नुक़सान हो रहा है .. वो अलग है पार्वती .. "

पार्वती अपने झुके सिर को और भी दस-बीस डिग्री नीचे की ओर झुका कर .. कभी अपनी कर्ण कुण्डलिनी में अपनी तर्जनी को फिराती हुई, तो कभी कर्णफूल टँगी अपनी कर्ण पालि को तर्जनी व अँगूठे की मदद से नीचे की ओर तानती हुई .. अपनी आँखों में उमड़े आँसुओं के आवेग को रोकने का असफ़ल प्रयास कर रही है। फिर भी नलिनी आँटी के अतिथि कक्ष के 'मार्बल' वाले साफ़-सुथरे फ़र्श पर उसके आँसू की दो-चार टपकी बूँदों पर वहाँ उपस्थित, पार्वती के अलावा, सभी चारों लोगों की नज़र पड़ ही गयी है।

नलिनी - " पार्वती ! .. ऐसे सिर झुका कर रोने से कोई हल नहीं निकलने वाला। समझी ना ! .. मान लो .. अब अगर हमें 'पाइल्स' (बवासीर) या 'ल्यूकोरिआ' (श्वेत प्रदर) जैसी बीमारी हो जाएगी, तो .. उसकी चर्चा करनी .. हिचक या लज्जा करने जैसी कोई गलत या बुरी बात कैसे हो सकती है भला ! .. आयँ ! .. परिवार से, समाज से या डॉक्टर से साझा करने के बजाए उसको बुरी बातें कह के हिचक या शर्म से मौन रहने पर तो .. वो बीमारी या कोई भी मुसीबत .. और भी ज्यादा जानलेवा हो सकती है .. नहीं क्या ? .. बोलो ! .. "

पार्वती के प्रतिवचन सुनने के लिए कुछ पल के लिए कमरे में मानो एक चुप्पी व्याप्त हो गयी है। सब के सब निःशब्द .. पार्वती भी .. तभी ऐसे में ..,.

नलिनी - " अब बोलो भी पार्वती .. "

अब बमुश्किल पार्वती के होंठ हिले हैं .. लगभग रुआँसा होकर ..

पार्वती - " ऐसे तो आँटी .. वो (उसका धर्मपति) तो रोज रात में देशी दारू के नशे में धुत् हो कर घर आता है और .. कई रोज़ मेरी मर्ज़ी ना रहते हुए भी बिस्तर पर जैसे-जैसे उसका मन करता है, वैसे-वैसे जहाँ-तहाँ .. इधर-उधर .. जैसे-तैसे मेरे देह को नोचता-भंभोरता है आँटी .. उसके मुँह से आने वाले दारु के साथ-साथ खैनी और बीड़ी के बास को भी अपनी साँसें रोके-रोके .. पर जब अपना दम घुटने लगता है ना .. तब .. तब उस बास को बर्दाश्त करके .. उसी बास में गहरी साँस भी लेनी ही पड़ जाती है .. उसके फारिग होने तक .. पर ... "

काकोली - " तो ? .. इसमें ऐसी कौन सी नई बात हो गयी ? मर्द लोग तो ये सब खाते-पीते ही है ना ! .. अन्तर बस्स ! .. इतना ही है, कि तुम दारु, खैनी और बीड़ी के दुर्गन्धों को झेलती हो और हमारे जैसे लोग अंग्रेजी शराब, गुटखे और सिगरेट के .. "

पार्वती - " उतना तो हम भी समझते और .. बर्दाश्त भी करते हैं दीदी .. पर .. ख़ैर है, कि नशे में वो जल्दी ही फारिग हो जाता है। पर .. कल रात मुआ ना जाने कौन सा कैप्सूल निगल कर .. उसे का (क्या) कहते हैं .. बिगरा .. "

काकोली - " पगली ! .. बिगरा नहीं ..  वियाग्रा कहते हैं उसको .. "

पार्वती - " हाँ - हाँ .. वही .. खा कर कल रात .. देर तक अपनी आदतों और इच्छानुसार जहाँ-तहाँ भंभोरता रहा मेरे देह को और .. सुबह उठी तो .. सुबह .. 'पॉटी' करने में दर्द सहा नहीं जा रहा था .. बहुत चीख़ी, तड़पी .. पर मेरी वहाँ सुनता ही कौन भला ? .. "

काकोली - " ओह ! .. "

पार्वती - " मुँह में तो पहले से ही छाले हैं .. जब भी थोड़ा ठीक होता है, फिर से वही सब करता है मुँह में भी .. फिर से छाला बढ़ जाता है .. वो सब करने के समय मुँह और भी ज्यादा छन्छनाता है आँटी .. नहीं करो या करने दो तो .. जानवरों की तरह मारता-पीटता है .."

नलिनी - " ओह ! .. .. कोई बात नहीं .. मुँह के छाले के बारे में तो तुम पहले बतलायी ही थी। पर .. उसकी वजह नहीं। मैं समझ रही थी, कि पेट की गर्मी से .. ख़ैर ! उस की दवा तो तुम पहले से ही .. ले ही रही हो ना ? "

पार्वती - " हाँ .. आँटी खा रही है और .. लगा भी रही हूँ। नैना दीदी को तो .. सब कुछ पहले से पता है। उनसे हमेशा सब बतलाती है हम। उनसे कुछ भी नहीं छुपाती, पर .. आपसे बोलने में ... "

नलिनी - " ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. 'बाथरूम' के वक्त जो दर्द हो रहा है ना .. मेरे पास कुछ 'जेली' और 'क्रीम' हैं .. ले जाओ .. जहाँ दर्द हो रहा है, वहाँ लगाओ .. तुमको बहुत ही आराम मिलेगा .. "

पार्वती - " आपको भी इसकी जरूरत .. .. "

नलिनी - " अब ये मत पूछो .. बस दवाएँ ले जाओ। मैं नया खरीद लाऊँगी। "

सौम्या - " ये कौन सी दवा हैं ?"

नलिनी - " एक तो 'नार्मल' 'पेट्रोलियम जेली' है, जो 'मॉइस्‍चराइज' करता है और दूसरा 'जिंक ऑक्साइड' वाला "डेसिटिन" है, जो 'रैश' यानी खरोंच को भरता है। साथ में 'लिडोकेन' युक्त सुन्न करने वाली 'क्रीम'- "प्रिपरेशन एच" जो .. मल त्याग के दौरान घायल अंग को सुन्न करके उस के जलन और दर्द से अस्थायी तौर पर राहत दिलाता है .. " 

सौम्या - " ओ ! .. अच्छा ! .. "

नलिनी - " इसके लिए 'प्रिस्क्रिप्शन' की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। "डिटॉल", 'कंडोम' और 'सैनिटरी नैपकिन' की तरह ही .. ये सब एक 'ओ टी सी प्रोडक्ट्स' हैं। "

नैना - " ओ टी सी ... ? "

काकोली - "ओ टी सी यानी 'ओवर-द-काउंटर प्रोडक्ट्स' .. जिनके लिए 'डॉक्टर' के 'प्रिस्क्रिप्शन' की आवश्यकता या अनिवार्यता नहीं होती है। "

नलिनी - " जानती हो .. नारी देह के प्रकृत्ति प्रदत सारे विवर जब .. आवश्यकता की जगह विवशता का रूप ले लेते हैं, तो .. किसी भी जन्मदात्री की जन्नत-सी लगने वाली ज़िंदगी जहन्नुम में तब्दील हो जाती है। "

काकोली - " सात फेरे, सात जन्मों की हम लाख बातें कर लें, पर मर्ज़ी तो .... (?) .. ख़ैर ! .. ज्यादा क्या बोलना .. भारतीय वैवाहिक जीवन सैद्धांतिक या धार्मिक रूप से जैसा भी जान पड़ता हो, मगर वास्तव में है तो .. लगभग कई सारे समझौतों का संविधान भर ही .. "

नलिनी - " महिला-पुरुष की समानता अख़बारों और टी वी के न्यूज़ चैनलों के अलावा नारी विमर्श वाले मंचों पर तो बख़ूबी दिखता है, पर कितनी समानता है, ये तो .. वो औरत ही जानती व समझती है, जिसे अपने तथाकथित घर की चहारदीवारी के पीछे अपने ही 'बेडरूम' में वो सब झेल कर ही / भी रहना पड़ता है। "

पार्वती अपनी चारों मालकिनों की उसके पल्ले ना पड़ने वाली आपसी बातें बस चुपचाप टुकुर-टुकुर देखते (?) हुए .. वहाँ से बच निकलने की जुगत में नलिनी जी को सम्बोधित करते हुए ..

पार्वती - " आपलोगों के लिए चाय बना दें आँटी .. "

नैना - " अरे ! .. नेकी और पूछ-पूछ .. जल्दी ले आओ .. पर हाँ .. अदरख़ डालना मत भूलना .. "

पार्वती फ़ौरन नलिनी जी के रसोईघर की ओर लपक ली है। 

पार्वती के जाते ही .. लगभग फुसफुसाते हुए ...

सौम्या - " छोटे लोगों में तो .. ये सब चलता है आँटी .. "

काकोली - " नहीं .. ऐसा नहीं है .. छोटे लोग और बड़े लोगों की बात नहीं है। चलता तो सब में है .. बस .. उनके संज्ञा बदल जाते हैं .. उनकी व्याख्या और व्याख्यान बदल जाते हैं .. बस्स .. "

नलिनी - " रात के अँधियारे में या बियाबान जैसे एकान्त में .. बिस्तर पर नारी का सान्निध्य मिलते ही हर पुरुष .. केवल और केवल पुरुष रह जाता है .. तब वह कोई .. वक़ील-जज, टीचर-प्रोफेसर, चपरासी-अफ़सर, डॉक्टर-इंजीनियर, मंत्री-व्यापारी या मज़दूर-मिस्त्री नहीं रह जाता / पाता है .. केवल और केवल विशुद्ध पुरुष होता है .. अपनी-अपनी पौरुष क्षमता और काम-क्रीड़ा सम्बंधित अर्जित ज्ञान के अनुरूप .. मैं .. गलत तो .. नहीं बोल रही हूँ ना ? .. " 

काकोली - " ना .. ना-ना .. ये भी सही है आँटी .. "

नलिनी - " हमारी धरती पर .. सभी के अपने-अपने क्षेत्र या समाज के अनुसार .. नारीवाद की अपनी-अपनी अलग-अलग परिभाषा है और हम हैं, कि विश्व पटल पर एक ही ढर्रे पर नारी विमर्श की बातें कर-कर के समझ रहें हैं, कि हम समाधान तलाश रहे हैं जैसे ... " - आगे उपस्थित समस्त महिला मंडली की मूक मुख-प्रतिक्रिया को निहारते हुए - " अगर हम हिमालय के आसपास वाले क्षेत्रों से धरती का अवलोकन करें, तो हिमाच्छादित पर्वत की चोटियाँ ही नज़र आएगीं ना ? पर .. इसका मतलब ये तो नहीं, कि धरती पर कहीं भी ज्वालामुखी है ही नहीं .. हमारा समाज भी इसी धरती पर रचा-बसा तो है ही और .. है भी इसी धरती की तरह .. कहीं ज्वालामुखी तो .. कहीं बर्फ़ .. "

नैना - " वो तो है आँटी .. पर हम बचाव के लिए इसकी शिकायत पुलिस से तो कर ही सकते हैं ना ? .. "

नलिनी - " नहीं कर सकते नैना .. 'आईपीसी' की धारा 375 ए, बी, सी और डी के बाद नीचे अपवाद में लिखा हुआ है, कि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी, जिसकी उम्र पंद्रह वर्ष से कम न हो, के साथ किया गया कोई भी यौन संबंध या यौन क्रिया; जिनमें पत्नी के योनि, गुदा या मुँह में अपना उत्तेजित लिंग स्खलन तक डालना बलात्कार नहीं है। उसकी मर्ज़ी से या .. या बिना उसकी मर्ज़ी के ... "

नैना - " आईपीसी .. ? "

काकोली - " 'आईपीसी' मतलब .. 'इंडियन पेनल कोड' यानी भारतीय दंड संहिता .." 

नैना - " ओ ! .. "

नलिनी - " अब इसी साल (2024) एक जुलाई से इसे भारतीय न्याय संहिता यानी 'आई पी सी' की जगह 'बी एन एस' का नाम दिया गया है और धारा 375 अब .. धारा 63 हो गया है। "

सौम्या - " ओ ! .. अच्छा ! .. "

नलिनी - " अब चूँकि वैवाहिक बलात्कार को अभी तक कानून द्वारा मान्यता नहीं दी गई है, इसीलिए वो सारे अप्राकृतिक अपराध जो सामान्य रूप से आईपीसी की धारा 375 के दायरे में आते हैं, यदि यह पति और उसकी धर्मपत्नी के बीच हुआ है, तो उसे 'आईपीसी' की धारा 375 या 'बी एन एस' की धारा 63 के तहत बलात्कार के अपराध के बराबर नहीं माना जाता है। ऐसे में उपरोक्त घिनौने व अप्राकृतिक कृत्यों जैसे किसी भी यौन क्रिया के लिए पत्नी की सहमति या असहमति का भी .. कोई भी औचित्य नहीं रह पाता / जाता है। "

काकोली - " कम-से-कम "सहमति" वाली बात को तो .. इस धारा में संशोधन कर के निश्चित रूप से जोड़ी ही जानी चाहिए ना ? .. "

सौम्या - " हाँ .. सच में ऐसा ही होना चाहिए .. क्योंकि दोनों की समान रूचि के अनुसार सहमति से अगर जो कुछ भी होता है .. प्राकृतिक या अप्राकृतिक .. दोनों को ही अच्छा लगता है, तब तो ठीक है; पर .. वर्तमान में उपलब्ध धारा के अपवाद के अनुसार रूचि या सहमति ना रहने पर भी जबरन की गयी किसी भी उत्पीड़न के लिए .. किसी से भी शिकायत नहीं की जा सकती है .. है ना ? .. " - सौम्या अपनी लटों को झटकाते हुए आगे और भी आवेश के साथ बोल रही है - " और वो भी .. 'आई पी सी' की धारा 375 या आज की 'बी एन एस' की धारा 63 के अपवादों में बिना संशोधन के ? .. "

नलिनी - " दरअसल हम उसी समाज के अंग या अंश हैं, जिस समाज में गाय को माँ का दर्जा भी देते हैं और खूँटे से बाँध कर भी रखते हैं। उसके बछड़े के हिस्से के दूध को हड़प कर हम अपनी भावी पीढ़ी को पाठ भी पढ़ाते हैं, कि गाय दूध देती है। यही हम अपने पुरखों से भी सुनते-सीखते आये हैं। जबकि गाय बेचारी दूध देती तो है, पर अपने बछड़े के लिए .."

सौम्या - " हाँ .. सो तो है .. "

नलिनी - " अब गाय के खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी .. है तो बन्धन ही ना ? .. खूँटे से मुक्ति पाकर ही कोई / कोई-कोई अमृता प्रितम या महादेवी वर्मा बन पाती / जाती हैं। "

तभी पार्वती एक 'ट्रे' में चार 'कप' अदरख़ वाली चाय ले कर आ गयी है। उसके बाद सभी मिलकर अब आगे भी गपशप के साथ चाय पीने में व्यस्त हो गयीं हैं। पास ही बैठी पार्वती भी एक गिलास में अपनी चाय सुरक रही है।

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प्रेरणास्रोत की बातें :-

ये बतकही (कहानी) एक मनगढ़न्त कहानी भले ही हो या है भी, पर .. ये मुद्दा या विषय मनगढ़न्त नहीं है। दरअसल इसकी प्रेरणा 'आई पी सी' की धारा 375 या 01 जुलाई 2024 के दिन से आज की 'बी एन एस' की धारा 63 के दूसरे अपवाद को पढ़ कर मिली। वस्तुतः उन्हें पढ़ कर मन विचलित हो गया और तत्क्षण एक काल्पनिक .. पर इसे पूरी तरह काल्पनिक भी नहीं कह सकते .. कहानी/घटना दिमाग़ में कौंधी, कि .. अगर जिस किसी भी समाज या समुदाय में महिलाओं की इच्छा के विरुद्ध भी ऐसी घटनाएँ घटित होती होंगी .. जिनकी शब्दातीत पीड़ा उनके मन में ही घुट कर रह जाती होंगी और .. परन्तु हम औपचारिक खोखला नारी विमर्श कर-कर के महिलाओं की पीड़ा की इतिश्री समझ ले रहे हैं .. शायद ... 

हम आने वाले कल में .. चाँद और मंगल पर जो बस्तियाँ बसाने जा रहे हैं, क्या .. वहाँ भी एक पुरुष प्रधान समाज वाली ही बस्ती बसेगी, जहाँ महिलाओं की इच्छाओं का सम्मान, मूल्य या मूल्यांकन नहीं होगा ? 

आपकी सुविधा के लिए वर्त्तमान 'बी एन एस' की धारा 63 की अक्षरशः प्रतिलिपि उसके अपवाद सहित, जो 'आई पी सी' की धारा 375 के ही समकक्ष है, यहाँ चिपका रहा हूँ .. बस यूँ ही ... 

बलात्कार को परिभाषित करती 'आई पी सी' की धारा 375 यानी वर्त्तमान में 'बी एन एस' की धारा 63 और उसके दोनों अपवाद :-

【 " एक आदमी को "बलात्कार" करने वाला कहा जाता है यदि वह-

(क) किसी भी सीमा तक अपने लिंग को किसी महिला की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए मजबूर करता है; या

(ख) किसी भी सीमा तक किसी वस्तु या शरीर के किसी भाग को, जो लिंग नहीं है, किसी स्त्री की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रविष्ट कराता है या उससे या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने को कहता है; या

(ग) किसी स्त्री के शरीर के किसी भाग को इस प्रकार प्रभावित करेगा कि उसकी योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी भाग में प्रवेश हो जाए या उससे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा कराए; या

(घ) निम्नलिखित सात में से किसी भी प्रकार की परिस्थिति में किसी स्त्री की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुँह लगाता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता है :-

(i) उसकी इच्छा के विरुद्ध;

(ii) उसकी सहमति के बिना;

(iii) उसकी सहमति से, जब उसकी सहमति उसे या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या क्षति का भय दिखाकर प्राप्त की गई हो;

(iv) उसकी सहमति से, जब पुरुष जानता है कि वह उसका पति नहीं है और उसकी सहमति इसलिए दी गई है क्योंकि वह मानती है कि वह कोई दूसरा पुरुष है जिसके साथ वह विधिपूर्वक विवाहित है या होने का विश्वास करती है;

(v) उसकी सहमति से, जब ऐसी सहमति देते समय, वह मानसिक विकृति या नशे के कारण या उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से या किसी अन्य के माध्यम से किसी नशीले या अस्वास्थ्यकर पदार्थ के सेवन के कारण, उस पदार्थ की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ हो, जिसके लिए वह सहमति दे रही है;

(vi) उसकी सहमति से या उसके बिना, जब वह अठारह वर्ष से कम आयु की हो;

(vii) जब वह सहमति व्यक्त करने में असमर्थ हो।

स्पष्टीकरण 1.- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, "योनि" में लघुभगोष्ठ भी सम्मिलित होंगे।

स्पष्टीकरण 2.-सहमति से स्पष्ट स्वैच्छिक समझौता अभिप्रेत है, जब महिला शब्दों, इशारों या किसी भी प्रकार के मौखिक या गैर-मौखिक संचार द्वारा, विशिष्ट यौन क्रिया में भाग लेने की इच्छा व्यक्त करती है:

परन्तु यह कि यदि कोई महिला प्रवेशन के कार्य का शारीरिक रूप से प्रतिरोध नहीं करती है तो केवल इस तथ्य के आधार पर उसे यौन क्रियाकलाप के लिए सहमति देने वाली नहीं माना जाएगा।

अपवाद 1.- कोई चिकित्सीय प्रक्रिया या हस्तक्षेप बलात्कार नहीं माना जाएगा।

अपवाद 2.- किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ, जबकि पत्नी अठारह वर्ष से कम आयु की न हो, संभोग या अन्य अप्राकृतिक यौन कृत्य (अपने लिंग को पत्नी की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश करना) बलात्कार नहीं है। " 】

अन्त में एक प्रश्न :-

लब्बोलुआब यही है, कि पति द्वारा कानूनी रूप से अपनी विवाहित धर्मपत्नी के साथ, उसकी इच्छा या सहमति के विरुद्ध भी, अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना 'आईपीसी' की धारा 375 यानी 'बी एन एस' की धारा 63 के तहत अपराध नहीं है। 

मतलब .. हर भारतीय पुरुष को अपनी विवाहित धर्मपत्नी को उसकी इच्छाओं के विरुद्ध भी भरपूर रौंदने के लिए कानून का अनुचित संरक्षण प्राप्त है। 

पति रूपी पुरुष को मिला यह अनुचित अधिकार .. पत्नी रूपी महिला को एक बंधुआ मजदूरिन या .. ठेठ में कहें, तो .. एक यौन कर्मी की श्रेणी में लाकर खड़ा नहीं कर देता है क्या ???