Saturday, August 19, 2023

एक 'क्लोन' तुम्हारा ...


अक़्सर टहलती हो 

तुम भले ही

सपाट सड़कों पर 

अपनी दिनचर्या की,

मटकता रहता है पर .. हर क्षण,

चंद स्मृतियों की 

कोशिकाओं से विकसित 

मन के प्रयोगशाला में  

एक 'क्लोन' तुम्हारा,

पथरीले पथ पर मेरे मस्तिष्क के .. बस यूँ ही ...


बाँध लेती होगी तुम भले ही 

लम्बे-घने बालों को अपने,

समेट कर अब जुड़े

ऊपर अपनी गर्दन के,

बरसाती उमस भरी गर्मियों में,

बनाती हुईं ...

ख़मीर भरे घोल से,

परिवार भर को प्रिय 

मूँग दाल के कड़क चीले, 

अपने रसोईघर में .. शायद ...


पर आता है अब भी .. वो .. 

एक 'क्लोन' तुम्हारा क़रीब मेरे 

खुले बालों में ही अक़्सर,

भले ही हो वो आपादमस्तक

स्वेद बूँदों से तरबतर,

मालूम है उसे .. सोख ही लेंगे ..

सोख्ता काग़ज़ के जैसे,

उसकी शोख़ स्वेद बूँदों को,

गर्दन से माथे तक .. सरक-सरक कर .. 

सारे के सारे .. होंठ हमारे .. बस यूँ ही ...


Friday, August 18, 2023

घी या घोंघा ...

सर्वविदित है कि हमारे देश में विशेषकर मैदानी क्षेत्रों (बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान) में चाँद की गति के आधार पर अथार्त् चन्द्र पंचांग पर आधारित हिन्दू पंचांग वाले कैलेंडर की मान्यता है। जबकि पहाड़ी इलाकों (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में भी) में सूर्य पंचांग पर आधारित कैलेंडर को लोग मानते हैं।

अतः मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पहाड़ी क्षेत्रों के स्थानीय कैलेंडरों में सूर्य के अनुसार माह बदलता है यानि सूर्य की अपनी एक राशि से दूसरी राशि में जाने के दिन से। जिन भोगौलिक घटनाओं को हम "संक्रांती" कहते हैं और इसे धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ कर हम यदाकदा अलग-अलग नाम से लोकपर्व की तरह भी मना लेते हैं।

हालांकि उत्तराखंड के एक अन्य "संक्रांती" पर ही आधारित लोकपर्व "फूलदेई" की बतकही करने के दौरान साल भर के बारहों संक्रांतियों की चर्चा पहले ही विस्तारपूर्वक हुई हैं। उन्हीं में से इस एक संक्रांति में जब सूर्य कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करता है, तो इस भादो महीने की संक्रांति को यहाँ सिंह संक्रांति कहते हैं या फिर लोक पर्व की तरह "घी संक्रांति" या "पत्यूड़ संक्रांती" के नाम से मनाते हैं। दरअसल गढ़वाली भाषा में अरबी को "पत्यूड़" कहते हैं। "घी संक्रांति" या "पत्यूड़ संक्रांती" को गढ़वाली भाषा में "घ्यू त्यार" कहते हैं। कल (17.08.2023) ही था इस लोकपर्व का वह दिन यहाँ। इस प्रकार उत्तराखंड में यहाँ बीते कल से ही भादो माह शुरू हो चुका है।

यहाँ के दोनों अंचलों - कुमाऊँ और गढ़वाल में - इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं। उड़द दाल को रात भर पानी में भींगोने के बाद सील-लोढ़े से या 'मिक्सी' में लुगदी की तरह गीला ही पीस कर उसमें आटा, सूजी, नमक, जीरा, अजवाइन-मंगड़ैला (कलौंजी), अपने अनुसार घी या तेल के मोयन और पानी डालते हुए हल्के नरम गुँथकर उनकी लोइयों से पूड़ी, पराठे या रोटी बनती हैं। कुछ लोग पीसे उड़द दाल को भर कर भरवा पूड़ी या रोटी भी बनाते हैं। उड़द दाल के सम्मिश्रण से ही बड़ा, पुए आदि भी बनते हैं। गढ़वाली भाषा के अनुसार मूला (मूली), लौकी (कद्दू / Bottle gourd), कद्दू (कोहड़ा / Pumpkin), तरोई (नेनुआ या घिया) और पिनालू यानि पत्यूड़ (अरबी) के गाबों (पत्तों) को मिलाकर सब्जी, विशेष तौर से लोहे की कढ़ाही में, बनायी जाती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी इलाकों से इतर कद्दू को लौकी और कोहड़े को कद्दू बोला जाता है .. ऐसा ही देखने-सुनने के लिए मिलता है यहाँ के बाज़ारों में। 
इसके अलावा अपने अनुसार पिसी हुई राई, हल्दी, नमक मिला कर ककड़ी या खीरा का रायता बनाया जाता है। पर हाँ .. राई की मात्रा इतनी तो पड़ती ही है, कि रायता का पहला निवाला मुँह में रखते ही नाक से लेकर दिमाग़ तक झनझना यानि सनसना जाए।

यहाँ कुमाऊँनी भाषा में कुल्थी को "गहत या गहथ" कहते हैं, इसी गहत और मक्के के सम्मिश्रण की भी कुछ लोग पकौड़ी बनाते हैं। अब अगर "पत्यूड़ संक्रांती" के अवसर पर "पत्यूड़ यानी पिनालू के गाबों" यानि मैदानी क्षेत्रों में "अरबी के पत्ते" कहे जाने वाले के और उड़द के दाल के "पात्यौड़" (पकौड़े) और उसकी सब्जी साथ में ना बनें तो "पत्यूड़ संक्रांती" भला मनेगा भी तो कैसे ?

साथ ही लाल चावल की गाढ़ी रबड़ीदार "बकली खीर" बनाई जाती है, जिनमें सिंझने यानि पकने के बाद ऊपर से घी डाला जाता है। कुछ लोग यहाँ के लोकप्रिय "झंगोरा" की खीर भी बनाते हैं।

"झंगोरा" या झिंगोरा के ज़िक्र होने पर प्रसंगवश ये बतलाते चलें कि देहरादून आने के पश्चात झंगोरे का भात खाना हमारी प्रतिदिन की दिनचर्या में शामिल है। ख़ास कर 'ब्रंच' में। यदाकदा इसी की खीर, इसी की खिचड़ी भी। वैसे भी गत बारह-तेरह सालों से मधुमेहग्रस्त होने के कारण यहाँ से पहले पटना में रहते हुए गत चार-पाँच सालों से चावल के विकल्प के रूप में स्थानीय बाज़ारों में आसानी से उपलब्ध नहीं होने के कारण सावाँ, कोदो, कंगनी, कुटकी और चीना के 'कॉम्बो पैक' तथा लाल व सफ़ेद क्विनोआ को प्रायः 'अमेजॉन' से 'ऑनलाइन'  मँगवा कर उपभोग करता था। कारण था या है भी कि इनमें चावल की तुलना में ज्यादा मात्रा में 'फाइबर' (रेशे) और 'कार्ब्स' ('कार्बोहाइड्रेट') कम मात्रा में पाया जाता है, जो मधुमेहग्रस्त व्यक्तियों के लिए लाभकारी होता है .. शायद ... पर यहाँ देहरादून में आसानी से झंगोरा या झिंगोरा उपलब्ध हो जाने कारण वो 'कॉम्बो पैक' को मँगवाना तो बंद कर दिया है, क्विनोआ भी कम ही खाना हो पाता है। यहाँ के बाज़ारों में चौलाई के बीज- राजगिरा या रामदाना के लावा की भी सहज उपलब्धता और उसकी पौष्टिकता अपनी ओर आकर्षित करती है।

उपरोक्त 'ब्रंच' (Brunch) जैसे अंग्रेजी शब्द का तात्पर्य है .. सुबह के नाश्ते और दोपहर के भोजन का मिलाजुला रूप। जो शायद अंग्रेजी के 'ब्रेकफास्ट' (Breakfast) और 'लंच' (Lunch) शब्दों की शिल्पकारी से जन्म लिया होगा। दस साल पूर्व लगभग इक्कीस-बाइस सालों की घुमन्तू नौकरी के दौरान सुबह होटल या 'पी जी' से 'ब्रंच' खाकर निकलने वाली आदत अब तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है।

धत् तेरे की !! ... अपनी एक और गंदी आदत के अनुसार वर्तमान के विषय से भटक ही गए हम तो .. ख़ैर ! .. "घी संक्रांति" की ही बतकही करते हैं फ़िलहाल तो ... तो इस अवसर पर उपरोक्त व्यंजनों के साथ-साथ मुख्य रूप से, जिनके घर में पालतू दुधारू मवेशी हैं, उनके स्वयं के घर में बने हुए शुद्ध घी, विशेष तौर से गाय के दूध से बने घी, का उपभोग किया जाता है। पर देहरादून जैसे शहरों में जिनके पास पालतू के नाम पर केवल कुत्ते हैं, तो .. उनके द्वारा तो बाज़ारों से ही उपलब्ध खुले स्थानीय 'डेयरी' वाले या कोई सीलबंद 'ब्रांडेड' घी का ही इस्तेमाल किया जाता है। गाय के घी को प्रसाद स्वरूप सिर पर भी रखा जाता है या माथे पर तिलक की तरह लगाते हैं। छोटे दुधमुँहे बच्चों के सिर में घी मला भर जाता है या उनके तालू में नाममात्र का स्पर्श कराया जाता है। "घी संक्रांति" के दिन, जिनको स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से घी-तेल की मनाही होती है, उनको भी पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार एक चम्मच घी खाना ही होता है।

वर्ना ...  यहाँ एक पुरानी मान्यता है कि जो इस दिन घी नहीं खाएगा, वह अगले जन्म में घोंघा यानि गढ़वाली भाषा में "गनैल" के रूप में जन्म लेता है। जिनका जीवन काफ़ी सुस्त और कुछ ही दिनों का होता है।

इस तथ्यहीन मान्यता के लिए वर्तमान में बुद्धिजीवियों का तर्क होता है कि बरसात के मौसम में जो लोग पानी बरसने से घर में ज्यादातर रहते हुए सुस्त हो जाते हैं और इस मौके पर बहुतायत से उपलब्ध हरे चारे को खाए मवेशियों द्वारा दुहे गये दूध में वसा और पौष्टिकता काफ़ी होती है, जिनसे बने घी को खाकर लोग आगामी शीत ऋतु के लिए पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त बनते हैं।
एक बार के लिए इस तर्क को तथ्यपरक अगर मान भी लिया जाए तो फिर भी हमें भावी पीढ़ियों को कम से कम मूलभूत बातों से .. तथ्यों से अवगत कराना चाहिए .. नाकि आधारहीन किंवदंतियों से भरी मान्यताओं को अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाए रखने वाले तर्क की आड़ में ज्यों का त्यों हम उनके समक्ष परोस दें। यह अंधपरम्परा को ढोने वाली कृति तो हम बुद्धिजीवियों के समाज के समक्ष एक यक्ष प्रश्न है .. शायद ... आख़िर हम .. अबोध शिशुओं के साथ-साथ युवाओं को भी चाँद की सत्यता ना बतला कर, जबकि युवाओं को चाँद की सत्यता हम से ज़्यादा मालूम है, कब तक "चन्दा मामा दूर के, पुए पकाए गुड़ के" .. गा-गा कर बहलाते-फुसलाते रहेंगें .. आख़िर कब तक ? .. भला कब तक ? ...














Thursday, August 17, 2023

पुंश्चली .. (६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३), पुंश्चली .. (४ ) और पुंश्चली .. (५ )  के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

अंजलि .. मुहल्ले भर के युवाओं और अर्द्धवयस्कों की भी भाभी या भौजी और वयोवृद्ध जनों के लिए "रजनवा बो" ( रंजन की बहू ) .. जो इसी मुहल्ले की शनिचरी चाची के घर में अपने गाँव से इस शहर में कुछ कमाने के उद्देश्य से आने के बाद से ही पिछले दस वर्षों से रह रहे रंजन के साथ सात साल पहले यहीं के एक विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र के लिए मान्यता प्राप्त आर्य समाज मन्दिर से ब्याह कर आयी थी। 

उस दिन मुहल्ले भर के स्कूल-कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों और जरूरी काम-पेशा या धंधे वालों को छोड़ कर लगभग सभी लोग इस शादी में शरीक़ हुए थे। महँगे 'कैटरिंग' और 'बुफे सिस्टम' में मुहल्ले भर को खिलाने के लिए ख़र्च करने की आर्थिक क्षमता नहीं होने के कारण रंजन ने अपनी शादी की ख़ुशी में शादी के बाद वाले रविवार को दोपहर में ही सभी की सहमति से मुहल्ले के सार्वजनिक मैदान सह पार्क में पत्तल-चुक्कड़ (कुल्हड़) वाली पंगत में सब को मान-सम्मान के साथ बैठा कर पूरे मुहल्ले भर को "पक्का भोज" करवाया था। 

प्रसंगवश बतलाता चलूँ कि "पक्का भोज" का मतलब ऐसे पके व्यंजनों वाले भोज के आयोजन से होता है, जिनको पकाने में घी-तेल या वनस्पति का इस्तेमाल किया जाता है। मसलन- पूड़ी, कचौड़ी, पराठे, बिरयानी इत्यादि और "कच्चा भोज" का तात्पर्य होता है .. बिना घी-तेल या वनस्पति के प्रयोग से बने व्यंजनों वाले भोज। मसलन- भात, दाल इत्यादि। 

रंजन तो .. दरअसल .. बिना किसी दक्षिणा-दान के बदले किसी भी 'पंडी जी' (पंडित जी) वाले पतरे से निकाले गये शुभ मुहूर्त के दिन को मालूम किए बिना ही आर्य समाज मन्दिर में शादी भी किया था। उसका कहना या मानना है कि - " हम इंसानों के जन्म और मृत्यु के दिन-समय का तो हमें पता ही नहीं होता, जो कि दोनों ही सबसे अहम् मौके होते हैं हमारे जीवन के .. संसार में आने वाला भी और संसार से जाने वाला भी मौका। फिर भला समस्त जीवन भर के अन्य आयोजनों के मुहूर्त को क्या जानना-समझना भला ? "  अपनी इसी मानसिकता के आधार पर वह रविवार के दिन भोज का आयोजन केवल इस कारण से तय किया, ताकि बिना किसी परेशानी के मुहल्ले के सारे लोग अपनी छुट्टी वाले दिन आराम से तनावमुक्त हो कर हँसी-ख़ुशी के साथ भोज में शरीक़ हो सकें। 

एक दिन पहले ही वह मन्टू और शनिचरी चाची के साथ में मिल कर मुहल्ले भर से बुलाए जाने वाले मेहमानों की 'लिस्ट' बुद्धनवा नाई और उसकी घरवाली रमरतिया को थमाकर, उनसे "चुल्हिया बुतान" न्योता दिलवाते हुए सभी को सपरिवार बुलवाया था। मुहल्ले वालों की सिफ़ारिश पर पतंजलि के 'राइस ब्रान रिफाइंड' में ही तली हुई गर्मा-गर्म पूड़ियाँ, हलवाई के बड़े कड़ाहा में ऊपर-ऊपर छहलाता पतंजलि के ही कच्ची घानी सरसों तेल और 'कैच' कश्‍मीरी लाल म‍िर्च के टहपोर लाल-लाल सम्मिश्रण में डूबा हुआ आलू-परवल का दम, बैंगन-बड़ी की मसालेदार लथपथ सब्जी, 'वनीला फ्लेवर' से महमहाती हुई एक तार की चाशनी में तर चम्पई रंग की बुनिया, जिनमें ऊपर से मिलायी गयी कुछ चटकीली कुसुम रंग की बुनिया .. ऐसी प्रतीत हो रही थी .. मानो चम्पई दुपट्टे पर कुसुम रंग के सलमा-सितारे जड़े हुए हों, साथ में मुहल्ले के ही बमबम हलवाई की दुकान का ताजा-गाढ़ा छालीदार दही, नमक-हरी मिर्ची और चीनी भी अलग से जिनको भी ऊपर से दरकार थी। साथ में कुल्हड़ में बमबम हलवाई की दुकान से आए जग से भर-भर के पीने के लिए 'सप्लाई' का पानी तो था ही। बमबम हलवाई की दुकान से ही सारा खाना बनाने वाले सारे कारीगर और सारे के सारे बर्त्तन भी आए थे। 

अब ... "चुल्हिया बुतान" जैसे शब्द से जो लोग परिचित हैं,  उनके लिए तो नहीं पर .. जिन पीढ़ी या समाज के लिए यह अंजान शब्द है .. उनको प्रसंगवश बतलाना लाज़िमी है कि ... दरअसल यह गँवई लोगों द्वारा व्यवहार में लाया जानेवाला शब्द है, परन्तु इसे गँवार लोगों की भाषा मानने की भूल हमें कतई नहीं करनी चाहिए, जिसे बिहार की राजधानी पटना जैसे शहर में भी मुहल्ले वाली संस्कृति में बचपन से सुनता आया हूँ .. जो धीरे-धीरे 'कॉलोनीयों' और 'सोसायटियों' वाली संस्कृति में ना जाने कब और कहाँ विलुप्त हो गयी .. बल्कि इन्हें गँवारों की बोली-भाषा करार कर दिए गये। ख़ैर ! ... "चुल्हिया बुतान" का शाब्दिक अर्थ होता है- चूल्हे को बुझा कर यानि जिनके घर जिस शाम/पहर के भोज का न्योता गया है, उस शाम उनके घर का चूल्हा नहीं जलेगा, बुझा रहेगा .. मतलब- समस्त परिवार भोज में आकर जीमेगें .. इसे ही आज हम तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत समाज वाले लोग अपनी गर्दन में कलफ़ लगाकर कहते हैं - 'इनविटेशन विथ फैमिली' .. शायद ...

भूरा, चाँद जैसे मन्टू के अच्छे-बुरे दिनों के संगी और दोस्त भी .. रसिकवा, रामचरितर, रामभुलावन, बुद्धनवा, उसकी घरवाली रमरतिया और उसके चारों बच्चे, परबतिया जैसे समाज के सहयोगी अंग या अंश .. मेहता जी, सक्सेना जी, वक़ील साहब, सिपाही जी जैसे मुहल्ले के गणमान्य लोग .. 'पी जी' की मालकिन- मोनिका भाभी और उनके सारे किराएदार मयंक, शशांक, निशा जैसे लोग ..  लगभग चार-सवा सवा सौ लोग अघा कर खाए थे। और तो और ... शशांक-मयंक से मिलने आये कॉलेज के कुछ मित्र भी, जो प्रायः रविवार को साथ-साथ मिलकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के तहत आपस में 'ग्रुप डिस्कशन' करने आते हैं और मेहता जी के घर पर उनके गाँव से आये हुए कुछ रिश्तेदार लोग भी इस "पक्के भोज" में जीमने आये थे। दरअसल ये रंजन की शादी के उपलक्ष में उसकी ओर से मुहल्ले भर को "पक्के भोज" का "चुल्हिया बुतान" न्योता जो था।  हाँ ...  कुछ रुपया कम पड़ गया था, तो उसने रसिकवा से उधार लिया था, पर इकरार किये गए समय पर उसे चूकता भी कर दिया था। 

रंजन .. दो भाईयों में बड़ा .. अपने गाँव के निकट वाले एकलौते कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक .. निचली कक्षा से स्नातक करने तक लगातार प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होने वाला विद्यार्थी .. परन्तु सरकारी नौकरी के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षा में फिसड्डी साबित हो गया था .. स्वाभाविक है जब किसी शैक्षणिक संस्थान में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा ना हो तो सारे कमजोर विद्यार्थियों के बीच एक औसत विद्यार्थी भी अपने आप को अव्वल समझने की ख़ुशफ़हमी पाल लेता है, जैसा कि प्रायः सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में देखा जा सकता है। ऐसी परिस्थिति में सरकारी नौकरी पाने या किसी उच्च प्रशिक्षण संस्थान में नामांकन पाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने के बाद असफल विद्यार्थी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं .. फिर .. ऐसे में पड़ोसी-रिश्तेदार सभी उसका उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़कर .. उसकी कुंठा बढ़ाने के लिए आग में घी का काम करते हैं .. इसी कुंठा के कारण कई बार उस असफल विद्यार्थी को आत्महत्या तक करने की नौबत आ जाती है।

रंजन भी अपनी शैक्षणिक शिक्षा के दौरान लगातार साठ प्रतिशत के आसपास अंक प्राप्त करके सभी वर्गों में प्रथम आने पर अपनी योग्यता को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठा था। 

हालांकि उसी के गाँव का सुधीर, साथ में पढ़ने वाला .. साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए जरूरी 'फॉर्म' भरने वाला .. साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने वाला .. प्रतियोगी परीक्षा में रंजन से कम 'नम्बर' लाकर भी अनुवांशिकता के आधार पर विरासत में मिले जातिगत आरक्षण के आधार पर एक प्रखंड में किरानी की सरकारी नौकरी पा गया था। गाँव-घर के लोग उस के बाद तो रंजन को बात-बात में और भी ताना देने लगे। ऐसे में अभिभावक भी तथ्य से अनभिज्ञ होते हुए भी कोसने से कभी भी बाज नहीं आते हैं।

अंत में आजिज़ हो कर वह अपने पिता जी, जो तब जीवित थे, से कुछ रुपया लेकर पास के इसी शहर में नौकरी की तलाश में आ गया था। गाँव पर छोटा भाई और पिता जी रह गए थे। माँ तो बचपन में ही गुजर गयीं थीं। पिता जी गाँव में ही शुरू से स्वर्ग सिधारने तक बटाईदारी का काम करते आए थे। छोटा भाई गाँव में ही अब अपने उसी झोपड़ीनुमा घर के एक कोने में परचूनी दुकान खोल कर अपना और अपने परिवार, पत्नी और एक बेटी, का गुजारा करता है। इधर शहर आकर इधर-उधर भटकने के बाद रंजन को मन्टू से ही पता चला था कि उसी शहर का एक अमीर कबाड़ी वाला दस-बारह हवा-हवाई यानि 'एलेक्ट्रिक ऑटो रिक्शा' जरूरतमंदों को जीवकोपार्जन के लिए भाड़े पर चलाने के लिए देता है। 

दरअसल .. रंजन की मन्टू से एक शाम बाज़ार में एक चाय की दुकान पर मुलाक़ात हुई थी। उस शाम रंजन बैठा चाय के साथ-साथ आहिस्ता-आहिस्ता अपनी उदासी का घूँट भी निगल रहा था। मन्टू भी कभी इसी तरह अपनी गाँव से आया था इस शहर में और कई दिनों तक भटकने के बाद इसी कबाड़ी वाले की हवा-हवाई किराए पर लेकर चलाता था, फिर कई वर्षों बाद एक 'शोरूम' में किसी 'कम्पनी' द्वारा कुछ आवश्यक कागज़ात जमा कर क़िस्तों पर हवा-हवाई उपलब्ध कराए जाने पर अपनी गाड़ी ले लिया था। अपने संघर्षमयी दिनों के मुख्य क़िरदार रहे मन्टू की पारखी नज़र रंजन को अपने भरसक स्नेहिल शब्दों के साथ टोकने से नहीं रोक पायी थी। मन्टू के स्नेहिल हाथ अपने कंधे पर महसूस करते ही रंजन तो जैसे तंदूर से फ़ौरन निकली किसी गर्म रोटी पर रखी मक्खन की डली की तरह पिघलता ही चला गया और बचपन में होश सम्भालने से लेकर अब तक की अपने साथ घटी सारी अच्छी-बुरी घटनाओं को बकबका कर ही दम लिया। इस क्रम में दोनों दो-दो कप चाय पी चुके थे। रात के नौ बजने वाले थे .. कुछ पता नहीं चला दोनों को वक्त कैसे गुजर गया। तब उस शाम चारों चाय की क़ीमत सहानुभूतिवश मन्टू ही अदा किया था। समानुभूतिवश मन्टू उसी शाम रंजन को अपने डेरे पर ले आया था।

तीन वर्षों में हवा-हवाई की उधारी की सारी क़िस्तें चुकता हो जाने पर दिन भर की होने वाली सारी कमाई मन्टू के जेब में ही आने लगी थी। तब इसकी उसी मकानमालकिन- शनिचरी चाची के साथ-साथ पूरे मुहल्ले वालों ने मन्टू को शादी कर लेने पर काफ़ी ज़ोर दे डाला था। यहाँ तक कि शनिचरी चाची ने तब उसे डरा कर ब्याह के लिए राज़ी करने के उद्देश्य से किसी परिवार वाले को ही घर में रखने की बात कर के उसके कुँवारे होने के कारण घर खाली करने के लिए झूठी धमकी तक दे डाली थी। ऐसे में मन्टू घर छोड़ने तक के लिए हामी भर दिया था, पर अपनी शादी के लिए टस से मस नहीं हुआ था। अंत में मुहल्ले वालों के साथ-साथ हार कर शनिचरी चाची भी चुप्पी साध लीं थीं। घर से मन्टू को निकालना उनका मक़सद था भी तो नहीं, सो .. मन्टू अब तक उन्हीं के घर में रहता आ रहा है और उस शाम साथ में लाया गया रंजन भी रहता था।

हालांकि रंजन की शादी के बाद इनके घर के अलग हिस्से में किराए पर रंजन और अंजलि को मन्टू ही रखवाया था। पर एक ही घर में दोनों के बाहर आने-जाने का रास्ता और घर-आँगन अलग-अलग था। बीच वाले हिस्से में शनिचरी चाची ख़ुद रहती हैं। 

शनिचरी चाची के पति की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के बाद से अकेली प्राण .. इन्हीं लोगों के किराए के बल पर इनका पेट पलता है। पति शहर की एक 'ब्रांडेड' कपड़े की दुकान में काम करते थे .. एक दिन देर रात 'शोरूम' बंद होने के बाद साइकिल से घर लौट रहे थे .. रास्ते में एक तेज रफ़्तार ट्रक वाले ने कुचल दिया था। लाश केवल कपड़े से पहचानी जा सकी थी। 

बाक़ी .. चाची की शादी के बीस-इक्कीस साल के बाद भी उनको कोई संतान नसीब नहीं हो पायी थी। बहुत जादू-टोना, झाड़-फूँक, गण्डा ताबीज़, पूजा-पाठ करवाया शनिचरी चाची ने, कुछ अपने पति की जानकारी में और कुछ उनसे छुपा कर भी, पर उनकी कोख़ में पति की सौग़ात को पनपने का अवसर नहीं ही मिल पाया। मुहल्ले की औरतों के लिए सुबह-सुबह इनका मुँह देख लेने से या किसी शुभ काम के लिए जाते हुए सामने से देख लेने भर से "जतरा" ख़राब हो जाता है .. किसी गर्भवती औरत पर इनकी नज़र पड़ जाने से गर्भपात होने की आशंका बनी रहती है। मतलब .. जितने मुँह, उतनी बातें। पीठ पीछे मुहल्ले की औरतें अपनी आपसी बातचीत में उन्हें बाँझिन चाची नाम से चर्चा करने में तनिक भी नहीं हिचकती थीं और अब तो राँड कहने में भी नहीं गुरेज़ करती हैं। 

अब प्रसंगवश "जतरा" शब्द का मतलब भी बतलाना पड़ेगा .. ऐसा हमको नहीं लगता .. शायद ...

मन्टू की शादी ना करने की अटल ज़िद्द की वज़ह भी कुछ कम मनोरंजक या यूँ कहें कि कम दर्द भरी नहीं है और एक पन्तुआ से रंजन व अंजलि की हुई पहचान के बाद बढ़ी आपसी घनिष्टता से शादी तक की आयी नौबत की घटनाएँ भी कम दिलचस्प नहीं हैं .. पर आज तो बहुत सारी बतकहियाँ हो गयीं हैं .. अब शेष बतकहियाँ ...

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Sunday, August 13, 2023

"पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

वर्तमान में दिवसों के दौर के कारण मुझ मूढ़ को 'सोशल मीडिया' और 'गूगल' के सौजन्य से इसी (2023) 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस" के रूप में मनाए जाने वाली बात की जानकारी हुई, जो कि कुछ दशकों पहले से ही मनाया जा रहा है। चूँकि इसकी विस्तृत जानकारी पहले से ही उपलब्ध और सर्वविदित है, तो इस विषय पर अभी कोई भी चर्चा बेमानी ही होगी। 

अनुमानतः इस वर्ष भी अन्य दिवसों की तरह इस "विश्व आदिवासी दिवस" की भी कई जगहों पर किसी वातानुकूलित कक्ष के अंदर चंद बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में गर्मागर्म चाय-समोसे के साथ औपचारिकता पूरी कर ही ली गयी होगी .. शायद ...

बचपन में तत्कालीन बिहार (बिहार+झाड़खण्ड) की राजधानी पटना की सड़कों-बाज़ारों, गली-मुहल्लों में घुम-घुम कर सखुआ/साल के पेड़ों की पतली टहनियों की दातुनों के पुल्लों के गट्ठर अपने सिर पर उठाए हुए उसे बेचती काली-काली आदिवासी महिलाओं को देखकर या काले रंग के ही आदिवासी पुरुषों को अपने कंधे पर लादे बहँगी पर इन्हीं पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तलों के पुलिंदों के थाक को लेकर घुम-घुम कर कौड़ी के मोल बेचते देख कर इनकी एक अलग ही छवि बनी थी मन में। वही छवि तब बदल गयी थी, जब घुमन्तु नौकरी के अंतर्गत राँची और  जमशेदपुर शहर और उसके आसपास के जिलों में भी यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। तत्कालीन बिहार के राँची-जमशेदपुर के आसपास के वही सारे जिले मिलकर बाद में 15 नवम्बर, 2000 के दिन से झारखंड राज्य के अंतर्गत माने जाने लगे।

लगभग 30 साल पहले विशेषतौर पर तत्कालीन बिहार के राँची में अवस्थित 1988 में ही बने 'मार्केट कॉम्प्लेक्स कल्चर' वाले पहले तीन मंजिले "जीईएल चर्च कॉम्प्लेक्स" में या 'गोस्सनर कॉलेज" के प्राँगण या आसपास में या फिर लगभग डेढ़ सौ साल पुराने "फिरायालाल मार्केट काम्प्लेक्स" के नाम से प्रसिद्ध चौक- फिरायालाल चौक के आसपास में आदिवासी युवाओं को उनके आधुनिकतम परिधानों, केश-विन्यासों वाले आधुनिक रूपों में देख कर भौंचक्का रह जाना पड़ा था। यही फिरायालाल चौक बाद में 1971 वाले भारत-पाकिस्तान युद्ध के शहीद और मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित अल्बर्ट एक्का के सम्मान में "अल्बर्ट एक्का चौक" के नाम से जाना जाने लगा है। हालांकि उन 21-22 सालों के दौरान नौकरी के तहत समस्त झाड़खंड में भ्रमण करने पर यह अनुभव या जानकारी हुई कि इनकी इस आधुनिक तरक्की में ईसाई धर्म प्रचारकों का बहुत बड़ा हाथ है। अगर हम कहें कि सरकार या समाज से भी ज्यादा है, तो हमको कोई गुरेज़ नहीं होनी चाहिए .. शायद ...

प्रसंगवश अगर बोलें तो उन दिनों में जब हमारा समाज 'कैटरिंग' और 'बुफे सिस्टम' जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था, तब उन प्राकृतिक पत्तलों का बहुत ही महत्व था। अवसर चाहे छट्ठी- मुंडन का हो, शादी-श्राद्ध का हो या किसी तीज-त्योहार के अवसर पर विशेष भोजन (भोज) का या फिर जनेऊ-ख़तना का हो; हर अवसर पर महत्वपूर्ण थे वो प्राकृतिक पत्तल। हम यूँ भी कह सकते हैं कि पत्तल तब के समय में हम बच्चों या बड़ों के मन में भी भोज का प्रयायवाची शब्द बने हुए थे। इसके अलावा पूजा-कथा के बाद प्रसाद वितरण भी इन्हीं पत्तलों की सींकों को निकाल-निकाल कर एक-एक पत्ते को अलग करके, उससे बनाए गये शंक्वाकार दोने में किया जाता था। विशेष कर पाँच अध्यायों वाली तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के बाद आरती, हवन और मौली सूत बाँधने-बँधवाने की धार्मिक या औपचारिक प्रक्रिया के बाद बँटने वाले प्रसाद के लिए या फिर 'सरसत्ती' (सरस्वती) पूजा या दुर्गा पूजा जैसे मूर्ति पूजा वाले त्योहारों के प्रसाद के लिए भी। हाँ .. 'चरनायमरीत' (चरणामृत) के लिए अपने-अपने चुल्लू से काम चलाया जाता था या सम्भवतः आज भी चलाया जाता है  .. शायद ...

कई वर्गों में बँटे आदिवासी समुदाय अगर समस्त विश्व भर में ही विराजमान हैं, तो स्वाभाविक है कि हमारे स्वदेश भारत में भी लगभग सभी राज्यों में ही कमोबेश आदिवासी जनसंख्या हैं। हालांकि भारत में सबसे ज्यादा इनकी जनसंख्या मध्य प्रदेश राज्य में है। नौकरी के दौरान ही उत्तराखंड आने के बाद केवल काले रंग वाले आदिवासियों की छवि में भी एक बदलाव आया, कि आदिवासी अपने परिवेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार गोरे भी होते हैं। कुछ मायनों में इस समुदाय का एक हिस्सा हमारे तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज से भी तब बढ़ कर प्रतीत होता है ; जब ज्ञात होता है कि ये लोग सरना धर्म को मानते हैं, जिसके अंतर्गत मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, बल्कि प्रकृति की पूजा करते हैं। इसके अलावा आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी व्याप्त औरतों-मर्दों के बीच की झेंप, पर्दे या भेद जनित कुंठाएँ प्रायः इनके आपसी समाज में देखने के लिए नहीं ही मिलते हैं .. शायद ...

हमारी 21-22 साल घुमन्तु नौकरी के दौरान आदिवासी बहुल समस्त झाड़खंड (तात्कालिक बिहार के हिस्सों) में की गयी यात्रा के अनुभवों से मिली अनुभूतियाँ और जानकारियाँ हमारी इन निम्न दोनों बतकहियों की प्रेरणास्रोत हैं और इस बार "विश्व आदिवासी दिवस" की जानकारी एक उत्प्रेरक की तरह। अनुभूतियाँ और जानकारियाँ .. मसलन .. राँची से बस द्वारा जलेबिया घाटी होते हुए चाईबासा जाने के क्रम में बस की यात्रा के दौरान रास्ते में बस की क्षमता से अत्यधिक स्थानीय सवारियों को कोंचे जाने पर, बाद में चढ़े हुए खड़े (या खड़ी) यात्रियों के मेरे जैसे राँची से खुली बस में सीट पर बैठे यात्रियों के देह पर सवार होने जैसी परिस्थिति आम बात थी। ऐसे में इनकी लाख साफ़-सफ़ाई के बावजूद एक विशेष प्रकार की इनकी सल्फ़र-सी नस्लीय तीखी गंध साँसों में समाने पर लगभग असहज-सा कर जाया करती थी या फिर जमशेदपुर (टाटानगर) से चाईबासा तक बस में या रेल से जाने पर भी .. शायद ...

परन्तु आज ग्लानि होती है .. उनसे घृणाभाव रखने वाले अपने उन घृणास्पद कृत्यों पर .. क्योंकि समस्त प्राणी एक ही धरती, एक ही प्रकृति की उपज हैं। वही प्रकृति .. जिसे हम भगवान, अल्लाह या गॉड के नाम से जानते हैं। फिर भला विधाता की कृतियों से घृणा कैसी ? .. जबकि हमारी शारीरिक बनावटों, रंगों या गंधों में अंतर के लिए भौगोलिक परिस्थितियाँ ही उत्तरदायी हैं।

पर हम तो .. उस समाज की अपभ्रंश उपज हैं, जो हमारी त्वचा से 'मेलेनोसाइट्स' नामक कोशिकाओं की कमी से सफ़ेद दाग़ या फिर 'हार्मोन्स' के असंतुलन की वजह से माँ के गर्भ में दोषपूर्ण जननांग के निर्माण जैसी शारीरिक त्रुटियों को तथाकथित पूर्वजन्म के कर्मों का फल बतला कर उन्हें अपने तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत और बुद्धिजीवी समाज से नकारने में हम तनिक भी हिचकते नहीं हैं .. शायद ...

झारखंड के तमाम आदिवासी बहुल जिलों .. गुमला, खूँटी, चक्रधरपुर, गढ़वा, चतरा, लातेहार, लोहरदग्गा, सिमडेगा, सराइकेला-खरसावाँ की यात्रा के दौरान इनके रहन-सहन, पहनावा, वेष-भूषा, भाषा-बोली, खान-पान, पारंपरिक त्योहारों के उत्सव .. इन सभी के प्रत्यक्षदर्शी बनने के अवसर मिलते रहते थे। 

हमारी दोनों बतकहियाँ झारखंड के शहरों से सुदूर स्थानों के उसी आदिवासी समाज को परिलक्षित कर के बकी गयीं हैं .. बस यूँ ही ...

(१) "पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

उपकार है तुम्हारा, है हम पर कृपा बड़ी,

बिना 'फेयरनेस क्रीम' पोते ही

काली नस्ल पा गयी हमारी उजली चमड़ी .. बस यूँ ही ...से


हलाक कर पके मेरे देसी मुर्गे या बकरे पहले, 

किए हलक से नीचे महुआ* के सहारे, कभी हड़िया* के।

'सेफ्टीपिन' निकाली ढिठाई से मेरी कुरती की,

फिर निकालने वास्ते दाँतों में फँसे रेशे मुर्गे के ..बस यूँ ही ...


हर रात पलानी में पुआल की

बुलाते हो, ना छागल पहने आऊँ अपने पाँव,

ताकि पगडंडी पर चल आऊँ जब भी,

झँझोड़े-भँभोरे देह मेरा तू तो जाने ना गाँव .. बस यूँ ही ...


उतारे तहमत मेरे तुम जब कभी भी

तब-तब हुए तुम भी नंगे, है वर्दी तेरी उतरी,

छोड़ते बदले में हँसता एक खद्दड़धारी

देह के मेरे, हर रात उतरती है खद्दड़ तेरी भी .. बस यूँ ही ...


झटके से तेरे, टूटने पर टुटही खाट की रस्सी, 

गिरी थी धम्म से पीठ के बल एक दिन मैं ही तो नीचे

और ऊपर सवार रहे भँभोरते तुम तब भी,

फ़ारिग होने तक बहते लावे से,अपने अंदर के.. बस यूँ ही ...


बास मारती गंधी कीड़े-सी काँख हमारी,

कह कर कुछ फ़ुस्स-फुस्साते हो पहले हम पर हर बार,

पर डकार तेरी .. मुर्गे-दारू, खैनी और बीड़ी की,

झेलनी पड़ती मुठ्ठी भींचे, बिन किए प्रतिकार .. बस यूँ ही ...


ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

बस .. बसा रहे हैं हम तो, तू तो चाट रहे बारम्बार..

गंधी कीड़े-सी फ़सल समाज की।

"पाश" की नहीं, "पाशा" की है यहाँ दरकार .. बस यूँ ही...


(२) सदियों से ससुरा भगवान ...

गाँठें मन की हों,

ख़ास कर तब ..

जब हों अपनों के ही बीच,

या गाँठें हों बुढ़ापे में 

सिकुड़ती नसों की,

ख़ास कर तब ..

जब अपने ना हों नज़दीक,

या फिर हों गाँठें सलवार में,

चीथड़े हुए तहमत के कोर से 

बटे नाड़े की, ख़ास कर तब ..

जब ऊबाल खा रहें हों 

गर्म-गर्म लावे नसों में,

किसी खद्दड़धारी या

खाक़ीधारी के बदन के।


सिपाही हो या नेता उस दम

गुजरता है उनको नागवार।

चुभती तो हैं हमें भी तब

खाट की रस्सियों की गाँठें 

हमरी पीठ में बारम्बार।

ना जाने कैसे भला 

गठबंधन से बन जाती है

देश में एक मज़बूत सरकार ?

पलायन किया हुआ 

सदियों से ससुरा भगवान 

कभी भूले से जो लौटे धरा पर

और जो दिख जाए कहीं भी,

होगा उससे मेरा पहला सवाल .. 

नासपीटा कैसा है वो फनकार ?

【 • = महुआ और हड़िया .. दोनों ही देसी दारु के प्रकार हैं, जो क्रमशः महुआ और चावल से आदिवासियों द्वारा किण्वन करके लघुउद्योग की तरह घर-घर में तैयार किया जाता है। 】