पोखरों में सूने-से दोनों कोटरों के,
विरहिणी-सी दो नैनों की मछली।
मिले शुष्क पोखरों में तो चैन उसे,
तैरे खारे पानी में तब तड़पे पगली।
ताने तिरपाल अपने अकड़े तन के,
यादों में पी की बातें बीती पिछली।
कैनवास पर खुरदुरे-रूखे गालों के,
खींचे अक़्सर अँसुवन की अवली।
बाँधे गठरी हर पल पल्लू में अपने,
भर-भर कर बूँदें आँसू की बावली।
डालें गलबहियाँ पल्लू उँगलियों में,
मची हो मन में जब-तब खलबली।
काश ! बुझ पाती चिता संग पी के,
सुलगन मीठी बेवा के तन-मन की।
ना संदेशे, लगे अंदेशे, कई पीड़ाएँ,
झेलती विरहिणी बेवा-सी बेकली।