टहनियों को
स्मृतियों की तुम्हारी
फेंकता हूँ
कतर-कतर कर
हर बार,
पर नासपीटी
और भी कई गुणा
अतिरिक्त
उछाह के साथ
कर ही जाती हैं
मुझे संलिप्त,
हों मानो वो
टहनियाँ कोई
सुगंध घोलते
ग़ुलाबों की .. शायद ...
काश ! .. हो पाता
सहज भी
और सम्भव भी,
फेंक पाना एक बार
उखाड़ कर
समूल उन्हें,
पर यूँ तो
हैं अब
असम्भव ही,
क्योंकि ..
जमा चुके हैं जड़
उनके मूल रोमों ने
समस्त शिराओं
और धमनियों में
हृदय की हमारी .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 14 मार्च 2023 को साझा की गयी है
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को मंच प्रदान करने के लिए ...
Deleteबहुत बढ़िया बतकही।
ReplyDeleteजी ! .. 🙂
ReplyDeleteनमन संग आभार आपका ...🙏
हृदय की धमनियों और शिराओं मे जड़ जमा चुकी यादों को भला बाहर फेंकना ही क्यों.....
ReplyDeleteजगह दे ही दें इन्हें मन मस्तिष्क में भी...शायद...
लाजवाब सृजन ।
जी ! नमन संग आभार आपका ... अब तो ये इस बतकही के उस पात्र की मनोदशा पर निर्भर करेगा .. शायद ...
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