(१)
सोचों की ज़मीन पर
धाँगती तुम्हारी
हसीन यादों की
चंद चहलकदमियाँ ..
उगने ही कब देती हैं भला
दूब उदासियों की ..
गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत
सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ .. बस यूँ ही ...
(२)
देखता हूँ जब कभी भी
झक सफेद बादलों के
अक़्सर ओढ़े दुपट्टे
यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..
गुमां होता है कि निकली हो
संग सहेलियों के तुम
मटरगश्ती करने
शहर भर के सादे लिबासों में .. बस यूँ ही ...
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
जी ! सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. अपने मंच पर मेरी बतकही को मौका देने के लिए .. बस यूँ ही ...
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. अपने मंच पर मेरी बतकही को मौका देने के लिए .. बस यूँ ही ...
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. वैसे तो सच में "सुन्दर" तो समस्त उत्तराखंड है, जो ऐसी बतकही बकवा रहा है :) :)
Deleteव्वाहहहहहह
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका और "वाहह्ह्ह्ह्" आपके मंच का जो मेरी बतकही को निरंतर मौका देता है .. शायद ... :)
Deleteक्या कहने
ReplyDeleteप्रकृति और प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति
देखता हूँ जब कभी भी
ReplyDeleteझक सफेद बादलों के
अक़्सर ओढ़े दुपट्टे
यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..
वाह!! अनुपम रूपक का प्रयोग किया है आपने इस सुंदर रचना में
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति । प्रजेआति में प्रेम या प्रकृति से प्रेम ...... लाजवाब
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भावों से भरा सकारात्मक ऊर्जा में लिपटा सराहनीय सृजन।
ReplyDeleteउगने ही कब देती हैं भला
दूब उदासियों की ..बेहतरीन सर 👌
बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह......अति सुन्दर
ReplyDeleteवाह......अति सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर भावों से परिपूर्ण रचना, सुबोध भाई।
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