अक़्सर .. अनायास ...
कुम्हला ही जाता है चेहरा अपना,
जब कभी भी .. सोचता हूँ जानाँ,
कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की
विरुद्ध हुई मन के तुम्हारे
बात पर किसी भी।
हो मानो .. आए दिन
या हर दिन, प्रतिदिन,
किए हुए अतिक्रमण
किसी 'फ्लाईओवर' के नीचे
या फिर किसी 'फुटपाथ' पर,
देकर रोजाना चौपाए-से पगुराते
गुटखाभक्षी को किसी,
कानूनी या गैरकानूनी ज़बरन उगाही,
सुबह से शाम तक बैठी,
किसी सब्जी-मंडी की
वो उदास सब्जीवाली की
निस्तेज चेहरे की कुम्हलाहट।
देर शाम तक टोकरी में जिसकी
शेष बचे हों आधे से ज्यादा
कुम्हलाए पालक और लाल साग,
तो कभी बथुआ, खेंसारी या चना के,
या कभी चौलाई या गदपूरना के भी साग,
अनुसार मौसम के अलग-अलग।
और तो और ..
मुनाफ़ा तो दूर, पूँजी भी जिसकी
देर शाम तक भी हो ना लौटी।
तो तरोताज़े साग-सी,
मुस्कराहट सुबह वाली जिसकी,
देर शाम तक तब
शेष बचे कुम्हलाए साग में हो,
जो यूँ बेजान-सी अटकी।
सोचती .. बुझेगी भला आज कैसे ..
बच्चों के पेट की आग ?
बेसुरा-सा हो जिस बेचारी के
जीवन का हर राग .. बस यूँ ही ...
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