Saturday, April 3, 2021

रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी ...

लौट रहीं थीं इसी साल आठ मार्च को 

तीन षोडशी सहेलियाँ देर रात,

अपने-अपने घर करती हुई हँसी-ठिठोली 

और करती हुई आपस में कुछ-कुछ बात,

मनाए गए उस रोज अपने ही कॉलेज में 

देर रात तक "महिला दिवस" के 

उत्सव की सारी बातें कर-कर के याद।

रामलीला पर आधारित हुई थी 

एक नृत्य-नाटिका भी जिसमें,

जिसमें इन तीनों में से एक सहेली 

लौटी थी कर अभिनय माता सीता की

और थी बनी दूसरी कार्यक्रम के आरम्भ में 

हुई सरस्वती-वंदना की माँ सरस्वती।

फिर बाद जिस के हुए राष्ट्रीय गान के दौरान

मंच पर तिरंगा लिए भारत माता बनी थी तीसरी ...


तीनों षोडशी सहेलियाँ एक ही मुहल्ले की, 

मुहल्ले के पास अपने-अपने घर की ओर 

थीं जा रही सार्वजनिक परिवहन से 

उतर कर पैदल एक साथ ही।

बहती फगुनाहट वाली हवा में बासंती मौसम की 

एक पंडाल के नीचे हो रहे जगराते के कानफाड़ू

शोर के सिवा सारी गलियाँ मुहल्ले की वीरान थीं।

सिवा उस पंडाल के चहल-पहल के निर्जन थी 

कृष्ण-पक्ष की वह काली रात भी .. तभी ..

तथाकथित मर्दानगी का दंभ भरने वाले 

चंद लोग पोटली ढोए साथ अपने शुक्राणुओं की,

ढूंढते हुए बहाने के बहाने अनगिनत घिनौने

शुक्राणुओं के परनाले अपने जैसे ही,

बस .. टूट पड़े पा कर मौका उन तीनों पर 

दिए बिना मौका उन्हें वो सारे दरिन्दे अज्ञात ...


कर दिए मुँह तीनों के बन्द लगा कर अपने मज़बूत हाथ,

धर दबोचा तीनों को सबने मिल कर अकस्मात .. 

अब भला ... जज़्बात की 

ऐसे में क्या होती भला औक़ात ...

उन लफ़ंगों से चिरौरी करती उन तीनों की 

घुंट गई चीखें भी लाउडस्पीकर की बनी श्रृंखलाओं से 

गूँजती कानफाड़ू शोर में जगराते की।

क्षत-विक्षत कर दिए गए कपड़ों में क्षत-विक्षत

शीलहरण हो चुकी रक्तरंजीत देह थी पड़ी तीनों की।

तुलसीदास की उस किताबी सीता से इतर थी

शैतानों के चंगुल में कसमसाती माता सीता।

पास ही दर्द से थी तड़पती अभी भी बनी हुई

सरस्वती-वंदना वाले लिबास में ही सरस्वती माता,

जो रक्त-पीड़ा की जुगलबंदी उस दिन सुबह से ही 

थी झेल रही अपने माहवारी की और ...


और भी अब नहा गयी थी रक्त में अपने ही मानो ..

अपने ही रक्त में रक्तरंजित बलि या क़ुर्बानी के 

छटपटाते किसी बकरे की जैसी।

दर्द से कराहती, बेहोशी में कुछ बुदबुदाती,

मुट्ठी में अपनी अभी भी थी जकड़ी तह लगा  

तिरंगा राष्ट्रीय गान वाली वह भारत माता।

ज़बरन छीन कर फिर उसी तिरंगे से 

पोंछा था पापों को बारी-बारी अपने-अपने 

हैवानियत की हर हदों की भी हदें पार करते दरिंदों ने।

पर उन षोडशियों को बचाने ना आए अंत तक

कोई सतयुग के राम, ना त्रेतायुग, ना द्वापरयुग और ... 

ना ही कोई कलियुग के राम।

होता रहा, हो गया, बेदाम ही नीलाम उनका एहतराम,

ना आना था और ना ही आए बचाने 

उस दिन के रामलीला वाले भी राम .. शायद ...




12 comments:

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार ३ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

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  3. उफ्फफफ
    अफसोसनाक
    सादर

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ...

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  5. पंथ के नाम पर तो,
    थाम लेते है 47।
    47 के बाद भी आज,
    बारूदों के बर्बर दल
    ये क्रांतिकारी नक्सल।

    करते परिवर्तन का मार्च!
    काठ क्यों मार जाता!
    बन जाते ये नपुंसक!
    8 मार्च की रात।

    उतार देते घाट,
    मौत की उन दरिंदों को।
    बन जाते कलियुग के
    कल्कि अवतार।

    भला कब तक
    पुनरावृति होती रहेगी?
    चीखने चिल्लाने की,
    कविताओं और लेखों में,
    मद में मातमपुर्सी के
    उन बेटियों की चीत्कार।
    और करते रहेंगे!
    ये बुद्धि जीवी तिजारती
    बस! राम और रावण का व्यापार।
    🙏🙏🙏

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    1. सन् 1947 ईस्वी हो या फिर ए. के. 47, ये जो 47 है ना साहिब!
      अक़्सर ही सजाता रहा है मौत और मातम का बेहिसाब ज़खीरा।

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  6. बहुत ही दारुण दृश्य। काश ये दृश्य कभी यो बदले।

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    1. जी ! नमन संग आभार आपका ... काश !!! ...

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