समान है दोनों में शिला
पर एक सफ़ेद क़ीमती
मकराना की शिला
तो दूसरी गहलौर के
पहाड़ की काली शिला
समान हैं दोनों में बाईस वर्ष
पर एक में जुड़वाता
बीस हज़ार मज़दूरों से
सम्पन्न बादशाह शाहजहाँ और
दूसरे में तोड़ता एक अकेले
अपने दम पर विपन्न मज़दूर
दिहाड़ी वाला दशरथ माँझी
एक अपनी कई बेगमों में
एक बेगम - मुमताज़ महल की
लम्बी बीमारी के दौरान किए
अपने वादे के लिए
उसके मरने के बाद
बनवाया यादगार .. नायाब और
सात अजूबों में एक अजूबा
मक़बरा ताजमहल जुड़वा कर शिला
जिसे निहारते पर्यटक रोज-रोज
देकर एक तय शुल्क देने के बाद
दूसरा अपनी इकलौती पत्नी
साधारण-सी फ़ाल्गुनी देवी के
पहाड़ के दर्रे से गिरकर मरणोपरान्त
स्वयं से किया एक 'ढीठ' वादे के साथ
अपनी छेनी-हथौड़े के बूते ही रच डाली
दो प्रखण्डों के बीच दूरी कम करती
एक निःशुल्क सुगम राह सभी
ख़ास से लेकर आमजनों के लिए
दो-दो प्रेम-प्रदर्शन ...दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला
एक में जुड़ती शिला ... तो एक में टूटती शिला
एक सम्पन्न बादशाह तो एक विपन्न मजदूर ...
शिला जुड़वाता बादशाह तो तोड़ता मज़दूर
दोनों ही अपनी-अपनी चहेती के मरणोपरान्त
क्यों मुझे लग रहा बादशाह होता हर तरह से
एक अदना मज़दूर के प्रेम-प्रदर्शन से परास्त !?
पर एक सफ़ेद क़ीमती
मकराना की शिला
तो दूसरी गहलौर के
पहाड़ की काली शिला
समान हैं दोनों में बाईस वर्ष
पर एक में जुड़वाता
बीस हज़ार मज़दूरों से
सम्पन्न बादशाह शाहजहाँ और
दूसरे में तोड़ता एक अकेले
अपने दम पर विपन्न मज़दूर
दिहाड़ी वाला दशरथ माँझी
एक अपनी कई बेगमों में
एक बेगम - मुमताज़ महल की
लम्बी बीमारी के दौरान किए
अपने वादे के लिए
उसके मरने के बाद
बनवाया यादगार .. नायाब और
सात अजूबों में एक अजूबा
मक़बरा ताजमहल जुड़वा कर शिला
जिसे निहारते पर्यटक रोज-रोज
देकर एक तय शुल्क देने के बाद
दूसरा अपनी इकलौती पत्नी
साधारण-सी फ़ाल्गुनी देवी के
पहाड़ के दर्रे से गिरकर मरणोपरान्त
स्वयं से किया एक 'ढीठ' वादे के साथ
अपनी छेनी-हथौड़े के बूते ही रच डाली
दो प्रखण्डों के बीच दूरी कम करती
एक निःशुल्क सुगम राह सभी
ख़ास से लेकर आमजनों के लिए
दो-दो प्रेम-प्रदर्शन ...दोनों प्रेम-प्रदर्शन में शिला
एक में जुड़ती शिला ... तो एक में टूटती शिला
एक सम्पन्न बादशाह तो एक विपन्न मजदूर ...
शिला जुड़वाता बादशाह तो तोड़ता मज़दूर
दोनों ही अपनी-अपनी चहेती के मरणोपरान्त
क्यों मुझे लग रहा बादशाह होता हर तरह से
एक अदना मज़दूर के प्रेम-प्रदर्शन से परास्त !?
दोनों ही शिलाएं प्यार की अप्रतिम मिसाल हैं। लेकिन दशरथ मांझी की शिला का महात्म्य कुछ ज्यादा ही हैं। सुंदर प्रस्तूति।
ReplyDeleteशुक्रिया ज्योति जी ! रचना की आत्मा को छूने के लिए ....हार्दिक आभार आपका ...
ReplyDeleteशिला जुड़वाता बादशाह तो तोड़ता मज़दूर
ReplyDeleteदोनों ही अपनी-अपनी चहेती के मरणोपरान्त
क्यों मुझे लग रहा बादशाह होता हर तरह से
एक अदना मज़दूर के प्रेम-प्रदर्शन से परास्त !? बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति
सराहना करने के लिए आभार आपका !!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (26-08-2019) को "ढाल दो साँचे में लोहा है गरम" (चर्चा अंक- 3439) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी ! आभार आपका ! रचना को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी !
ReplyDelete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२६ अगस्त २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
मन से आभार आपका श्वेता जी पुनः मेरी रचना को सोमवारीय विशेषांक में साझा कर मेरी रचना का मान बढ़ाने के लिए ....
ReplyDeleteप्रेम आजतक अपरिभाषित ही रहा है | गहन अनुभूतियों से भरा प्रेम यदि व्यैक्तिक रहा तो स्वार्थी रहा पर जब उसमें जनकल्याण की भावना प्रवाहित हुई मानवता के लिए एक मिसाल बना | निसंदेह एक विपन्न मजदूर दशरथ मांझी , उस साधन सम्पन्न बादशाह से कहीं प्रबल हठी प्रेमी है जिस ने अतुल धन दौलत के दम पर बाईस सालों में हजारों मजदूरों की मेहनत खरीद कर जो उपलब्धि हासिल की थी उससे कहीं बढ़कर पराक्रम है दशरथ माझी का , जिसने अपने दम पर पहाड़ का सीना चीर , बिना कोई पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए लोगों के लिए रास्ता बनाया , ताकि प्रेम की राह प्रशस्त रहे हर आमोखास के लिए | बादशाह को स्वयं भी पता नहीं होगा कि उसकी ये कलाकृति किसी दिन सरकार की आमदनी का जरिया बनेगी पर मांझी का रास्ता , अनगिन लोगों को नाजाने कितने दिन, कितने साल . अपनी मंजिल तक निशुल्क पहुंचता रहेगा बिना किसी रागद्वेष के | जबकि शाहजहाँ के वैभवशाली प्रेम प्रदर्शन अनगिन लोगों की तरह शायर साहिर को भी अखरता रहेगा . जो कह उठे --
ReplyDeleteइक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर,
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक,
उसके मुकाबले दशरथ माझी का प्यार सरलता और सादगी से हर आम आदमी का मन जीत पाने में सक्षम है और रहेगा जिसके पैर धरातल पर टिके हैं | सुंदर सार्थक सृजन ' शिला ' के बहाने से | हार्दिक शुभकामनायें और बधाई |
हर बार मेरी रचना में लगे शब्दों से ज्यादा आपकी प्रतिक्रिया में लगे शब्दों और समय मुझे अचम्भित कर जाते है।
Deleteमनोयोग से पढ़ना, फिर विश्लेषण करना, कुछ विशेषण जोड़ना, स्तब्ध कर जाता है।
नमन आपको और आभार आपका ....
दो दो प्रेम प्रदर्शन ,दोनो में शिला।
ReplyDeleteएक में जुड़ती शिला, एक में टुटती शिला।
जुटने वाली शिला से महानतम टुटने वाली शिला है।
वाह बेहतरीन रचना ।लाजवाब।
सराहना कर के प्रोत्साहन देने के लिए आभार आपका !
Deleteवाह!!सुबोध जी ,अप्रतिम रचना! प्रेम तो प्रेम है ,चाहे वह बादशाह का हो या अदना मजदूर का ...।
ReplyDeleteसही शुभा जी ! पर दोनों के दृष्टिकोण अलग होते हैं। गेहूँ का आटा तो हर घर में एक ही आता है (थोड़ा सस्ता, थोड़ा मँहगा), पर कहीं सादी रोटी (चपाती) बनती है, तो कहीं पराठे ( बस विचार भर ...) ..
Deleteएक सफेद कीमती शिला तो एक पहाड़ की काली शिला.....एक बादशाह द्वारा जुड़ती तो एक मजदूर द्वारा टूटती.....दोनों प्रगाढ़ प्रेम के परिचायक बहुत ही सुन्दर सार्थक सृजन
ReplyDeleteअद्भुत एवं लाजवाब
वाह!!!
रचना को विशेषणों से अलंकृत करने के लिए आभार आपका !
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