Thursday, December 14, 2023

पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " एक कमी को छोड़ दें, तो .. इसके अलावा सभी कुछ तो है हमारे पास .. रामवृक्ष बेनीपुरी जी की भाषा में पेट, हृदय और मस्तिष्क .. तीनों ही है हमारे पास, तो फिर .. समाज में हमारी उपेक्षा की वज़ह ? .. वो भी ब्राह्मणों द्वारा समाज को गलत ढंग से बरगलाने की परम्परागत तरीके से कि .. हमारी यह स्थिति हमारे किसी पूर्व जन्मों के पाप का प्रतिफल है। सच में ऐसा है क्या मयंक भईया .. ? "

गतांक के आगे :-

रेशमा के इस तथ्यात्मक सवाल से मयंक निरूत्तर होकर अपनी दोनों हथेलियों से जुड़ी दसों उंगलियों को चटकाते हुए, सामने बैठी रेशमा से लगभग अपनी नज़रें चुराते हुए समर, अमर और अजीत की ओर देखने का प्रयास भर कर रहा है .. जो फ़िलहाल यहाँ से वापस जाने की सोच रहे हैं और ऐसा बोल भी चुके हैं। 

किसी भी इंसान के पास जब कभी भी किसी सवाल या समस्या का हल ना हो तो वह उससे अक़्सर निपटने के बजाए बचने का भरसक प्रयास करता ही नज़र आता है .. कभी अपनी हथेलियों की उंगलियों को चटका कर तो .. कभी पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदने का असफल प्रयास कर के .. शायद ...

तभी अचानक शशांक वर्तमान की वस्तुस्थिती समझते हुए .. रेशमा को ठहरने का इशारा करते हुए अजीत को सम्बोधित करके कह रहा है ...

शशांक - " अजीत .. ठीक है .. तुम लोग निकलो .. तुम लोगों को देर हो रही है .."

अजीत - " हाँ .. सही .. फिर आते हैं हम तीनों किसी भी छुट्टी के दिन .."

अमर - " हाँ.. अब तो आना ही होगा .. कम से कम रसिक भाई की कड़क चाय पीने के लिए तो .. "

समर - " हमको भी रेशमा जी से मिलना अच्छा लगा .. आपके विचार अच्छे लगे .. अब तो बार-बार मिलना ही होगा .. है ना ? .."

बातें करते-करते भावुकतावश नम हो गयी रेशमा की आँखों को देखते हुए अब समर अपनी बात कह रहा है। वैसे तो इन तीनों की बातों में औपचारिकता की झलक तो लेशमात्र भी नहीं जान पड़ रही .. हाँ .. बेशक़ उनकी बातों में आत्मीयता का ही भान हो रहा है। वैसे भी जब दो इंसानों के विचार आपस में मिलते हों तो ... तो .. पर .. हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज किन्नरों को इंसान मानता कब है भला ? 

किन्नरों को तो .. हमारा उपरोक्त समाज हिजड़ा, छक्का, नामर्द जैसे संज्ञाओं से विभूषित करके सदियों से .. पीढ़ी दर पीढ़ी उपहास का पात्र बनाकर किसी 'एलियन' की तरह घूरता आया है। हमारी सामाजिक दकियानूसी सोचों के कारणवश ही, हमारे लिए सहज-सुलभ उपलब्ध कई सारे अवसरों से भी, सदियों उन्हें वंचित रख कर हमने अपने जननांगों पर अपनी गर्दन अकड़ाई है .. शायद ...

अब ऐसे में उन लोगों का मज़बूरीवश किसी 'ट्रेन-बस' में या कभी-कभी चलते-फिरते सड़कों-बाज़ारों में अक़्सर अपनी एक हथेली क्षैतिजतः और दूसरी को उर्ध्वाधरतः दिशा की मुद्रा में रखकर और दोनों हथेलियों की उंगलियों को लगभग नब्बे डिग्री पर अलग-अलग दिशा में रखते हुए .. सर्वाधिकार सुरक्षित वाली मुद्रा में विशेष तरीके से .. ताली बजा-बजा कर और .. प्राकृतिक रूप से अपनी काया के 'हार्मोनल' असंतुलन के कारणवश भारी आवाज़ या यूँ कहें कर्कश आवाज़ में कई तरह के लोकगीत या फिर फ़िल्मी हास्यानुकृति (पैरोडी/Parody) गा-गा कर अपने जीविकार्जन के लिए या तो .. प्रेमपूर्वक अपने हाथ फैला कर लोगों से सहायता माँगते हैं या कई बार भद्दे ढंग से छेड़ के या यूँ कहें कि .. परेशान करके रुपए वसूलते हैं। इनकी इन सब बेतुकी करतूतों के लिए भी हम और हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी और सभ्य-सुसंस्कृत समाज ही उत्तरदायी है .. शायद ...

प्रसंगवश .. यूँ तो सर्वविदित है कि हमारे सभ्य समाज की ताली का स्वरूप, इनकी ताली से इतर होता है। किन्नरों से इतर नर-नारी वाले हमारे तथाकथित समाज की तालियों के दौरान दोनों हथेलियाँ प्रायः उर्ध्वाधरतः रहती हैं और दोनों हथेलियों की सारी उंगलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श करती हुईं, एक-दूसरे के सामने समानान्तर होती हैं। इन तालियों के भी कई ताल और ताल पर आधारित इनके नाना प्रकार होते हैं। मसलन- आरती-पूजा की ताली, कव्वाली की ताली, योगाभ्यास की ताली, 'सिनेमा हॉल' या 'मल्टीप्लेक्स' में बजने वाली ताली, खेल के मैदान में बजने वाली तालियाँ, नेता जी के भाषण के तदोपरान्त वाली ताली, किसी विशिष्ट जन के स्वागत की ताली, कवि गोष्ठी या मुशायरे वाली ताली, गुस्से में "वाह बेटा ! वाह !" कहते हुए हथेलियों को मसल-मसल कर बजायी गयी ताली, तम्बाकू (खैनी) मलते समय बजने वाली ताली, रास्ते या मैदान में साइकिल या 'स्कूटी' चलाना सीख रहे या रही किसी नवसिखुए के असंतुलित होकर गिर जाने पर आसपास खेल रहे बच्चों द्वारा बजायी गयी ताली, अबोध बच्चों द्वारा हर्षोल्लास में अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से बजायी गयी ताली, तथाकथित सभ्य जन द्वारा किसी सभा में बेआवाज़ बजायी जाने वाली सभ्य ताली, लोकसभा और राज्यसभा में क्रमशः सांसद और विधायकों द्वारा .. "ताली दोनों हाथ से बजती है" जैसे मुहावरे को मुँह चिढ़ाते हुए .. मेज पर एक ही हथेली से थपकी दे-देकर किसी बात के समर्थन में या किसी बात की ख़ुशी में बजने वाली ताली, मेले, मदारी, सर्कस में दर्शकों की सामूहिक तालियाँ इत्यादि नाना प्रकार की तालियों को .. करतल ध्वनियों के ताल-बेताल वाले सुर-ताल के साथ तो .. हम और हमारा तथाकथित सभ्य समाज सहर्ष स्वीकार कर ही लेता है .. परन्तु .. सिवाय और सिवाय एक ताली के .. किन्नरों की तालियों के .. शायद ...

ख़ैर ! .. अब रसिक चाय दुकान की कड़क चाय पीने के बाद समर, अमर और अजीत .. तीनों लोग मयंक, शशांक, रेशमा, रेशमा की टोली, मन्टू, चाँद और भूरा के साथ-साथ रसिक और कलुआ से भी मिलकर अपने 'पी जी' वाले गन्तव्य की ओर सभी को 'टाटा' की मुद्रा में हाथ हिलाते हुए प्रस्थान कर रहे हैं। 

तभी सामने से मुहल्ले की ओर से ललन चच्चा (चाचा) कुछ भुनभुनाते-बड़बड़ाते-से रसिक चाय दुकान की ओर ही चले आ रहे हैं .. जो अभी चाय दुकान पर मौज़ूद सभी को आते हुए दिख भी गए हैं। उनके आने के कारण चाय दुकान पर बैठी शेष मंडली .. कुछ तो औपचारिकतावश और कुछ .. आदरवश उठते-उठते रह गयी है। मुहल्ले भर में ललन चच्चा की क़द्र है। सभी आदर भाव के साथ इनसे मिलते हैं। अब भला मिले भी क्यों नहीं .. इन्होंने भारत में उपलब्ध अनेकों संगीत के विश्वविद्यालयों में से एक- प्रयाग संगीत समिति, प्रयागराज से संगीत में स्नातक स्तरीय छह वर्षीय प्रभाकर  की उपाधि प्राप्त की है। उपाधि तो अपनी जगह है, गायन में इनकी उपलब्धि भी कम नहीं है। 

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

 

Sunday, December 10, 2023

पूजा विथ पर्पस ...


"पूजा विथ पर्पस" (Puja with Purpose)
.. जी हाँ ! .. आज की बतकही का शीर्षक यही रखा है हमने। कुछ ऊटपटाँग-सा .. शायद ... हिंदी और अँग्रेजी शब्दों के घालमेल से .. पर .. दरअसल यह किसी समाज का नारा (Slogan) है। हम तो केवल .. यूँ समझ लीजिए कि .. इस सच्चे नारे से सम्बन्धित एक सच्ची घटना को आप तक ज्यों का त्यों रख रहे हैं .. बस यूँ ही ...

समाज के बुद्धिजीवियों का दकियानूसी वर्ग प्रायः समाज के हर सकारात्मक बदलाव को ऊटपटाँग मान कर या तो नकारने का भरसक प्रयास करता है या तो फिर कम से कम उसकी आलोचना करने भर से तो नहीं चूकता है। ऐसे में तथ्यपरक घटनाओं के लिए भी तथ्यहीन छिद्रान्वेषण करके स्वयं का और दकियानूसी वर्ग के लिए भी तुष्टिकरण का ही तथाकथित पुनीत कार्य करता है .. साथ ही वह बेशक़ .. ऊटपटाँग औचित्यहीन दकियानूसी अंधपरम्पराओं को सिर माथे पर चढ़ाए, उसके क़सीदे पढ़ने में मशग़ूल रहता है .. शायद ...

दूसरी ओर इसी समाज के कुछेक बुद्धिजीवियों का वर्ग अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के तहत समाज को यथोचित सकारात्मक राह की ओर मोड़ने की ख़ातिर कुछ ना कुछ अच्छा करके या यूँ कहें कि .. कुछ बेहतर करके समाज के सामने एक आदमकद दर्पण रख देता है, ताकि जिनमें उसी समाज के दकियानूसी सोच वालों को अपने अट्टहास करते हुए घिनौने और क्रूर मुखड़े की झलक भर दिख जाए .. शायद ...

ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना को, जो उत्तराखंड जैसे अंधपरम्पराओं और रूढ़ीवादी रीति-रिवाजों वाले राज्य में भी काशीपुर के जितेन्द्र भट्ट नाम के एक संगीत शिक्षक ने अपनी बेटी रागिनी की पहली माहवारी शुरू होने पर इसी वर्ष अभी हाल ही में किसी जन्मदिन के समान ही उत्सव का आयोजन किया था और जिसे हमने अपनी बतकही से भरी अपनी "साप्ताहिक धारावाहिक पुंश्चली के चौथे भाग" में गूँथ कर परोसने का प्रयास भर किया था .. बस यूँ ही ...

आज ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना की चर्चा अपनी आज की बतकही में कर के हम उन क्रांतिकारी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के वर्ग की सराहना करने का प्रयास भर कर रहे हैं .. शायद ...

दरअसल अभी कल ही 'सोशल मीडिया' के माध्यम से सप्रमाण हमारे संज्ञान में आया कि भारत भर में सर्वाधिक आदिवासियों की जनसंख्या वाले राज्य- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में, जहाँ वर्ष 1984 में इसी दिसम्बर माह के दो-तीन तारीख़ की दरमियानी रात को अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन की भारतीय सहायक कंपनी के कीटनाशक बनाने वाले 'प्लांट' से हुए ज़हरीले 'मिथाइल आइसोसाइनेट गैस' के रिसाव के कारण तात्कालिक साँस लेने वाले हजारों मानव शरीर निर्जीव हो गए थे और लाखों अपंग .. जिन "भोपाल गैस काण्ड" के मुआवज़े के हक़दार .. हजारों आमजन तत्कालीन सरकार की ओर टकटकी लगाए-लगाए निराश हो गए थे .. शायद ...

मध्यप्रदेश की उसी राजधानी भोपाल में "भोपाल गैस काण्ड" के लगभग उनचालीस वर्षों बाद .. इसी वर्ष वहाँ की एक बंगला भाषी बाहुल्य वाले मुहल्ले- अरेरा कॉलोनी में अवस्थित दुर्गा बाड़ी के अन्नपूर्णा देवी मंदिर में विगत कुछ महीनों से अन्नपूर्णा देवी को पेड़-पौधों की नाज़ुक डालियों से निर्ममता के साथ तोड़े गए फूलों-पत्तियों, मिठाईयों या रुपयों-पैसों का चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता है।

जिन चढ़ावों में से प्रायः चढ़ावे वाले फूलों-पत्तियों को बाद में कचरे में या नदी-नालों में प्रदूषणों का सबब बनाया जाता है। चढ़ावे वाली मिठाईयों की ज़िक्र करें, तो .. बाज़ारों में उपलब्ध अधिकांशतः मिलावटी मिठाईयों से हम अपना और पड़ोसियों के भी स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं और रुपयों-पैसों की बात करें तो इन से देश भर में चलने वाले कुछेक बहुउपयोगी संस्थानों को छोड़ दें, तो अधिकांश मामलों में तो .. ये सारे धन तोंदिलों की तोंदों की गोलाई के घेरों को बढ़ाने के काम ही आ पाता है .. शायद ...

अतः इन सभी के बदले यहाँ 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप' चढ़ाए जा रहे हैं। हाँ, सही ही पढ़ा है आपने .. 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप'। 'सोशल मीडिया' के सूत्रों से यह ज्ञात हो रहा है, कि अब तक लगभग ग्यारह हजार 'सैनिटरी पैड' चढ़ाए जा चुके हैं, जिनका बाद में भोपाल की ही गन्दी बस्तियों और सरकारी बालिका विद्यालयों की रजस्वला बालिकाओं और महिलाओं के बीच मुफ़्त में वितरण कर दिया जाता है .. बस यूँ ही ...

प्रसंगवश हम क्षमाप्रार्थी हैं .. अभी-अभी "गन्दी बस्तियों" जैसे शब्दों को व्यवहार में लाने के लिए .. पर हमारी मज़बूरी है, कि 'स्लम एरिया' का हिंदी में शाब्दिक अर्थ तो "गन्दी बस्ती" ही होता है। लेकिन यही 'स्लम एरिया' या 'स्लम' बस्ती जैसे शब्द हम धड़ल्ले से कह जाते हैं और गन्दी बस्ती बोलने से तो वहाँ के निवासियों के लिए अमूमन गाली की तरह एहसास कराता है। ऐसे और भी अन्य उदाहरण हैं। मसलन - हम प्रायः धड़ल्ले से 'बाथरूम', 'वाशरूम', 'रेस्ट रूम', 'पॉटी' या 'पोट्टी' जाने की बात या फिर 'प्रेशर' लगी है जैसे ज़ुमले बोल देते हैं, परन्तु उतनी ही बेझिझक हम .. पखाना जा रहे हैं .. नहीं बोल पाते हैं। ऐसा बोलने पर हमें असभ्य समझा या कहा जाता है .. और सच्चाई तो यही है कि हमारे खाते वक्त कोई भी ये हिंदी शब्द - पखाना .. बोले तो उबकाई-सी होने लग जाती है .. नहीं क्या ? .. जैसे अभी आपको हमारी ये बतकही पढ़ते हुए ऊब हो रही होगी .. शायद ...

ख़ैर ! .. आज की बतकही के मुख्य विषय पर लौटते हुए .. हालांकि यहाँ पर हिंदू मान्यताओं के अनुसार तीन दानों- अन्न दान, विद्या दान और आरोग्य दान को तरजीह दी गयी है, पर समय और सोच के अनुसार बदले हुए रूप में .. शायद ...

दरअसल अन्न दान के तहत गेहूँ या दालें दान किए जाते हैं। ताकि एक ग़रीब परिवार में भी सभी मिल कर राजेंद्र कृष्ण जी की रचना को गुनगुना सकें कि "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .. दूसरा विद्या दान के तहत किताबें, कलम, कॉपी और अन्य लेखन-पाठन सामग्रियाँ; ताकि आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के बच्चों को भी शिक्षित किया जा सके और .. तीसरा .. आरोग्य दान के तहत ही 'सैनिटरी पैड्स' और 'मेंस्ट्रुअल कप्स' भी ग़रीब-असहाय परिवार की रजस्वला बच्चियों-महिलाओं को दान कर दिए जाते हैं।

इस मन्दिर का पूरा पता है- इ-७ / ३०४-ए, अरेरा कॉलोनी, रेणु विद्यापीठ विद्यालय के बगल में, भोपाल -४६२०१६, मध्यप्रदेश (E-7 / 304-A, Arera Colony, Beside - Renu Vidyapith School, Bhopal - 462016, Madhya Pradesh) है।

इस सकारात्मक सोच के पीछे वहाँ की बुद्धिजीवी आम जनता की क्रांतिकारी सोच के साथ-साथ वहाँ की एक गैर सरकारी संगठन (NGO) - "हेशेल प्रतिष्ठान" ( Heychel Foundation ) का भी बेशकीमती योगदान है और इस "हेशेल प्रतिष्ठान" के इस नेक कार्य में सहायता प्रदान करती है .. अपने देश की एक पंजीकृत दानी संस्था (Registered Charity)- "भारतीय परिवार नियोजन संघ" (Family Planning Association of India - FPA, India), जिसकी लगभग चालीस शाखाएँ देश भर में यौन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन को बढ़ावा देती हैं।

भोपाल के इसी दानी संस्था जैसे गैर सरकारी संगठन- "हेशेल प्रतिष्ठान" का नारा है - "पूजा विथ पर्पस" (Puja with Purpose) यानी उद्देश्य के साथ पूजा .. आज की बतकही में बस इतना ही .. बस यूँ ही ...

आइए .. अंत में हम सभी मिलकर राजेंद्र कृष्ण जी की उस रचना को गुनगुनाते हैं, जिसे वर्ष 1973 में, जब हम महज़ सात वर्ष के रहे होंगे, फ़िल्म- "ज्वार भाटा" के लिए संगीतबद्ध किया था- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने, अपनी सुरीली आवाज़ दी थी- लता मंगेश्कर जी और किशोर कुमार जी ने और फ़िल्मी पर्दे के लिए धर्मेन्द्र और सायरा बानो जी की जोड़ी को फ़िल्माया था- तेलगु फ़िल्म के निर्देशक अदुर्थी सुब्बा राव जी ने, जो फ़िल्म तेलगु फ़िल्म "दगुडु मुथालु" का हिंदी संस्करण था। तो .. हो जाए .. "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .