हिन्दूओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुलसी विवाह किया जाता है। इस तथाकथित मान्यता के अनुसार ही इस दिन ऐसा करना-कराना अत्यधिक शुभ होता है और घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही मान्यता यह भी है कि इस दिन तुलसी विवाह कराने से, जिस घर में बेटी ना भी हो तो, कन्यादान जितना पुण्य मिलता है। कहा तो ये भी जाता है, कि इसके एक दिन पहले चार मास तक सो कर विष्णु देव के जागने के बाद तथाकथित आस्थावान धर्मी लोगों के घरों में शुभ और मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं।
तुलसी चौरा या तुलसी के गमले की मिट्टी में ही एक गन्ना लगा कर, उस पर लाल चुनरी से मंडप सजाने का एक तथाकथित पूजन विधान है। दूध में भिंगोए हल्दी लगे शालिग्राम पत्थर को भी उसी गमले में रखने का भी विधान है। साथ ही तुलसी के पौधे और गन्ने के मंडप पर भी हल्दी के लेप लगाने के भी। पर प्रायोगिक रूप से प्रायः हर घरों में यह देखने के लिए मिलता है, कि लोग लाल कपड़े से पौधे को पूरी तरह लपेट कर ढकते हुए उसका दम घोंटने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं .. शायद ...
छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक में पढ़ने वाले तमाम विद्यार्थियों को ज्ञात है, कि तमाम पेड़-पौधों की हरी पत्तियाँ अपने 'क्लोरोफिल' नामक वर्णक की उपस्थिति में सूर्य-प्रकाश के सहयोग से हवा के कार्बनडाइऑक्साइड गैस और मिट्टी के जल के द्वारा कार्बोहाइड्रेट नामक अपना भोज्य पदार्थ का निर्माण करती हैं और इस प्रक्रिया में ऑक्सीजन गैस बाहर निकालती हैं। इस प्रकाश संश्लेषण नामक प्रक्रिया के तहत बने कार्बोहाइड्रेट तो तमाम पेड़-पौधों को जीवित रहने के लिए आवश्यक तो है ही और ऑक्सीजन गैस हम मानव सहित धरती के समस्त प्राणियों के जीवित रहने के लिए।
पर हमारा तथाकथित आस्थावान बुद्धिजीवी समाज यह सब जानकर भी धर्मान्धता में सब दरकिनार कर देता है और तभी तो इस अवसर पर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी से इस क़दर ढक देता है कि विष्णु-तुलसी के तथाकथित विवाह के नाम पर बेचारे तुलसी के मासूम पौधे का दम ही घुंट जाता होगा .. शायद ...
दूसरी तरफ हम फ़िलहाल तथाकथित "कन्यादान" करने से मिलने वाले तथाकथित पुण्य या पाप के विषय पर तो मनन-चिंतन को दरकिनार ही कर दें, उस से पहले तो "कन्यादान" शब्द की ही सार्थकता और औचित्यता पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है .. अगर आज भी हमारा बौद्धिक समाज "कन्यादान" जैसे शब्द पर आपत्ति नहीं जताता है, तो लानत है ऐसे बुद्धिजीवी समाज पर। इस संदर्भ में तथाकथित सभ्य समाज के इस बौद्धिक विकलांगता को बौद्धिक विकलांगता के वर्गीकृत चार वर्गों में से तीसरे और चौथे वर्गों - "गंभीर" और "गहन" की श्रेणी में रखी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ... नहीं क्या ? हाय री ! .. बौद्धिक विकलांगता .. वाह !!! ...
जी सही | वाह काफी है|
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 मई 2023 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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जी ! नमन संग आभार आपका .. अपनी आज की प्रस्तुति में मेरी बतकही को स्थान प्रदान करने हेतु .. इन औपचारिक बातों के बाद आपको अवगत कराना चाहता हूँ, कि मुझे एक ब्लॉग-मित्र के द्वारा ज्ञात हुआ कि मेरी बतकही आज के पाँच लिंकों के आनन्द पर चस्पा किया गया है, तो मैं पोस्ट को झाँका पर औपचारिक आमंत्रण नहीं दिखा .. मैं बहुत ही शर्मिन्दा हूँ अपने ब्लॉग की किसी अज्ञात तकनिकी जानकारी से, जिसकी वजह से कुछेक प्रतिक्रिया स्पैम में चले जाते हैं और वहाँ जाकर उसे Not Spam करना पड़ता है .. ग्लानि महसूस करते हुए आप से क्षमाप्रार्थी हूँ .. बस यूँ ही ... 🙏🙂
Deleteबिलकुल सही कहा आपने। ... यह प्रकृति ईश्वरीय देन हैं हमारे लिए कोई भी पेड़ हो या पौधा सब पूजनीय होते हैं लेकिन उन्हें पूजा के निमित्त बहुत से किये जाने वाले पूजा के कार्य अनुचित ही होते हैं.. यदि पूजा करनी ही है तो अच्छी मिटटी, खाद पानी आदि से सेवा की जानी चाहिए। इस विषय में कई बार लोगों को समझाते हैं लेकिन कुछ लोग कभी नहीं समझ पाते। .
ReplyDeleteबहुत अच्छी चिंतन मनन कराती प्रस्तुति
जी ! कविता जी .. नमन संग आभार आपका .. आपने मेरी बतकही के मर्म को मन से समझा और मनोयोग से प्रतिक्रिया भी दीं। साथ ही अपने मन की बात भी रखीं .. आज हमारे पुरखों की तार्किक परम्पराओं का अपभ्रंश ही ज्यादा दिखता है .. शायद ...
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