साहिबान ! .. मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ .. इन सबसे अनभिज्ञ .. ग़ज़ल की सऊर (शऊर) भला क्योंकर होगी मुझ में .. पर मन के बाढ़ को हल्का करने के क्रम में जो बतकही शब्दों के साँचे में ढली है, वो सारी की सारी हूबहू हाज़िर है आपकी नज़र .. पर साहिबान !! .. इस बतकही को मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ की नज़रों से कतई ना पढ़ी जाए .. बस और बस .. बतकही को बतकही की तरह सरसरी निग़ाहों से देखी/पढ़ी जाए .. बस यूँ ही ...
चारों तरफ सनसनीखेज़ खबर है,सोया हुआ सारा शहर है।
है मौसम में कनकनी,किस डर से पसीने में सब तरबतर हैं?
लुटी बस्ती, बने अवशेष जले-टूटे घर,सब की टूटी कमर है।
हैं लम्बी कतारें,यतीमों-बेवाओं की, किसने ढाया क़हर है?
रब ने रगों में बहाया,जमीं पे फिर क्यूँ बना लहू का नहर है?
आग लगी यूँ तो जंगल में,पर आना जल्द ज़द में हर घर है।
सर तन से जुदा कर गया वो,अभी तो रात नहीं, दोपहर है।
हैं पूजते कई पत्थर, कोई चोटिल करने को मारता पत्थर है।
सभी भाड़ोती इस धरती के, फिर किस वास्ते मची ग़दर है?
आपसी तनातनी क्यूँ, जग का हर कोना तो रब का घर है?
होड़ बाड़े में क़ैद करने की धर्म-मज़हब के, कैसा जबर है?
कोई हिन्दू या मुसलमां, लापता इंसाँ, किसने रोपी ज़हर है?
मन मारना है हिस्से में मेरे,वो मनमानी करता सारी उमर है।
नुमाइंदे ख़ाक होंगे वो रब के,जिन्हें इंसान की नहीं क़दर है।
सोचों में मेरे आना रुका ना,यूँ पहरा तो तुझ पे हर पहर है।
यूँ डबडबायी तो हैं तेरी आँखें, पर क्यूँ धुंधली मेरी नज़र है?
सूना मन का आँगन,भले ही बनता रहा वो .. हमबिस्तर है।
हमनवा नहीं वो, पर कहने को जीवन-सफ़र में हमसफ़र है।
लेटा नर्म-गर्म बिस्तरों में तन,फिर क्यूँ भला मन दरबदर है?
बंजारा बस्ती के वाशिंदे बता, सोया या मरा हुआ शहर है?
वाह लाजवाब
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... :)
Deleteशुभ संध्या
ReplyDeleteइस बतकही को मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ के अलावा तगज़्ज़ुल, तग़ाफ़ुल और साथ में वाह वाह करने वाला भी होना मांगता
सादर
जी ! नमन संग आभार आपका .. आपसे दो और नए शब्द पढ़ने को मिले - तगज़्ज़ुल और तग़ाफ़ुल .. बस यूँ ही ... :)
Deleteसमाज की विभिन्न विसंगतियों को इंगित करती बेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसमाज की विभिन्न विसंगतियों को इंगित करती बेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन सृजन सुबोध जी ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteमन में उठे बवंडर को जो ढाला है अल्फ़ाज़ में
ReplyDeleteये यूँ ही तो बतकही नहीं , आया ज़ेहन में कहर है ।
बहुत सारे मुद्दों को एक साथ उठाया है । लाजवाब अभिव्यक्ति ।
जी ! नमन संग आभार आपका ... क़हर तो समाज ने जन्म से पहले ही जाति-धर्म थोप के ढाया है .. शायद ...
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ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. आख़िर क्या कह (लिख) दिया आपने, जिसे आपको remove करना पड़ गया 🤔
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-04-2023) को "आम हो गये खास" (चर्चा अंक 4660) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह !! क्या कहने...लाजवाब। वास्तव में ये मन दरबदर है।
ReplyDeleteजी ! मनम संग आभार आपका ...
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