(१) #
तिल-तिल कर,
तिल्लियों से भरी
दियासलाई वाली
डिब्बी अनुराग की
सील भी जाए गर
सीलन से दूरियों की,
मन में अपने तब भी
रखना सुलगाए पर,
धुआँ-धुआँ ही सही ..
एक छोटी-सी
अँगीठी यादों की.. बस यूँ ही ...
कायम रहेगी
तभी तो
तनिक ही सही,
पर रहेगी तब भी
.. शायद ...
आस बाक़ी
सुलगने की
तिल-तिल कर
तिल्लियों से भरी
दियासलाई वाली
डिब्बी अनुराग की .. बस यूँ ही ...
अब दो और बतकहियाँ .. अपने ही 'फेसबुक' के पुराने पन्नों की पुरानी बतकहियों से :-
(२) #
साहिब ! ..
आप सूरज की
सभी किरणें
मुट्ठी में अपनी
समेट लेने की
ललक ओढ़े
जीते हैं .. शायद ...
और .. हम हैं कि
चुटकी भर
नमक की तरह
ओसारे के
बदन भर
धूप में ही
गर्माहट चख लेते हैं .. बस यूँ ही ...
(३) #
साहिब ! ..
आपका अपनी
महफ़िल को
तारों से सजाने का
शौक़ तो यूँ
लाज़िमी है ..
आप चाँद जो ठहरे .. शायद ...
हम तो बस
एक अदना-सा
बंजारा ही तो हैं ..
एक अदद
जुगनू भर से
अपनी शाम
सजा लेते हैं .. बस यूँ ही ...