Thursday, August 11, 2022

धुआँ-धुआँ ही सही .. बस यूँ ही ...

(१) #

तिल-तिल कर,

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली 

डिब्बी अनुराग की

सील भी जाए गर

सीलन से दूरियों की,

मन में अपने तब भी

रखना सुलगाए पर,

धुआँ-धुआँ ही सही ..

एक छोटी-सी 

अँगीठी यादों की.. बस यूँ ही ...


कायम रहेगी

तभी तो 

तनिक ही सही,

पर रहेगी तब भी

.. शायद ...

आस बाक़ी 

सुलगने की 

तिल-तिल कर

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली

डिब्बी अनुराग की .. बस यूँ ही ...


अब दो और बतकहियाँ .. अपने ही 'फेसबुक' के पुराने पन्नों की पुरानी बतकहियों से :- 

(२) #

साहिब ! ..

आप सूरज की

सभी किरणें 

मुट्ठी में अपनी

समेट लेने की

ललक ओढ़े 

जीते हैं .. शायद ...


और .. हम हैं कि 

चुटकी भर 

नमक की तरह

ओसारे के

बदन भर 

धूप में ही

गर्माहट चख लेते हैं .. बस यूँ ही ...


(३) #

साहिब ! ..

आपका अपनी

महफ़िल को 

तारों से सजाने का

शौक़ तो यूँ 

लाज़िमी है ..

आप चाँद जो ठहरे .. शायद ...


हम तो बस 

एक अदना-सा 

बंजारा ही तो हैं ..

एक अदद 

जुगनू भर से

अपनी शाम

सजा लेते हैं .. बस यूँ ही ...






Sunday, August 7, 2022

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ...



देखता हूँ .. अक़्सर ...

कम वक्त के लिए

पहाड़ों पर आने वाले

सैलानियों की मानिंद ही

कम्बख़्त फलों का भी

पहाड़ों के बाज़ारों में 

लगा रहता है सालों भर

आना-जाना अक़्सर।

आने के कुछ ही दिनों बाद 

जो हो जाते हैं बस यूँ ही छूमंतर।

चाहे बाज़ारें हों गढ़वाली देहरादून के 

या कुमांऊँ वाले पिथौरागढ़ या 

फिर हो बाज़ारें अल्मोड़ा के।

कभी काफल, कभी पोलम,

कभी खुबानी, कभी आड़ू,

कभी बाबूगोशा, कभी घिंगोरा,

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ये सारे।

मानो पहाड़ी पेड़-पौधों पर

और .. स्वाभाविक है तभी तो

पहाड़ी बाज़ारों में भी

टिकना जानते ही नहीं फल,

ख़ास कर काफल,

किसी बंजारे की तरह .. शायद ...  


और तो और ..

पहाड़ी आसमानों में

टिकते हैं कब भला

बला के बादल यहाँ।

फट पड़ते हैं अक़्सर

मासूम पहाड़ियों पर 

ढाने के लिए क़हर।

स्वयं पहाड़ों को भी तो 

है आता ही नहीं टिकना,

ख़ास कर बरसातों में

सरकते हैं परत-दर-परत,

होते रहते हैं बारहा यहाँ

भूस्खलन बेमुरौवत। 

और हाँ .. मौसम भी तो यहाँ

होते नहीं टिकाऊ प्रायः।

यूँ तो सीखने चाहिए रफ़्तार

गिरगिटों को भी रंग बदलने के,

एक ही दिन में

पल-पल में बदलने वाले

इन पहाड़ी मौसमों से,

जो करा देते हैं एहसास कई बार

गर्मी, बरसात और जाड़े के भी

एक ही दिन में क्रमवार .. शायद ... 


क्या मजाल जो ..

थम जाएँ, 

टिक पाएँ,

यहाँ बरसाती पानी भी

कहीं भी, 

कभी भी सड़कों पर।

तरस जाती हैं आँखें यहाँ

बरसाती झीलों वाले नज़ारों को

देखने के लिए नज़र भर।

पर .. साहिब ! ...

सुना है कि ..

अक़्सर  'टी वी ' पर

दिखने वाले किसी भी

टिकाऊ सीमेंट के

मनोरंजक विज्ञापनों की मानिंद ही

पहाड़ों के निवासियों के आपसी

या प्रायः प्रवासियों के साथ भी

या फिर यदाकदा

सैलानियों के संग भी

बनने वाले ..

रिश्ते ...

होते हैं टिकाऊ बहुत ही .. शायद ...

जिसे निभाते हैं ये जीवन भर .. बस यूँ ही ...