(१)
बतियाने वाला स्वयं से अकेले में, कभी अकेला नहीं होता,
खिलौने हों अगर कायनात, तो खोने का झमेला नहीं होता
.. शायद ...
(२)
साहिब ! यहाँ संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण नहीं होता,
कुछ रिश्तों के लिए कभी कोई व्याकरण नहीं होता
.. शायद ...
(३)
साहिब ! ..जगह दिल में वो भला क्या ख़ाक देगा,
जो किराए में ग़ैर-मज़हबी को कभी घर नहीं देता
.. शायद ...
(४)
आबादी भी भला शहर भर की थी कब सुधरी,
ना थी, ना है और ना रहेगी कभी साफ़-सुथरी।
साहिब ! है सच तो ये कि सफाईकर्मियों से ही,
हैं चकाचक चौराहे, मुहल्ले, सड़क-गली सारी
.. शायद ...
(५)
परिभाषा कामयाबी की है सब की अलग-अलग,
है किसी को पद या दौलत का मद, कोई है मलंग
.. शायद ...
(६)
चाहे लाखों हों यहाँ पहरे ज़माने भर के, अनेकों बागडोर,
पर खींचे इन से इतर सनम, बस मन का एक कच्चा डोर
.. बस यूँ ही ...