Friday, June 25, 2021

क्यों हैं ये फ़ासले ? ...

अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

मिल कर कभी उर्दू में भी,

हम हनुमान चालीसा पढ़ें।

एक बार कभी अंग्रेजी में,

वज्रासन लगा कुरान पढ़ें।


तो क्यों ना ...

चर्च में मिलकर ईसा की,

संस्कृत में गुणगान करें।

मंदिर में कभी टोपी पहन,

तो धोती में मस्जिद चढ़ें।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

सत्यनारायण स्वामी की 

कथा हो कभी फ़ारसी में,

और क्यों ना आरती हम,

मिलकर अंग्रेजी में गाएं।


तो क्यों ना ...

पगड़ी और पटके पहन के,

मजलिस में सारे ही पधारें।

शाम-ए-ग़रीबाँ के दर्द को,

हिंदी ही में दोहराए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी भगवान के लिए हम,

मंदिर में सूफी कव्वाली गाएं।

कभी अल्लाह को भी मिल,

एक भक्ति के भजन सुनाएं।


तो क्यों ना ...

उतार कर सलीब से कभी,

ईसा को पीताम्बर पहनाएं।

कान्हा हों सलीब पर कभी,

गिरजे में भी शंख बजाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


तो क्यों ना ...

कभी शिवरात्रि की रात,

ज़र्दा पुलाव प्रसाद चढ़ाएं। 

या शब-ए-बारात में कभी,

सोंधी मीठी पँजीरी बनाएं।


तो क्यों ना ...

मुरीद बन, कभी बक़रीद में 

भतुए की क़ुर्बानी दी जाए।

मंदिरों में टूटे फूलों के बजाय,

गमले समेत ही चढ़ाए जाएं।



अक़्सर हम ...

स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता,

सब से यही उम्मीद करते।

धर्म के भेदभाव सारे हम,

मिटाने की हैं बात करते।


अगर जो ...

सभी भाषा का ही है ज्ञाता,

वो ऊपर वाला, हैं ऐसा सुने। 

फिर हमारे बीच ही क्यों भला

भेदभाव, क्यों हैं ये फ़ासले ?


अगर जो ...

ऊपर में हमारे ही पालनहार,

हैं भगवान रचयिता बने बैठे।

फिर रूस, पाकिस्तान हो या

यहाँ कौन लाता है जलजले ?


मजलिस = इमाम हुसैन की याद में आयोजित होने वाला कार्यक्रम।】

शाम-ए-ग़रीबाँ = दस मुहर्रम को कर्बला के वाक़िया पर होने वाली एक शोक सभा विशेष।】






Tuesday, June 22, 2021

मन-मंजूषा ...

खींच भी लो हाथ रिश्तों से अगर,

मेरी ख़ातिर अपनी तर्जनी रखना।

मायूसियों में मैं किसी उदास शाम,

मुस्कुरा लूँ, इतनी गुदगुदी करना।


जो किसी गीत के बोल की तरह,

भूल भी जाओ तुम प्यार हमारा।

माना हो जाए मुश्किल वो गाना,

तो बस यूँ ही कभी गुनगुना लेना।


रिश्तों के फूल मुरझा भी जाए तो,

फेंकना बदगुमानी में क़तई भी ना।

मान के किसी मंदिर या मज़ार के,

फूलों-सी मन-मंजूषा सजा रखना।

 

सुलगने से मेरे महकता हो अगर,

रौशन मन का घर-कमरा तुम्हारा।

हरदम किसी मन्दिर की सुलगती,

अगरबत्तियों-सा सुलगता रखना।



Monday, June 21, 2021

आवाज़ दे कहाँ है ...

आज ही सुबह जब हमारे कॉलेज के जमाने के एक परिचित/मित्र, जो तब भी अच्छे तबलावादक थे और आज भी हैं, की "विश्व संगीत दिवस" की शुभकामना वाली व्हाट्सएप्प मेसेज (Whatsapp Message) आयी तो, ये बात याद आयी कि आज यानी 21 जून को "विश्व संगीत दिवस" है; वर्ना जीवन की आपाधापी तो मानो सब भुला देती है। तब हम भी हवाइयन गिटार (Hawaiian Guitar) बजाया करते थे, जिसका अभ्यास अब तो समय के साथ पूर्णतः छूट ही गया और वह सज्जन आज भी एक सरकारी उच्च-माध्यमिक विद्यालय में संगीत-शिक्षक के तौर पर कार्यरत हैं। उन्होंने विधिवत इसकी शिक्षा प्रयाग संगीत समिति से ग्रहण की है, जो मेरी अधूरी ही रह गई .. बस यूँ ही ...
तभी ख़्याल आया कि "विश्व संगीत दिवस" के बहाने ही सही, संगीत की कुछ पुरानी यादें और कुछ नयी बातें, ब्लॉग के पन्ने पर सहेजी जाएं। वैसे तो हर "दिवसों" की तरह यह दिवस भी पूरे विश्व को यूरोपीय देश फ्रांस की देन है; जब से 21 जून को सन् 1982 ईस्वी में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार, पहला "विश्व संगीत दिवस" मनाया गया था। संगीत के साथ सब से अच्छी बात ये है कि इसकी कोई भाषा नहीं होती, जिस के कारण अंजान शब्दों के मायने जानने के लिए बार-बार किसी शब्दकोश विशेष की आवश्यकता हमें नहीं पड़ती। बस ... संगीत विश्व के किसी भी कोने की हो, कानों को स्पर्श करते ही हम झुमने लग जाते हैं। बशर्ते .. अगर मन-मस्तिष्क अच्छी मुद्रा में हो तो  .. शायद ...

वैसे भी हमारे बुद्धिजीवी पुरखों ने ये माना है, कि साहित्य और संगीत विहीन मनुष्य, मनुष्य ना होकर, ब्रह्माण्ड के अन्य जीवित प्राणियों के जैसा ही होता है। विज्ञान ने भी माना है और सिद्ध भी किया है, कि संगीत का सकारात्मक असर पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों पर भी होता है। देखा गया है, कि संगीत के असर से गाय अपनी सामान्य क्षमता से ज्यादा दूध देने लगती है, फल-फसल के पैदावार भी बढ़ जाते हैं।

यूँ तो हर इंसान जाने-अंजाने अपने-आप में एक संगीतकार है; चाहे हृदय-स्पंदन की ताल हो, साँसों की सरगम हो, चूड़ियों की खनखन हो, पायलों की छमछम हो, ओखली, ढेंकी, जाँता या सिलवट की लयबद्ध आवाज़ हो, आज के सन्दर्भ में मिक्सर-ग्राइंडर (Mixer-Grinder) की आवाज़ हो, सूप या डगरे से अनाज फटकते वक्त इन पर पड़ने वाली थपकियों के थापों और चूड़ियों की जुगलबंदी की आवाज़ हो, चलनी से कुछ भी चालते समय की या आटा गूँथते समय की चूड़ियों की लयबद्ध खनखनाहट हो, लोहार की धौंकनी या हथौड़ी की आवाज़ हो, बढ़ई की आरी या रन्दे की आवाज़ हो, सुबह सड़क बुहारते सफाईकर्मी के नारियल-झाड़ू की आवाज़ हो, सुबह दूध वाले के आने पर कॉल-बेल (Call-Bell) पर बजने वाली अपनी पसंदीदा धुन हो, घास चरती बकरियों या गायों के गले में या फिर मंदिरों में बजने वाली नाना प्रकार की घण्टियाँ हों .. हमारे हर तरफ संगीत ही संगीत है .. बस .. दुनियावी तामझाम से परे तनिक गौर करने की आवश्यकता भर है .. शायद ... 

वैसे तो आज ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की विशेष एकादशी - निर्जला एकादशी भी है, जिसके अंतर्गत तथाकथित भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। साथ ही आज विश्व योग दिवस भी है, पर अभी इन पर बात नहीं करनी है।

आइए .. आज ब्लॉग के वेब पन्ने पर रचना/विचार से परे, "विश्व संगीत दिवस" के बहाने ही कुछ संगीत वाद्ययंत्रों (Musical Instruments) के दिग्गज़ों से उनकी उँगलियों और फूँकों की फ़नकारी निहारते-सुनते हैं। अब कहीं-ना-कहीं से तो श्री गणेश करना ही है, तो पहले युवा पीढ़ी से ही आरम्भ करते हैं।

सब से पहले कर्नाटक की लगभग 25 वर्षीया अंजलि (Anjali Shanbhogue) को जानते हैं, जो "सूचना विज्ञान एवं अभियांत्रिकी" की बीई की डिग्री (B.E. Degree in Information science and engineering) लेने बाद, अपनी आईटी (IT) की नौकरी को छोड़कर आज पूर्णरूपेण संगीत को समर्पित है। वह वाद्ययंत्र - सैक्सोफोन (Saxophone) को बजाने में पारंगत है। कई पुरस्कारों का अंबार इसके नाम जमा है। तो आइए .. नीचे की 'लिंक' के 'यूट्यूब' पर उसी से उसके वाद्ययंत्र - सैक्सोफोन से एक फ़िल्मी गीत की धुन सुनते हुए उस से रूबरू भी होते हैं -

अब बारी है, आंध्रप्रदेश की लगभग 34 वर्षीया श्रीवानी की, जिसको वीणा बजाने में महारथ हासिल है और अब वीणा बजाने के कारण ही दुनिया उसे वीणा श्रीवानी के नाम से जानती है। वीणा वाद्ययंत्र की चर्चा होने पर आस्तिकों को निश्चित रूप से वीणापाणि यानी सरस्वती देवी दिमाग में कौंध जाती हैं। ख़ैर ! .. फ़िलहाल 'यूट्यूब' पर इसके द्वारा वीणा से बजायी गयी एक फ़िल्मी गाने की धुन सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

अब मिलते हैं तमिलनाडु के चेन्नई की लगभग 83 वर्षीया विदुषी डॉ नारायण अय्यर राजम यानी एन राजम जी की वायलिन (Violin) की जादूगरी से। जो इस इटली के विदेशी वाद्ययंत्र से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत बजाती हैं। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संगीत की प्राध्यापिका रहीं हैं और अंतत: विभागाध्यक्ष और विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन भी बनीं थीं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (Fellowship) से सम्मानित किया गया है। उन्हें पदम् श्री, पदम् भूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जैसे मुख्य राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा और भी कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। फिलहाल उनके वायलिन और विश्वविख्यात तबलावादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब के तबले की जुगलबंदी से रूबरू हो कर संगीतमय होने की कोशिश करते हैं :-


अब भला मरहूम उस्ताद बिस्मिला ख़ान साहब के बारे में या उनकी शहनाई के बारे में कौन नहीं जानता भला ! .. उनके बारे में तो .. कुछ भी बतलाने की जरुरत ही नहीं है .. शायद ... तो बस उनकी जादुई फूँक वाली शहनाई से एक ठुमरी सुनते हैं, जो ठुमरी एक फ़िल्मी गीत भी बन चुकी है :-

अब हम उस नाम और उनके वाद्ययंत्र में बारे में बात करते हैं, जो सत्तर से नब्बे तक के दशक में किसी भी संभ्रांत परिवार, ख़ासकर बंगाली परिवार में, अपने वाद्ययंत्र -
हवाइयन इलेक्ट्रिक गिटार (Hawaiian Electric Guitar) की धुन के सहारे धीमी-धीमी आवाज़ में बज कर वर्षों तक राज किए। पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता (कोलकाता) के सुनील गाँगुली "दा", जो लगभग बाईस साल पहले अपने 61 वर्ष की उम्र में ही स्वर्गवासी हो गए। आइए उनकी उँगलियों की हरक़त वाली गिटार से एक मशहूर फ़िल्मी गाने की धुन सुनते हैं .. उसी धीमी-धीमी मधुर आवाज़ में :-

अब जम्मू के लगभग 83 वर्षीय
पंडित शिवकुमार शर्मा जी जैसे प्रख्यात भारतीय संतूर वादक की चर्चा करते हैं, जिन्होंने अपने पिता जी, पंडित उमा दत्त शर्मा, द्वारा एक कश्मीरी लोक वाद्य - संतूर पर अत्यधिक शोध करने के कारण, भारत के पहले ऐसे संतूर वादक बनें, जो इस से भारतीय शास्त्रीय संगीत को बजा कर खूब नाम कमाए। इनके ही हमउम्र उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (प्रयागराज) के रहने वाले भारत के प्रसिद्ध बाँसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी, जिनको कई अंतरराष्ट्रीय सम्मानों के अतिरिक्त संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कोणार्क सम्मान, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, हाफ़िज़ अली ख़ान पुरस्कार जैसे कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है। हमारी फ़िल्मी दुनिया में संगीतकारों की जोड़ी वाले चलन के नक़्शेक़दम पर इन दोनों की महान जोड़ी ने "शिव-हरि" नाम से कई मशहूर फिल्मों को अपने संगीत से सजाया है। आइये .. सुनते और देखते हैं , दोनों दिग्गज़ों की जुगलबंदी .. बस यूँ ही ...

अब उपर्युक्त चंद वाद्ययंत्रों की बातों के बाद, चलते-चलते एक गीत सुनने की तकल्लुफ़ भी कर लेते हैं। परतंत्र भारत में जन्मीं, पर बाद में स्वतन्त्र पाकिस्तान की हुई, मशहूर गायिका मरहूम
नूरजहाँ जी की दिलकश और दर्दभरी आवाज़ में सुनते हैं एक पुराने फ़िल्म का गीत .. 
.. बस यूँ ही ... : -


{आज सुबह मित्र/परिचित द्वारा भेजा गया, copy & paste/share वाला Whatsapp Message}

Sunday, June 20, 2021

बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...

आज की रचना/सोच - "बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..."  से पहले आदतन कुछ बतकही करने की ज़्यादती करने के लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं हम।

दरअसल .. रोजमर्रे की आपाधापी में यह ध्यान में ही नहीं रहा कि इस साल भी जून महीने के तीसरे रविवार को, सन् 1910 ईस्वी के बाद से हर वर्ष मनाया जाने वाला "फादर्स डे" (Father's Day) यानी "पिता दिवस", आज 20 जून को ही होगा। यूँ तो गत कई दिनों से चंद सोशल मीडिया से होकर गुजरती हमारी सरसरी निग़ाहों में इसकी सुगबुगाहट महसूस हो रही थी। पर जब ब्लॉग-मंच - "पाँच लिंकों का आनन्द" की 20 जून की प्रस्तुति के लिए अपनी एक .. दो साल पुरानी रचना/सोच - "बस आम पिता-सा ..." के नीचे यशोदा अग्रवाल जी की एक प्रतिक्रिया- "आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 20 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!" पर परसों ही नज़र पड़ी, तब तो पक्का यक़ीन हो गया कि 20 जून को ही "फादर्स डे" है।

तमाम "दिवसों" को लेकर, गाहे-बगाहे मन में ये बात आती है, कि .. कितनी बड़ी विडंबना है, कि एक तरफ तो हम लोगबाग में से चंद बुद्धिजीवी लोग अक़्सर चीखते रहते हैं कि .. हमारी सभ्यता-संस्कृति या भाषा की अस्मिता, अन्य भाषाओं या सभ्यता-संस्कृतियों की घुसपैठ से खतरे में पड़ रही है। वहीं दूसरी तरफ हम हैं कि .. विदेशों से आए "दिवसों" को मनाने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। बल्कि गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि सर्वविदित है कि .. संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी वर्जीनिया में पहली बार "मदर्स डे" (Mother's Day) सन् 1908 ईस्वी में मई महीने के दूसरे रविवार यानी 10 मई को मनाने के बाद, हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को लगभग पूरे विश्व में यह दिवस मनाया जा रहा है।

साथ ही, उसी तर्ज़ पर संयुक्त राज्य अमेरिका की ही राजधानी वाशिंगटन में पहली बार सन् 1910 ईस्वी में जून के तीसरे रविवार यानी 19 जून को "फादर्स डे" (Father's Day) मनाए जाने के बाद से ही हर वर्ष जून महीने के तीसरे रविवार को आज तक यह दिवस मनाया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में इनके विस्तारण में निःसन्देह किसी तथाकथित दैविक शक्ति का तो नहीं, बल्कि विज्ञान का भी/ही बहुत बड़ा योगदान रहा है। विज्ञान के उत्पाद - उपग्रहों से चलने वाले इंटरनेट की नींव पर खड़े सोशल मीडिया की देन से ही यह सम्भव हो पाया है।
विश्व भर में मनाए जाने वाले पहले "फादर्स डे" के इसी 19 जून ने, ना जाने कब यादों के मर्तबान से पाकड़ के 'टुसे' (किसलय) के अचार जैसे कसैले, सन् 2007 ईस्वी के 19 सितम्बर, बुधवार के दिन के उस कसैलेपन को अनायास दिला दिया; जिस दिन ने पापा का साथ हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे और मेरे पूरे परिवार से छीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया था। अगले दिन 20 सितम्बर, वृहष्पतिवार को उनके दाह-संस्कार के दौरान ही इस रचना/सोच -"बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." का बीज दिमाग के तसले में टपका था। तब से वो सोच का टपका हुआ बीज, डभकता-डभकता .. मालूम नहीं कितना पक भी पाया है या कच्चा ही रह गया। अगर पका तो भोग लगेगा और कच्चा रह गया तो भविष्य में पौधा बनने की आशा रहेगी, एक संभावना रहेगी .. शायद ...
तब मेरा बेटा लगभग 10 वर्ष का था और उस के छुटपन के कारण उसे शवयात्रा में व श्मशान तक ले जाने की, उस वक्त वहाँ सभी उपस्थित लोगों की मनाही के बावज़ूद उसे दाह-संस्कार में साथ लेकर गया था। सदैव ये सोच रही है, कि बातें "गन्दी/बुरी" हो या "अच्छी/भली", उसे अपने बच्चों या युवाओं से मित्रवत् साझा करनी चाहिए। साथ ही, उसे दोनों ही के क्रमशः दुष्परिणामों और सुपरिणामों से भी अवगत करानी चाहिए। तभी तो वह आगे जाकर आसानी से अच्छे और बुरे की पहचान करने वाले विवेक के स्वामित्व को आत्मसात् कर सकेंगे। अंग्रेजी में एक कहावत (Proverb) भी है, कि "The child is father to/of the man." .. बस यूँ ही ...

बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...

बेटा !
भूल कर कि ..
उचित है या अनुचित ये,
दस वर्ष की ही
तुम्हारी छोटी आयु में,
शवयात्रा में
तुम्हारे दादा जी की,
शामिल कर के
आज ले आया हूँ मैं
श्मशान तक तुम्हें।
सांत्वना देने वाली
भीड़ द्वारा आज,
छोटी उम्र में तुम्हें यहाँ
लाने के लाख विरोध के विरुद्ध।
भीड़ चाहे अपने समाज की,
रोना रो कर रस्मो-रिवाज की,
भले ही होते रहें क्रुद्ध।
लाया हूँ तुम्हें एक सोच लिए कि
ना जाने इसी बहाने
मिल जाए ना कहीं,
फिर से जगत को
एक और नया बुद्ध।

देखो ना तनिक ! ..
जल रहें हैं किस तरह
अनंत यात्रा के पथिक
देखो ना !! ..
सीने के बाल इनके,
जिन पर बचपन में मैं
फिराया करता था
नन्हें-नन्हें हाथ अपने।
सिकुड़ रही हैं जल कर
रक्तशिराओं के साथ-साथ
उनकी सारी उँगलियाँ भी कैसे ?
और तर्जनियाँ भी तो ..
जो हैं शामिल उन में,
जिन्हें भींच मैं अपनी
नन्हीं मुट्ठियों में
सीखा था चलना
डगमग-डगमग डग भर के।
सुलग रहे हैं
देखो सारे अंग,
फैलाते चिरायंध गंध
और धधक रहे हैं
शिथिल पड़े अब
निष्प्राण इनके सारे तंत्र।

पर .. अभी क्या ..
कभी भी नहीं ! ..
कभी भी नहीं !!! ...
होगा .. ना इनका और
ना कभी भी मेरा अन्त
और हाँ .. तुम्हारा भी।
हो जाए चाहे
मेरा भी देहावसान,
चाहे ऊर्जाविहीन तन
हो जाए देहदान,
सारा घर .. कमरा ..
मेज और कुर्सी,
या फिर बिस्तर का कोना
हो जाए सुनसान।
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी,
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
मेरे "वाई" और अपनी माँ के
"एक्स" गुणसूत्र के युग्मज से
जो हुआ है तुम्हारा निर्माण।

गुणसूत्रों का वाहक मैं,
तुम्हारे दादा जी का और
मेरे गुणसूत्रों के हो तुम।
फिर होगी तुम से
अगली संतति तुम्हारी
बस यूँ ही .. पीढ़ी दर पीढ़ी
चलती रहेगी एक के बाद दूसरी,
फिर तीसरी और ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
जो चला आ रहा है युगों से
चलता ही रहेगा अनवरत ..
जीवित साँसों और
धड़कनों की तरह अनवरत ..
रुकता है ये कब भला पगले !
वो तो मुझमें ना सही
कल तुममें चलेगा ..
परसों किसी और में
पर चलेगा .. निर्बाध ..
अनवरत और ..
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी .. बस यूँ ही ...