जानाँ ! ..
उदास, अकेली,
विकल रहो तुम
जब कभी भी,
बस .. तब तुम
मान लिया करो .. कि ..
हाँ .. कुछ भी मानने की
रही नहीं है कोई मनाही
कभी भी .. कहीं भी।
वैसे होता भी तो है
मानना मन से ही और ..
मन पर किसी के भी
जड़े नहीं जाते ताले कभी भी।
वर्ना ना जाने कितने ही मन
रह जाते कुँवारे ही।
और फिर .. मान कर ही तो
हर छोटे-बड़े सवाल,
हर छोटी-बड़ी समस्याएं सदियों से
हल होती रहीं हैं गणित की .. बस यूँ ही ...
मान लेने भर से ही तो
दिखते हैं संसार भर को पेड़,
पत्थर, नदी या चाँद-सूरज में भी
उनके भगवान ही।
माना कि .. है अपना अगर
मिलना नहीं नसीब,
तो बस मान लो हम-तुम हैं
पास-पास .. हैं बिलकुल क़रीब।
मीरा ने भी तो बस
माना ही तो था,
पास उनके भी भला
कहाँ कान्हा था !?
तो बस मान लो .. और आओ !
आ के बैठ जाओ पास मेरे,
टहपोर चाँदनी के चँदोवे तले
आग़ोश में मेरे किसी झील के किनारे।
होगा जहाँ हमारी-तुम्हारी साँसों का संगम,
जिस संगम में लुप्त हो जाएगी
सरस्वती हमारी बेकली की .. बस यूँ ही ...