Saturday, January 30, 2021

रामः रामौ रामा: ...

आजकल मुहल्ले या शहर-गाँव में कई-कई लाउडस्पीकरों की श्रृंखला में बजने (?) वाले कानफोड़ू तथाकथित जगराता, जागरण या सत्यनारायण स्वामी की कथा या फिर किसी भी धर्म के किसी भी धार्मिक जलसा में या शादी-विवाह और जन्मदिन के अवसर के अलावा कई दफ़ा तो शवयात्रा में भी बजने वाले निर्गुण के सन्दर्भ में .. बस यूँ ही ...

(१) कबीरा बेचारा ...

दिखा आज सुबह मुहल्ले में 

कबीरा बेचारा बहुत ही हैरान -

कल तक तो बहरे थे यहाँ ख़ुदा, 

हो गया है अब शायद भगवान ...

अब दूसरी रचना ( ? ) बिना बतकही या भूमिका के ही .. बस यूँ ही ...

(२) रामः रामौ रामा: ...

यूँ तो खींच ही लाते हैं एक दिन बाहर

रावण को हर साल पन्नों से रामायण के

और .. मिलकर मौजूदगी में हुजूम की 

जलाते हैं आपादमस्तक पुतले उसके ।


पर अपने शहर का राम तो है खो गया

युगों से किसी मंदिर की किसी मूर्त्ति में 

या शायद मोटे-मोटे रामायण के पन्नों में

या फिर "रामः रामौ रामा:" शब्दरूप में .. शायद ...



Friday, January 29, 2021

चँदोवा ...

किसी का रूढ़िवादी होना भी कई बार हमें गुदगुदा जाता है । ठीक उस 'डिटर्जेंट पाउडर' विशेष के विज्ञापन - " कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं " - की तरह .. शायद ...

यूँ तो ये बात बेकार की बतकही लग रही होगी , पर फ़र्ज़ कीजिये अगर .. हमारी पत्नी या प्रेमिका या फिर हमारा पति या प्रेमी रूढ़िवादी हो और .. हम कभी अपने रूमानी मनोवेग में अपनी तर्जनी भर की तूलिका से प्यार भरी एक मासूम-सी थपकी का रूमानी रंग उनके एक गाल के कैनवास पर आहिस्ता से स्पर्श भर करा दें ; मतलब - उनके एक तरफ के गाल, दायाँ या बायाँ में से अपनी सुविधानुसार कोई भी एक , को छू भर दें और चिढ़ाते हुए दौड़ कर उन से दूर भाग जायें ; फिर ... वो ठुनक-ठुनक कर हमारे पीछे-पीछे पीछा करते हुए बचपन के "छुआ-छुईं" वाले खेल की तरह तब तक दौड़ लगाती/लगाते रहें , जब तक कि हमारी हथेली को ज़बरन पकड़ कर हमारी उँगलियों भर से ही सही अपने दूसरे तरफ वाले गाल को स्पर्श न करवा लें ; ताकि वे अपनी रूढ़िवादी तथाकथित मान्यता/सोच के कारण दुबली/दुबले न हो जाएं कहीं .. तो .. इस तरह इस प्रकार की रूमानी हँसी-ठिठोली में हमारा मन भला गुदगुदायेगा या नहीं ? अगर " नहीं " तब तो उपर्युक्त बतकही आपके लिए वैसे भी बेमानी है और अगर " हाँ " तो बतकही आगे बढ़ाते हैं ...

अब अगर आप इस तरह की रूढ़िवादी मान्यता पर यक़ीन नहीं करते/करती हैं , तब तो कोई बात ही नहीं, पर .. अगर करते/करती हैं तो .. आपके इस यक़ीन के फलस्वरूप यक़ीनन आपके पति/प्रेमी/पत्नी/प्रेमिका को ऐसे किसी अवसर पर कभी-न-कभी ऐसी गुदगुदाहट की अनुभूति अवश्य हुई होगी या फिर ऐसी गुदगुदाहट का मौका बचपन में भी भाई-बहन की आपसी चुहलबाजियों के दरम्यान आया हुआ हो सकता है .. शायद ...

बहुत हो गई बेकार की बतकही .. अब कुछ वर्त्तमान के यथार्थ की बात कर लेते हैं। ये तो सर्वविदित है कि इन दिनों उत्तर भारत ठंड , शीतलहर , बर्फ़ और कोहरे के श्रृंगार से सुसज्जित है। यहाँ गंगा के दक्षिणी तट पर बसे बिहार की राजधानी पटना में बर्फ़बारी के आनन्द का सौभाग्य तो नहीं है, पर .. बर्फ़ीली शीतलहर और कोहरे की परतें जरूर चढ़ी हुई है। यही कोहरे आज की निम्नांकित चंद पंक्तियों वाले इस " चँदोवा ... " को मन के रास्ते वेब-पृष्ठ पर पसरने की वज़ह भी बने हैं .. शायद ... जिस वज़ह को भी आप सभी से साझा करना मुनासिब लगा मुझे .. बस यूँ ही ...

चँदोवा ...

पौष की

बर्फ़ीली

चाँदनी 

रात में

आलिंगनबद्ध 

होने के लिए

जानाँ ...


भला 

आज 

क्यों 

किसी

झुरमुट की 

ओट को 

तलाशना ,


है जब 

सब 

ओर

यहाँ

क़ुदरती

कोहरे का 

चँदोवा तना ...


तो फिर ..

देर किस

बात की

भला , 

बस .. आओ ना ,

आ भी जाओ ना ..

जानाँ ...






Thursday, January 28, 2021

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

एक शाम किसी लार्वा की तरह कुछ बिम्बों में लिपटी चंद पंक्तियाँ मन के एक कोने में कुलबुलाती-सी, सरकती-सी महसूस हुई .. बस यूँ ही ... :-

" मन 'फ्लैट'-सा और रुमानियत आँगन-सी

  सोचें रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरे-सी

  और है हो गई रूहानियत किसी गौरैये-सी ... "

पर उन लार्वा सरीखे उपर्युक्त पंक्तियों को जब अपने मन के डाल पर अपनी सोचों की चंद कोमल पत्तियों का पोषण दे कर, उन्हें उनके रंगीन पँखों को पनपाने और पसारने का मौका दिया तो उनका रूप कुछ इस क़दर विकसित हो पाया ...  :-

मुँहपुरावन वाली चुमावन ...

डायनासोर ही तो नहीं केवल हो चुके हैं विलुप्त इस ज़माने भर से,

जीवन की बहुमंजिली इमारतों में सुकून का आँगन भी अब कहाँ ?


सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!

अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?


रूहानियत बेपता, रुमानियत लापता, मिलते हैं अब मतलब से सब,

प्यार से सराबोर जीता था मुहल्ला कभी, वो जीवन भी अब कहाँ ?


लाख कर लें गंगा-आरती हम, कह लें सब नदी को जय गंगा माता,

शहर के नालों को गले से लगाकर भला गंगा पावन भी अब कहाँ ?


बढ़ गई है मसरूफ़ियत हमारे रोज़मर्रे में जानाँ कुछ इस क़दर कि ..

रुमानियत भरी तो दूर .. मुँहपुरावन वाली चुमावन भी अब कहाँ ?