चहलक़दमियों की
उंगलियों को थाम,
जाना इस शरद
पिछवाड़े घर के,
उद्यान में भिनसार तुम .. बस यूँ ही ...
लाना भर-भर
अँजुरी में अपनी,
रात भर के
बिछे-पसरे,
महमहाते
हरसिंगार तुम .. बस यूँ ही ...
आँखें मूंदे अपनी फिर
लेना एक नर्म उच्छवास
अँजुरी में अपनी और ..
भेजना मेरे हिस्से
उस उच्छवास के
नम निश्वास की फिर
एक पोटली तैयार तुम .. बस यूँ ही ...
हरसिंगार की
मादक महमहाहट,
संग अपनी साँसों की
नम .. नर्म .. गरमाहट,
बस .. इतने से ही
झुठला दोगी
किसी भी .. उम्दा से उम्दा ..
'कॉकटेल' को यार तुम .. बस यूँ ही .. शायद ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 30 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी ! नमन संग .. आभार आपका .. मंच पर साझा करने के लिए ...
Deleteहरसिंगार की गंध और रंग का बखान करती भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह !!!! क्या नशा है !!!! ये नशा बरकरार रहे भले ही हरसिंगार का मौसम हो या न हो । उसकी महक अन्तर्मन में बसी रहे फिर कॉकटेल क्या चीज़ है । 👌👌👌👌
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. "नशा बरकरार" की दुआ के लिए अतिरिक्त आभार .. पर ग़ालिब 'चच्चा' की भाषा में 'निकम्मा' हो जाने का भय भी है वैसे ...😢
Delete(☺☺☺)...
अब जब इस इश्क़ के मय रूपी तालाब में कूद ही गए तो गालिब चच्चा के शेर की फिक्र क्यों ?
Delete😄😄😄
😂😂😂
Deleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह!!सुबोध जी ,क्या बात है ,बेहतरीन सृजन ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. सब क़ुदरत की देन है ...
Deleteसर नमस्ते !
ReplyDeleteघर आंगन कोठरी हो आगे या पिछवाड़े
हो अँजुरी या बिखड़े मन में ,
समेट लेना है सब इस बार
शरद का हरसिंगार चाहे
हो मिठी धुप या हल्की ओस कि फुहार ।
भावपूर्ण सृजन ! बहुत सुन्दर !
नमस्कार बंधु ! .. भावपूर्ण पंक्तियों से सजी प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका ...
Deleteसर नमस्कार !
Deleteआपने मेरी पंक्तियों को पढ़ा । धन्यवाद !
आपकी समझ सुझाव और नसीहत सबको मैंने सहेज कर रख लिया।
किन्तु इसमें शर्मिन्दा होने वाली कौन सी बात है समझ नहीं आया । कृप्या तनिक विस्तार से समझाने का कष्ट करें।
पुनः धन्यवाद !
बंधु ! आप अपने पोस्ट पर प्रतिक्रियास्वरूप लिख कर, अपनी त्रुटियों के लिए विस्तार से समझना चाह रहे थे .. शायद ...
Deleteये है आपकी रचना का सुधरा हुआ रूप ( जितनी मेरी जानकारी है ...) :-
यादों से सने दिल पर
यादों से सने दिल पर
वक्त के कफ़न उढ़ा दे,
गर है मोहब्बत ज़िन्दा अब तक
तो मौत की नींद तू उसे सुला दे।
कब तक तकता रहूँ राहों में पड़े
उनके पग चिन्हों को,
मैं बैठता हूँ नजर फेर
दो पल के लिये, तू उसे मिटा दे।
स्नेह गंभीर चोट है
जो ठहर-ठहर कर दर्द पहुँचाती है,
पत्थरों से भी कठोर हो जाए मन मेरा,
कोई दवा तू ऐसी पिला दे।
अब मैं भी जी लूँ ज़िंदगी के
दो-चार पल आराम से,
जो सताते है मुझे दिन-रात
उन लम्हों को मेरे ज़हन से तू भुला दे...।
---
साथ ही, आपने शर्मिन्दा होने वाली मेरी बात का विस्तार चाहा है, तो इसका तात्पर्य यह है बंधु कि जब कभी भी आपको वेब-पन्नों पर पढ़ें तो आपके किसी अनुज या अनुजा को आप जैसे बुद्धिजीवी अग्रज की त्रुटियों से आप के विषय में शर्मिंदगी ना महसूस हो .. शायद ...
बस यही कहना था .. बस यूँ ही ...
बहुत सुंदर रचना, हरसिंगार की खुश्बू की तरह
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ....
Deleteगहन रचना, मन के भावों को खूबसूरती से उकेरा है आपने। खूब बधाई
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... ( बधाई के लिए, अतिरिक्त आभार ...☺).
Delete