झेल कर रोज़ाना सालों भर,
धौंस अक़्सर पुरुषों की कभी,
निकाला करती थीं महिलाएं,
शायद .. आज भी कहीं-कहीं,
मन की भड़ास, होकर बिंदास,
अंदर दबी कुंठाएँ, अवसाद भी,
और कभी कभार मन की कसक।
अपने गले फाड़ती, कुछ पैरोडी गाती,
कुछ सुरी, कुछ बेसुरी,
ढोलक-चम्मच की थाप पर,
गा-गा कर पुरुषों वाली माँ-बहन की,
ऐसी-तैसी करने वाली गालियाँ बेधड़क।
वर पक्ष की महिलाएं, वधू पक्ष के लिए,
शुभ तिलक के शुभ अवसर पर,
या फिर वर पक्ष के लिए, वधू पक्ष की महिलाएं,
बारातियों को सुना-सुना कर, उनके भोज जीमने तक।
भद्द पीटती थी, फिर तो सभी बारातियों की,
माँ, बहन, मौसी, चाची, फुआ, भाभी की,
करके सभी की ऐसी की तैसी मटक-मटक .. बस यूँ ही ...
अबलाएं बन जाया करती थीं सबलाएं,
एक रात के लिए कभी बारातियों के,
जाते ही वर पक्ष के घर से,
डोमकच या कहीं-कहीं जलुआ के बहाने ;
'कॉकटेल'-सी बन जातीं थी फिर तो ..
स्वच्छंदता और उन्मुक्तता की यकायक।
मिटा कर भेदभाव सारे ...
नौकरानी और मालकिनी की,
बन जाती थीं कुछ औरतें पहन कर,
लुंगी, धोती-कुर्ता या फुलपैंट-बुशर्ट पुरुष वेश में ..
कोई दारोग़ा, कोई डाकू,
कोई लैला, कोई मजनूं,,
कोई प्रसूता, कोई 'दगडर* बाबू',
कोई चुड़ैल, कोई ओझा-औघड़ ज्ञानी।
होती थीं फिर कुछ-कुछ ज्ञान की बातें,
दी जाती थी कभी-कभी .. खेल-खेल में,
कई यौन शिक्षा भी संग हास-परिहास के,
कभी होती थीं पुरुषों वाली
उन्मुक्त अश्लीलता भी बन कर मजाक .. बस यूँ ही ...
पड़ती नहीं अब आवश्यकता
शायद रोज़ाना घुट-घुट कर,
अवसाद इन्हें मिटाने की ;
क्योंकि महिलाएं हों या लड़कियाँ,
हर दिन ही तो अब पहनती हैं,
पोशाक पुरुषों वाले ये कहीं-कहीं,
बड़े शहरों, नगरों या महानगरों में बिंदास।
बकती हैं पुरुषों वाली गालियाँ भी,
खुलेआम धूम्रपान, मद्यपान जैसी मौज़,
करती हैं अधिकतर ..
पुरुषों वाली ही, हो बेलौस।
औरतें वर पक्ष की होतीं भी तो नहीं,
घर पर अब बारात जाने वाली रात,
बल्कि चौक-चौराहे, सड़कों जैसे,
सार्वजनिक स्थलों पर,
आतिशबाज़ी और बारातियों के बीच,
बैंड बाजे की फ़िल्मी धुन पर,
बिखेरे जाते हैं अब तो
डोमकच या जलुआ नहीं जी, जलवे कड़क .. बस यूँ ही ...
【 * = दगडर = डॉक्टर ( एक आँचलिक सम्बोधन ). 】.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 17 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ..
Deleteयशोदा बहन, ☺.. आप तो दो दिनों से Mrs India बनी हुईं थी ...😀😀
बहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. आप कैसे हैं 'सर'🤔
Deleteआप स्वस्थ तो हैं ना 🤔 .. बड़े दिनों बाद ☺
तो आप चाहते हैं कि ये सारे काम जो पुरुष करते आ रहे वे केवल पुरुष ही करें ? फिर काहे का स्त्री विमर्श। स्त्रियों को वो सब करना है जो कोई पुरुष बेहिचक सार्वजनिक रूप से करता आया है । वैसे शहर से ज्यादा बिंदास गाँव की स्त्रियाँ होती हैं , धूम्रपान में भी और मद्य पान में भी । गालियाँ भी चुन चुन कर दे देती हैं ।खैर ये अलग बात है .....लगता है स्त्रियों के जलवे से पुरुष घबराए हुए हैं ।
ReplyDeleteफर्ज़ कीजिए .. टीवी के किसी न्यूज़ चैनल वाले रिपोर्टर ने, किसी दोपहर हो रहे एक दंगे की मार-काट के दृश्यों को अपने कैमरामैन के साथ कैमरे में क़ैद कर के, शाम में उन्हीं दृश्यों को हू-ब-हू समाचार वाचन के साथ-साथ प्रसारित कर देता है और कई दर्शकगण उसे देखते-सुनते हैं और .. उनमें से कुछेक लोग अपने गुस्सा को दंगाईयों पर ना निकाल कर, न्यूज़ रीडर को ही कोसने लग जाते हैं, कि इसने धर्म-निरपेक्ष देश में दंगा करवा दिया। अब वो बेचारा कब दंगा करवाया भला !! वो तो बस इस बात का दोषी है, कि उसने दोपहर की सच्ची घटनाओं को आम जनता तक पहुँचाया भर .. दंगा अच्छी है या बुरी, ये तो दर्शक की मानसिकता तय करती है। उसी दंगा वाली जान-माल की हानि से आतंकवादी मानसिकता वाले समूह खुश होते हैं, पर .. संवेदनशील लोग दुःखी और .. जिनके परिवार का कोई एक भी शिकार हुआ होता है, वे बेचारे भुक्तभोगी होते हैं। अब दंगा तो एक ही है, पर अलग-अलग मन पर अलग-अलग प्रभाव ...
Deleteअब कोई शब्दचित्र बनाने से, उसे बनाने वाला, उस बात का समर्थक हो ही जरुरी नहीं। वैसे भी इस बतकही में हमने हालात रखे हैं और शत्-प्रतिशत पक्ष में ही रखे हैं, कि पहले औरतों को भड़ास निकालने के बहाने की जरुरत पड़ती थी, पर आज वह बिंदास हैं, तो उसकी जरुरत नहीं पड़ती। वह तो अब रोज ही पुरुषों वाली ज़िंदगी जीने लगीं हैं, उन्हें जीनी भी चाहिए, पर ... अंधानुकरण में नशापान ( वैसे तो दोनों ही के लिए) नुकसानदेह ही है ना ? और फिर जरूरी तो नहीं कि सभी पुरुष नशा करते ही हैं। जो करते भी हैं, तो उस में कोई गर्वोक्ति वाली बात नहीं होनी चाहिए। आप भी मानती होंगी इस बात को .. शायद ...
वैसे तो हम सभी ने वातानुकूलित कमरों में, किताबों में या वेब पन्नों पर "स्त्री विमर्श" शब्द बक बक कर ही औरतों को कमजोर किया है, पर धरातल पर वस्तुस्थिती सभी को मालूम है। इस शब्द का कोई औचित्य नहीं रह जाता, अगर दोनों को पूरक मान लिया जाए, दोनों को अन्योन्याश्रय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ मान लिया जाये। किसी भी वंश बेल के लिए, संतान की उत्पति के लिए दोनों की ही जरुरत पड़ती है। तब कोई ऐसा जोर नहीं चल सकता कि .. औरतें , पुरुषों वाले काम कर ही लेंगीं। क़ुदरत ने ही पूरक बनाया है। हाँ .. ये अलग बात है कि मर्दों ने कई सारे नाज़ायज दबाव बना रखे हैं, औरतों पर जो निश्चित रूप से गलत ही है .. शायद ...
गाँव के बारे में जो आपकी बातें हैं, ऐसा ही कुछ सुना तो था। पर कुछ ज्यादा अनुभव नहीं था या है गाँव का, बड़े शहरों के हालात तो आँखों देखी है, इस लिए लिखा। फिर भी बुरी लतों को अपनाना कभी भी उचित नहीं हो सकता और ना ही औरतों को पुरुषों के तथाकथित "समकक्ष" ला कर खड़ा करने जैसी बात हो सकती है .. शायद ...
रही बात जलवे से घबराने की, तो .. घबराने जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि पुरुष भी, जो गलत या नाज़ायज जलवे बिखेरते आ रहें हैं युगों से, उनका विरोध करना चाहिए, उसे रोकने में ही सब की भलाई है, कोई हेटी नहीं। दूसरी तरफ उनके तथाकथित समकक्ष आने की हठ में, उनकी बुरी लतों का अंधानुकरण करने में औरतों या समाज की भी हेटी और हानि भी है .. शायद ...
मेरे थोड़े बके को ज्यादा समझिएगा, पत्र मिलते ही पोस्टकार्ड या अन्तर्देशीय के माध्यम से उत्तर दिजियेगा .. पत्र की प्रतीक्षा में .. बस यूँ ही ...
मेरी टिप्पणी थोड़ी व्यंग्यात्मक थी , जिसे आपने कुछ ज्यादा गहनता से ले लिया । स्त्री विमर्श के नाम पर जो चल रहा है उससे मैं तो पूरी तरह सहमत नहीं हूँ । पुरुषों जैसा व्यवहार करके आखिर क्या साबित करना चाहती है आज महिलाएँ ये मेरी समझ से परे है ।
Deleteगाँव का मुझे भी बहुत आइडिया नहीं है , लेकिन अक्सर मजदूरी करने वाली स्त्रियों को ये सब करते देखा तो लिखा मैंने ।
बाकी तो जो बुरी आदतें हैं वो पुरुषों के लिए भी हैं ये कोई माने या न माने ..... कुछ लोग इसमें शान समझते हैं और अधिकार भी ।
खैर .... आपका पत्र तो न मिला था हम खुद ही पत्र तक पहुंच गए । इस पत्र के लिए शुक्रिया ।
ना, ना, व्यंग्य से हमारे सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। इसको व्यंग्य लोगबाग़ ही मानते हैं। हम इसको तर्क-वितर्क मानते हैं, विचार विमर्श मानते हैं, लोग ही हैं .. जो इस तर्क-वितर्क से विदकते हैं .. शायद ...
Deleteअभी आप "स्त्री विमर्श" और "पुरुषों वाले व्यवहार अपनाने" पर अपनी सही राय दे रहीं हैं, अच्छा लगा सुन/पढ़ कर ..
यही अंतर ध्यान देने वाली है, कि गाँव में वो सारी गलत और उल्टी-सीधी कारस्तानी मजदूर या अलग तबक़े की औरतें करती हैं, तो दूसरी ओर महानगरों में संभ्रांत तबक़े की महिलायें ये सब करती भी हैं और गर्वोक्ति भी महसूस करती हैं .. शायद ...
पत्र ला जवाब देने के लिए धन्यवाद आपका .. बस यूँ ही ...
सुंदर सृजन...।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteकविता के माध्यम से यथास्थिति को उतारने का बाखूबी प्रयास है आपकी रचना ...
ReplyDeleteआंचलिक परिवेश में बहुत सी बाते होती हैं जो चली आ रही हैं आज भी और शायद किसी कसौटी पर तोली जाती हैं ...
जी ! नमन संग आभार आपका ...
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