लम्बे, घने .. अपने बालों-सी
लम्बी, काली, घनेरी अपनी
ज़िन्दगी से हैं अक़्सर चुनती;
रेंगती, सरकती हुई अपनी ही
पीड़ाओं की सुरसुराहट भी,
ठीक .. बालों की जुओं-सी ..
सबों के बीच भी .. शायद ...
वो .. एक अकेली औरत .. बस यूँ ही ...
मिल भी जाएं जो ख़ुशी कभी
तो .. देर तक टिकती भी नहीं,
जबकि पड़ती भी है चुकानी भले ही,
एक अदद उसकी तो उसे क़ीमत भी।
क्षणिक हो .. या फिर ..
औपचारिक ही सही,
पर होती है गुदगुदाती ख़ुशी-सी,
बदले में कुछ अदा कर के भले ही,
बेमन से चाहे या
ख़ुशी-ख़ुशी ही सही,
ठीक .. वापस मिले हुए
जूतों की ख़ुशी-सी,
जूता छुपाई वाली रस्म जैसी .. बस यूँ ही ...
ज़िन्दगी में भला जीत कर भी,
चलती है जीते जी कब उसकी ?
भूले से भी जो अगर कभी,
अपने सुहाग से पहले ही
ढूँढ़ भी ले जो वो पहले कहीं,
दूधिया पानी में डूबी-खोई ..
वो एक विशेष अँगूठी ...
अँगूठी ढूँढ़ने वाली रस्म वाली .. बस यूँ ही ...
कहलाती तो है यूँ अर्द्धांगिनी,
पर इसके हिस्से .. सात फेरों में भी
होती हैं आधे से कम ..
केवल तीन फेरों में ही आगे की पारी।
मतलब - यहाँ भी बेईमानी, मनमानी।
फेरे में जीवन के फिर .. फिर भी,
सात फेरों के बाद होती हैं वो ही घिरी।
हैं चटकते जब सातों वचन सात फेरों के,
अक़्सर .. होकर बदतर .. किसी काँच से भी।
मसलन - गयी नहीं गर अब तक आदतें जो,
सारी बुरी हमारी तो .. हैं मानो जैसे ..
उड़ रहीं सरेआम धज्जियाँ
छठे फेरे के छठे वचन की .. बस यूँ ही ...
सातवें वचन को तो हम ही हैं रोज तोड़ते,
जब-जब हम अपनी बतकही* की
दुनिया में हैं विचरते, विचार करते;
तब-तब तो हम तन्हां ही तो अपनी
बतकही के साथ ही तो .. हैं
केवल रहते और .. जाने-अंजाने
आ ही तो जाती हैं फिर, पति-पत्नी के
संबंधों के बीच में ये बतकही सारी .. बस यूँ ही ...
चलती भी है या कभी चल भी गयी
जो .. जाने-अंजाने, भूले से भी,
अगर किसी घर-परिवार में उसकी,
तो कहते हैं उसे सारे मुहल्ले वाले,
सगे-सम्बन्धी या जान-पहचान वाले भी,
कि है वो .. एक मर्दानी औरत .. बस यूँ ही ...
【 बतकही - अपनी रचना (?) .. अपनी सोच। 】*
स्त्री विमर्श पर लिखी एक अलग कलेवर लिए गूढ़ सृजन है।
ReplyDeleteपरिस्थितियों के अनुरूप बदलाव की प्रकिया कोई नहीं समझना चाहता है। अपना वर्चस्व कायम करने वाली, प्रभुत्व रखने के लिए किये गये आचरण से स्त्रियाँ उन पुरूषों की तरह ही हृदयहीन लगती है जो अपने घर-परिवार,समाज पर अपनी मरजी थोपते हैं।
और फिर एक तथ्य ये भी है कि-
पुरूषसतात्मक समाज में मातृसत्ता स्वीकारना सहज नही।
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सादर।
जी ! नमन संग आभार आपका ..
Deleteबिलकुल सही कहा आपने .. समयानुसार या परिस्थितिजन्य "बदलाव" को सहज नहीं स्वीकार करना ही, ना जाने कितने आडम्बर, अंधविश्वास, अंधपरम्पराओं के बोझ तले हमें दबाए रखता है .. शायद ...
"वर्चस्व कायम करना" और घर-परिवार के अहम् निर्णयों में "अपनी राय रखना" - दोनों दो बाते हैं/ "प्रभुत्व रखना" और घर-परिवार के अहम् फैसलों में "अपना प्रभाव छोड़ना" भी दोनों दो बाते हैं ..जिसे आप भी बख़ूबी समझती होंगीं .. और वही अंतर "मरजी थोपने" और "सब के मन से करने" में भी है .. फ़िलहाल मेरी "बतकही वाली एक अकेली औरत" किसी हृदयहीन पुरुष की तरह नहीं है, बल्कि वो तो केवल अपनी राय, प्रभाव, रखने भर से "अपनी चलाने वाली मर्दानी औरत" कही जा रही है .. बस यूँ ही ...
वैसे तो नारियों और पुरुषों के "अन्योन्याश्रय सम्बन्धों" में "सत्ता" शब्द का विष, किसी स्वादिष्ट भोजन के ऊपर उग आई फफूँदी की तरह है, जो व्यंजन को सड़ा कर महका देती है .. शायद ...
जी,
Deleteआपके प्रतिउत्तर ने रचना का मंतव्य स्पष्ट किया
, आपके तर्क सत्ता के संबंध में प्रभावशाली हैं.. परंतु फिर भी असहमति है मेरी शायद शब्दार्थों को समझने का अपना अपना दृष्टिकोण है-
सिर्फ़ अहम निर्णयों में राय देने से मर्दानी नहीं कहलाती औरतें या सबके मन की करने वाली औरतें साधारण गृहणियाँ भी होती हैं जिसकी राय को सम्मान प्राप्त है अपने पारिवारिक जीवन में अपने परिजनों के द्वारा...।
मेरे विचार से मर्दानी औरतें वो हैं जिनकी मर्ज़ी चलती है सभी प्रकार के निर्णयों में ..
अन्योन्याश्रित संबंध में मर्दानी औरतें कैसे फिट हुई?
जो सिर्फ़ अपनी चलाती हैं वो मर्दानी औरतें अन्योन्याश्रित संबंध का आधार कैसे हो सकती है,..?
अन्योन्याश्रय संबंध तो संतुलन पर आधारित है न तो जहाँ संतुलन न हो वहाँ सत्ता ही होती है।
.....
सादर।
जी ! सोचों के दो ध्रुवों पर बैठ कर सोचने से मतभिन्नता हो सकती है। स्वाभाविक भी है।
Deleteऐसे में अपने मन को खट्टा नहीं करना चाहिए और ना ही इसे अपनी सेहत पर लेनी चाहिए .. शायद ...
अब ये जरूरी तो नहीं कि किसी को (मेरी धर्मपत्नी को भी) अपने धर्मपति के लिए किसी दिन-विशेष को सारा दिन खाली पेट रहना "पावन उपवास" लगे , तो दूसरे को ये सब "बक़वास" ना लगे .. बस यूँ ही ...
वैसे "मर्दानी" शब्द को इतना तूल देनी शायद उचित नहीं है। उदाहरण के तौर पर, अगर एक "लौंडा" शब्द उत्तर-प्रदेश या उत्तराखण्ड में लड़कों के लिए आम सम्बोधन में प्रयुक्त होने वाला शब्द होता है,तो वहीँ बिहार के भोजपुरी क्षेत्र में इसे गाली के तौर पर व्यवहार में लाया जाता है। हो सकता है आपके सभ्य समाज में और हमारे असभ्य समाज में "मर्दानी औरत" की परिभाषाएं अलग-अलग हों .. शायद ...
रही बात, सन्तुलन और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की तो .. शायद मेरे कहने का भी यही मतलब है, जो आप समझ ना पायीं शायद कि अगर नारी-पुरुष का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है तो इस समाज में सत्तात्मक रूप या शब्द आनी ही नहीं चाहिए .. शायद ...
अब डर है इस बात की, कि महोदया 🙏🙏🙏, इस बातचीत (?) को, कहीं से कोई या आप ही इसे "ट्रोल" का नाम ना दें दें कहीं 😃😀😃😀 .. बस यूँ ही ...
(संगीता जी की भाषा में, पता नहीं .. कहाँ पर ज़िन्दगी की सड़क खत्म हो जाए और इंसान अनन्त यात्रा पर निकल ले .. इस लिए "ठंड रख"नी चाहिए .. शायद ...)
वैसे कल आप "पाँच लिंकों का आनन्द" के मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर रहीं हैं ना🤔🤔🤔
नमस्कार सर, स्त्री के मनोभावों और मनःस्थिति को समझना इतना आसान नही है,वो भीड़ में भी अकेले हो सकती है और अकेले में भी मस्त। ज़िन्दगी में हार जीतका मतलब रिश्तो के बीच नही आना चाहिए । हार जीत से तो रिश्ते प्रतियोगिता बन कर राह जायेंगें। कभी कभी दिलों और रिश्तो की खुशी के लिए झुकना ना ही कमज़ोर होना है नही मन को मारना ।
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार आपका ... तुम्हारी हर बातें, हर सोचें, हर तर्क सोलह आने सच हैं .. मेरी इस बतकही का भी यही इंगित करना मक़सद है कि हम दो लोगों के पवित्र बंधन को सनातनी शादी के नाम पर इतना आडंबरयुक्त क्यों बना देते हैं, जिनका हमारे बाद के व्यवहारिक जीवन में कोई मतलब नहीं होता .. शायद ...
Deleteवैसे भी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध में जीत-हार, झुकना-उठना शब्द 'अनफिट' सा ही लगता है ...
रोहक रचना और उस पर सार्थक विमर्श | अच्छा लगा |
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Delete( शुक्र है आपने इसे 'विमर्श' का नाम दिया 🙏🙏 ...)
रोचक रचना और उस पर सार्थक विमर्श | अच्छा लगा सुबोध जी | वैसे मैं भी श्वेता के साथ हूँ | पुरुषों की सता सदियों चली -- थोड़ी सी सत्ता किसी औरत की चल भी जाए तो उसे मर्दानी जैसे व्यंग शब्द का सामना करना पड़ता है -- सो समाज में उसकी सत्ता स्वीकार करने की शक्ति अभी कम ही आई है ||
ReplyDeleteचलिए .. रेणु जी, मुझे भी अच्छा लगा कि आपने यानी एक औरत ने, श्वेता जी का यानी एक औरत का साथ दिया , अब तो कोई भी औरत अकेली नहीं रहेगी .. शायद ...😀😀😀
Deleteवैसे मैं भी तो वही कह रहा हूँ , जो आप सोच/कह रही हैं। आपके कथनानुसार "समाज में उसकी सत्ता स्वीकार करने की शक्ति अभी कम ही आई" - तभी तो समाज उसकी छोटी-छोटी स्वाभाविक और यथोचित पहल को भी "मर्दानी" व्यंग्य से विभूषित करने की हिमाक़त करता है, यही तो हम भी कह रहे .. मेरी बातों में संशय क्यों भला ...🤔🤔🤔
संशय नहीं मैंने अपने अंदाज में आपकी बात का अनुमोदन किया सुबोध जी |
Deleteओ !!! अच्छा !! ☺☺☺
Deleteदर असल ये समाज किसी को नहीं छोड़ता । भूले भटके कोई परिवार , कोई पति अपने घर की स्त्रियों को या पत्नी को महत्त्व दे और उसकी राय माने तो लोग ही पचास बातें बनाने लगते हैं ।। स्त्री की खुशी को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है । स्त्री की चले तो उसे जैसा आपने कहा मर्दानी कहा जा सकता है और जो पति बात माने तो जोरू का गुलाम खिताब से भी नवाजा जा सकता है ।
ReplyDeleteयूँ ऐसे उदाहरण आज भी समाज में बहुत कम पाए जाते हैं । लेकिन मैंने देखा है कि निचले तबके में स्त्रियों की ज्यादा चलती है । बाकी हर जगह पुरुषों का ही वर्चस्व बना हुआ है ।
वैसे आप बिम्ब तो कमाल के ही लाते हैं अब खुशियों को या तो जूँ के समान बता दिया तो कहीं जूता चुराई की रस्म से जोड़ दिया या फिर अंगूठी को ढूँढने की रस्म से ।
वैसे आपकी ये मर्दानी औरत पढ़ मुझे चाची 420 के कमल हासन की याद आ गयी । बस ऐसे ही 😂😂😂😂 अब यूँ ही तो आपका पेटेंट है ।
जी ! नमन संग आभार आपका ... मेरी बतकही के मर्म को विश्लेषणात्मक स्वरूप में आगे तक ले जाने के लिए शुक्रिया .. आपने सही कहा, अगर ये किसी परेशान पुरुष के लिए बतकही होती तो "जोरू का ग़ुलाम" ही विशेषण जोड़ा जाता ☺☺
Deleteसमाज की सोचें नहीं बदलती संगीता जी, बस .. कालखंड के अनुसार उनका स्वरुप भर बदल जाता है .. (वैसे हमने आपके पेटेंट वाले "स्वरुप" का इस्तेमाल निडर होकर कर लिया है .😄😄😄
बिम्बें तो दिमाग़ की हांडी में बस .. फफूंदी की तरह उग आती है, जिसको खखोर कर वेब पन्नों पर पसार भर देते हैं .. क़ुदरत की देन और आप लोगों की असीम दुआएँ हैं .. बस यूँ ही ...
और आपको कमल हासन की चाची 420 याद आ गईं, तो मुझे भी इसी बहाने हेमा ( हे माँ !) जी की सीता और गीता की याद आ गई ..😂😂😂
चलते-चलते ... आपकी भाषा में .. बस यूँ ही .. को अगर पेटेंट मान भी लें तो, पेटेंट की रॉयल्टी पर तो अपनों का हक़ होता ही है ना ..शायद ...😁😁😁
( वैसे बिहार की राजधानी पटना या आसपास के मगही भाषी क्षेत्र में इस तीन शब्दों के लिए, एक ही शब्द बोलते हैं - "अइसहीं", ठीक जैसे एक पुराने चुटकुले के अनुसार, "क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ?" जैसे वाक्य के लिए भोजपुरी में एक शब्द ही है - "ढुंकीं ?" ...😅😅)