विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
देकर एक बार कभी, किसी को तू जीवनदान,
लेता है साल-दर-साल क्यों भला हमारे प्राण?
हर बार, बारम्बार कटती तो हैं यूँ हमारी गर्दनें ,
फिर सामने तेरे क्यों झुकती हैं इनकी ये गर्दनें?
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
शरीयत, हदीस, कलमे बंदों ने या बनायी तूने,
करते हैं 'कलमा इस्तिग़फ़ार' पढ़-पढ़ के तो ये
बंदे तेरे सारे, गुनाह कई , कितनी साफ़गोई से
समझूँ तुझे विधाता है या फिर कोई कसाई रे?
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
सुना है, सुन लेता है तू इनके बुदबुदाए कलमे,
पर मेरी चीखों की पारी में बन जाते हो बहरे।
बख़्श दो विधाता ! कभी तो हमारी भी जानें,
वर्षों बहुत चबायी हैं तूने नर्म-गर्म हमारी रानें।
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
सुना है कि तू तो सारे जग का है परवरदिगार,
फिर जीने का मेरा भी है क्यों नहीं अख़्तियार?
सच में ! मेरी लाशें, मेरे बहते लहू, तुझे ये सारे,
कर जाते हैं खुश? तू भला कैसा परवरदिगार?
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
यूँ तो जो तेरे गढ़े मामूली इंसान हैं ये, जो ख़ातिर
जीभ-सेहत की और ख़ातिरदारी में कभी अपने
मेहमानों की, निरीहों को ही नहीं कर रहे हलाल,
निगल कर धरती को भी तेरी ये कर रहे कंगाल।
तू तो विधाता, क्यों नहीं फिर इन्हें सका संभाल?
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
बुझती नहीं क्या प्यास तुम्हारी, लहू पी पीकर भी?
बता ना जरा, तेरी लाद बड़ी है या तेरी प्यास बड़ी?
मिटी नहीं भूख, खाकर बोटियाँ मसालेदार हमारी?
डकार भी ले, पेट भरे ना भरे, मुँह भी थकता नहीं?
सुना कभी लहू पीने की आवाज़ भी तो गट-गट की।
विधाता ! , तू कहे अगर तो, चंद सवाल तुझसे पूछूँ ,
या फिर .. बस यूँ ही ... जो होता है , वो हो जाने दूँ ?
चलते-चलते :- क्षमा साहिबा ! .. क्षमा साहिबान ! .. माफ़ी कद्रदान !!!
जाते-जाते .. एक भूल हो रही .. हम भूल ही गए कि ..
देना है आप सभी को तो, आज हमें मुबारकबाद भी ..
वर्ना हम धर्म-निरपेक्ष नहीं कहलायेंगें .. और ...
सभ्य समाज से तड़ीपार भी कर दिए जायेंगे, तो ...
फिर ईद-उल-अज़हा मुबारक हो भाई जान ! ..
ईद-उल-जुहा मुबारक हो आपा जान ! .. बस यूँ ही ...
एक त्रासदी ...
ज़िबह करो या मारो झटका,
कटता है हर हाल में बकरा।
नमस्कार सर, आप नज़रे घूम कर देख अपने आस पास चारे तरफ देखिये , बलि तो हमेशा निर्दोष की ही चढ़ती है।कभी धर्म के नाम पर कभी इज़्ज़त के नाम पर। आपा को ईद मुबारक 😂😂
ReplyDeleteहाँ , शुभाशीष संग आभार तुम्हारा .. अरे हाँ ! अच्छी याद दिलाई .. आपा की 😃😃😃
ReplyDeleteपरवरदिगार ने कब कहा कि हलाल करो या बलि चढ़ाओ! ये तो इंसानी शक्ल में घूमते हैवानों का कूकृत्य है चाहे वे किसी भी मज़हब की आड़ में करें। बहुत गम्भीर सवालों को उठाती रचना।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. सवालों पर अपनी सहर्ष सहमति जताने के लिए .. सही है, कि तथाकथित विधाता/परवरदिगार यूँ तो "कुछ भी नहीं" कहते .. बस, सब आडंबर के फ़ितूर उनके हैवान के बंदों ने ही रचे हैं .. शायद ...
Deleteइसीलिए ऐसे बनाए गए हैवानों के लिए, उन्हें बनाने वाले परवरदिगार से ही चंद सवाल .. बस यूँ ही ...
विधाता से आप उन बेजुबान जानवरों की तरफ से सवाल पूछ रहे हैं लेकिन प्रश्न तो यह है कि विधाता ने कब और किससे कह कर ये बलि की प्रथा चलाई । हर धर्म में ही बहुत खामियाँ हैं , अभी सत्यनारायण की कथा का किस्सा सुनाया ही था कि ये बकरीद आ गयी । आप तो सभी का पर्दाफाश करने में लगे रहते हैं ।
ReplyDeleteहिंदुओं को तो आप गरिया भी लें लेकिन इस कौम को न कुछ कहिएगा । बकरा मिमियाता रहे तो मिमियाता रहे ।
खूब प्रहार करते लिखा है । 👍👍👍👍
जी ! नमन संग आभार आपका .. पर आपके कई तथ्यपूर्ण दोषारोपणों 😀😀 को नकारने की अनुमति भी चाहता हूँ आपसे 🙏🙏 .. बस यूँ ही ...
Delete१) यह शंका विश्वमोहन जी को भी हुई है, पर दरअसल .. अगर जिस किसी भी Don का नाम लेकर कोई छुटभैया गुंडा हफ़्ता वसूल रहा हो तो, उस छुटभैया नेता से गुहार लगाने से तो बेहतर है कि उस Don से ही direct गुहार लगायी जाए, जिसके नाम पर "गुंडागर्दी" हो रही है, तो बेहतर होगा। यही मानसिकता के तहत direct विधाता से ही सवाल दाग़ दिया। इतना तो पता ही है कि विधाता (मूर्ति वाला नहीं, प्रकृति वाला) निर्माता तो हो सकता है, हंता कदापि नहीं .. शायद ...
२) अगर ख़ामियाँ हैं, तो उसे दूर करने के बजाय धर्मान्धता में हम बुद्धिजीवियों द्वारा उसे भावी पीढ़ी दर पीढ़ी अग्रसरित करने में सहायता किस कारण से की जा रही है भला ?
३)मेरा किसी का ना तो पर्दाफाश करने का कोई इरादा होता है और ना ही किसी के मन को खट्टा करने का। बस मेरे मन या विवेक को जो भी बात तथ्यों के आधार पर शूल की तरह चुभती है, उसको निकाल कर वेब-पन्ने की प्याली में रख भर देते हैं। अगर मन के पतीले में रखे रहें, तो "टेटनस" की ज़हर फ़ैल जाने का डर बना रहेगा .. शायद ...
४) 'गरियाना' भी नहीं है किसी को भी हमको। यूँ तो किसी भी तथ्यपूर्ण मुद्दे पर कौम को तो बाद में आनी चाहिए या आनी ही नहीं चाहिए .. शायद .. पहले तो इंसान और इंसानियत की बात ही होनी चाहिए, क्योंकि सब के सब उसी तथाकथित आदम और हव्वा की संतान हैं (अगर विज्ञान या Darwin's Theory ना मानते हों तो ) .. वैसे भी छठी शताब्दी के पहले ऐसी कोई इतर कौम का तो कोई अस्तित्व था ही नहीं, तो चंद ऊपरी "जोड़-घटाव" (दाढ़ी-ख़तना) से इनकी डीएनए तो नहीं परिवर्तित होनी चाहिए थी .. शायद ...
सुबोध जी ,
Deleteमेरा कोई दोषारोपण का मंतव्य नहीं । धर्म कोई भी हो लेकिन लोग अंधानुकरण करने में सही और गलत का ध्यान नहीं रखते । आगे की पीढ़ी भी एक जुट नहीं होती कि गलत प्रथाओं को खत्म किया जाय ।
रही बकरे की गुहार की बात तो क्या बकरे केवल ईद पर ही कटते हैं ? ये ज़रूर है कि इस दिन बेतहाशा काटे जाते हैं ।
आज कल हर तीज त्योहार पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की प्रवृति चल पड़ी है जो आगे न जाने कितनी घातक होने वाली है ।
प्रकृति तो स्वयं ही अपना संतुलन करती है ये तो मनुष्य है जो हर जगह घुसपैठ करता रहता है ।
आपके लिखे जोड़ घटाव पर हँसी आ रही है ...
मुझे तो लगता है कि सबके DNA मिलावटी हो गए हैं ।
जी ! बिलकुल , गलत प्रथाओं को खत्म करने की बात की कोई तो समर्थन करे ..
Delete"रही बकरे की गुहार की बात तो क्या बकरे केवल ईद पर ही कटते हैं" - आपकी इस बात के लिए तो पहले ही हमने कहा कि -"यूँ तो जो तेरे गढ़े मामूली इंसान हैं ये, जो ख़ातिर जीभ-सेहत की और ख़ातिरदारी में कभी अपने
मेहमानों की, निरीहों को ही नहीं कर रहे हलाल" ये मामूली इंसान तो अपनी जीभ के लिए तो काट ही रहे, पर विधाता के नाम पर भी ???
आम दिनों में कल-कारखाने या वाहनों से फ़ैलने वाले प्रदूषण की वजह से दीवाली के दिन भी आतिशबाजी जैसी अंधानुसरण वाली प्रथा को खुली छूट नहीं मिलनी चाहिए .. शायद ...
सदन में मचते शोर-शराबे, वाहनों की शोर, लाउडस्पीकरों की शोर, शादी में बजते शोरों (जो की क़ानूनन आवाज़ की सीमारेखा - 55 से 45 डेसिबल (decibels (dB)) से already कई गुणा ज्यादा है) की आड़ में जागरण के नाम पर हमें मुहल्ले भर की नींद में ख़लल डालने की छूट नहीं मिल जानी चाहिए .. शायद ...☺☺☺
आपके कहे अनुसार - "आज कल हर तीज त्योहार पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की प्रवृति चल पड़ी है" - इस मानसिकता से हम कतई ग्रस्त नहीं। ऐसे लोग वही होते हैं, जिनको अपनी "बलि" उत्तम और उनकी "क़ुर्बानी" बुरी दिखती है .. कुरीतियाँ तो कुरीतियाँ ही हैं, चाहे भले ही हमारे आदरणीय पुरखों ने या आज के बुद्धिजीवियों सुधीजन ने खुल कर या दबी जुबान में उसका समर्थन किया हो .. अंधानुकरण तो अंधानुकरण ही है ..
रही बात जोड़-घटाव की तो .. ये तो हमारे यहाँ भी है, सिर मुड़ा के घटाव और टिक्की बढ़ा के जोड़ .. शायद ... 😀😀😀
मिलावटी DNA की बात के समर्थन में तो हम भी हर बार कहते हैं, जहाँ हूण से लेकर मुग़ल, अंग्रेज तक आते रहे, जोर-जबदस्ती करते रहे, तो विशुद्ध DNA में सन्देह होता है, पर लोग हैं कि सिन्हा, श्रीवास्तव ( और सैकड़ों जाति सूचक उपनाम हैं ) लगा के तथाकथित चित्रगुप्त भगवान (और भी कई-कई भगवानों के वंशज हैं यहाँ) की दोनों पत्नियों की विशुद्ध सन्तानों की कतारों में खुद को खड़ी कर के अपनी गर्दनें अकड़ाने से तनिक भर भी नहीं चूकते .. शायद ...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरे निरीह बकरों की गुहार भरी अर्ज़ी को "पाँच लिंकों का आंनद" के मंच पर अपनी प्रस्तुति में आगे तक बढ़ाने के लिए .. इस साल तो "कट गए" .. शायद अगले साल के पहले सुन लें विधाता .. शायद ...
Deleteधर्म के नाम पर पशुबलि ! जैसे अपनी प्रिय औलाद की जगह सुविधानुसार पशु को चुन लिया गया उसी प्रकार पशुबलि को प्रतीकात्मक भी तो बनाया जा सकता है ! पर कट्टरता सदा आड़े आ जाती है ! और उस दिन तादाद बकरों की भले ही ज्यादा हो पर बकरी, मेढ़ा, भेड़, बैल, गाय, भैंस, ऊँट, ऊँटनी किसी को भी तो नहीं बख्शा जाता ! मदारियों, तांगेवालों जैसों पर कानून और रोब गांठने वालेदेश-दुनिया के दसियों पशु-अधिकारवादी उस दिन सिर्फ तमाशा देखते हैं ! हो सकता है दावत में शरीक भी होते हों।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... प्रसंगवश बिलकुल सही बातों की चर्चा की है आपने ...
Deleteसकलकर्मी भाई सुबोध जी
ReplyDeleteएक्शन भी आप करें और
रिएक्शन भी आप ही दें
शानदार विवेचना
सादर..
जी ! नमन संग आभार आपका .. सबसे बड़ी सकलदर्शी तो आप हैं यशोदा बहन 😀😀 आपकी action और reaction वाली बात पर कहीं .. Newton की आत्मा मेरे ऊपर Copyright का कोई केस ना ठोंक दे .. बस यूँ ही ...😂😂😂
Deleteबहुत बढियां
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteदेकर एक बार कभी, किसी को तू जीवनदान,
ReplyDeleteलेता है साल-दर-साल क्यों भला हमारे प्राण?
हर बार, बारम्बार कटती तो हैं यूँ हमारी गर्दनें ,
फिर सामने तेरे क्यों झुकती हैं इनकी ये गर्दनें?
सवाल सीधे परवरदिगार से काश कर पाते ये निरीह पशु.....हम कह सकते हैं कि भगवान ने कब कहा ....पर जब सृष्टि का पत्ता पत्ता उसकी इच्छा से हिलता है जो भी होता है सब उसकी इच्छा से होता है और साथ ही भले के लिए होता है तो इसमें क्या भला है कम से कम इन निरीह बेजुबान पशुओं का क्या भला है...या उन नरपिशाचों से दुनिया का क्या भला है जो मांसाहार करते हैं....काश कि कोई परवरदिगार इन निरीह पशुओं के इन सवालों का जबाब दे पाये...
बहुत ही संवेदनशील हृदयस्पर्शी सृजन।
जी ! नमन संग आभार आपका ..
ReplyDeleteकाश !!! ...