भूमिका :-
आती हैं पूर्णिमा के दिन .. हर महीने के,
नियमित रूप से घर .. शकुंतला 'आँटी' के,
नौ-साढ़े नौ बजे सुबह खाली पेट मुहल्ले भर की,
स्कूल नहीं जाने वाले कुछ छोटे बच्चों,
कॉलेज की पढ़ाई के बाद घर पर 'कम्पटीशन' की
तैयारी कर रहे कुछ युवाओं, कुछ 'रिटायर्ड' बुजुर्ग मर्दों और
'लंच' की 'टिफिन' के साथ अपने पतियों को काम पर
भेज कर कुछ कुशल गृहिणी औरतों की झुंड मिलकर,
थोड़ा पुण्य कमाने यहाँ सत्यनारायण स्वामी की कथा सुनकर,
सिक्के के बदले आरती लेकर, कलाई पर कलावा बँधवा कर
और अंत में "चरनामरित" (चरणामृत) पीकर और ..
पावन "परसाद" (प्रसाद) खा कर .. शायद ...
।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय: समाप्त ।।
दृश्य - १ :-
अब आज भी आये हुए बच्चे .. बच्चों का क्या है भला !
उनका तो होता नहीं कथा से या पुण्य कमाने से कोई वास्ता,
कोई पाप अब तक किये ही नहीं होते हैं जो वो सारे .. है ना !?
"काकचेष्टा" वाली चेष्टा बस टिकी होती हैं उनकी तो,
थालों में सजे फलों के फ़ाँकों पर ..
लड्डूओं और पंजीरी पर भी थोड़ी-थोड़ी .. शायद ...
और औरतें तो .. बिताती हैं समय, छुपाती हुई ज्यादा आधे से,
अक़्सर अपनी फटी एड़ियाँ अपनी साड़ी के
फॉल वाले निचले हिस्से से या फिर कभी दुपट्टे
या ढीले ढाले 'प्लाजो' के आख़िरी छोर से,
छुपा पाती हैं भला कब और कहाँ फिर भी ..
वो अपने मन की उदासियाँ पर .. शायद ...
।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय: समाप्त ।।
दृश्य - २ :-
"पंडी" (पंडित) जी चढ़ावे पर "वकोध्यानम" वाला ध्यान लगा कर
उधर शुरू करते हैं कथा का अध्याय पहला और इधर ..
मुहल्ले भर की कथाओं को वांचने लगती है कुछ औरतें मिलकर।
"जाति प्रमाण पत्र" की तरह बाँटने लगती हैं एक-एक कर,
किसी को "कठजीव" ' (कठकरेज) होने का,
तो किसी के बदचलन होने का प्रमाण पत्र -
" पूर्णिमा 'आँटी' की छोटकी बेटी तो पूरे 'कठजीव' है जी !
तनिक भी ना रोयी थी अपनी विदाई के समय और
"उ" (वह) .. रामचरण 'अंकल' की बड़की (बड़ी) बहू भी तो
"आउरो" (और भी) 'कठजीव' है जी ! है कि ना 'आँटी जी' ? "
" पति की लाश आयी जब "सोपोर" आतंकी हमले के बाद,
तब .. माँ-बेटी , दोनों की आँखों से एक बूँद आँसू नहीं टपका जी !
बस .. भारत माता की जय ! .. भारत माता की जय !!,
वंदे मातरम् ! ,जय हिन्द !!! .. ही केवल चिल्लाती रहीं थीं मगर। "
" और "उ" (वह) .. कौशल्या फुआ की नइकी (नयी) बहू तो ..
बहुते (बहुत) बदचलन है जी !, जो चलती है घर से बाहर तो ..
'लो कट स्लीवलेस' ब्लाउज पहन कर अक़्सर
और मर्दों सब से बतियाती है, जब देखो हँस-हँस कर "
।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय: समाप्त ।।
दृश्य - ३ :-
अब 'रिटायर्ड' मर्दों का थोड़े ही ना कोई मौन व्रत है जी आज ?
उनकी भी कथाओं का अध्याय गति पकड़े हुए है निरंतर,
सत्यनारायण स्वामी जी की कथा के ही समानांतर -
" बिर्जूआ का बेटवा (बेटा) बड़ा कंजूस निकला जी ! ..
तीन दिनों में ही निपटा दिया आर्य समाजी बन कर
और गोतिया-नाता, मुहल्ला-दोस्त, "कंटहवा" (महापात्र ब्राह्मण),
सब का भोज-भात भी कर गया गोल,
पर नहीं बनाया पीसा अरवा चावल, मखाना, तिल का
पिंडदान वाला पिंड मुआ .. नासपिटा .. गोल-गोल,
अपने मरे बाप की आत्मा की शांति की ख़ातिर। "
आगे गिनाते रहे वो सत्तारूढ़ सरकार की नाकामियां सब मिल कर।
तभी मनोहर 'चच्चा' (चाचा) सिन्हा जी की मंझली बेटी का
देकर हवाला, बोले सभी से फ़ुसफ़ुसा कर,
" 'लव मैरिज' सारे .. जरा भी टिकाऊ नहीं होते हैं जी ..
और तो और, 'इंटरकास्ट मैरिज' की भी तो ख़ामियाँ तमाम हैं पर ..
आजकल के छोकरे-छोकरियों को कौन समझाये भला मगर !?
कम उम्र में ही तभी तो करवा कर 'इंटर',
अपनी बेटी को भेज दिया उसके ससुराल, उसे ब्याह कर। "
।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय: समाप्त ।।
दृश्य - ४ :-
अब कथा के चौथे अध्याय में भले ही,
सत्यनारायण स्वामी जी प्रभु के प्रकोप से,
बेचारी लीलावती की बेटी कलावती के पति की
नाव डूब गई हो धारा में किसी नदी की,
पर .. मजाल है कि डूब जाए आवाज़ किसी की,
बोलते वक्त चिल्ला कर समवेत स्वर में - "जय" ;
हर अध्याय के बाद जोर-जोर से शंख बजा-बजा कर
हर बार जब-जब बोलें 'पंडी' जी कि -
" जोर से बोलिए सत्यनारायण स्वामी की जै (जय) !! "
और हाँ .. कथा के बीच-बीच में 'पंडी' जी
गोबर गणेश जी और ठाकुर (शालिग्राम) जी पर भूलते नहीं
"द्रब" (द्रव्य) के नाम पर सिक्का चढ़वाना कभी भी .. शायद ...
।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा पंचम अध्याय: समाप्त ।।
दृश्य - ५ :-
शोर मची अब तो पाँचवे अध्याय के बाद "स्वाहा, स्वाहा" की,
फिर बारी आयी -" ओम जय जगदीश हरे " की,
कपूर की बट्टियों और "गणेश मार्का" पूजा वाले घी की आरती की,
युगलबंदी करती है जिससे खाँसी, भूखे-प्यासे 'अंकल' जी की,
गले में लगती धुआं से .. हवन वाले हुमाद-नारियल की।
कभी सीधी, कभी टेढ़ी करते, 'अंकल' जी अपनी कमर अकड़ी।
भक्त ख़ुश बँधवा कर कलावा और पा कर प्रसाद,
उधर 'पंडी' जी भी खुश पाकर यजमान से दक्षिणा तगड़ी।
" एगो (एक) अँगूर की ही कमी है दीदी, प्रसाद में "- जाते-जाते
बोलीं रामरती चाची-"बांकी तअ (तो) सब अच्छे से हो गया दीदी ।"
उधर घर के लिए आये पाव भर शुद्ध घी के अलग मँहगे लड्डू में से,
'आँटी' जी का बेटा- चिंटू, प्रसाद के दोने वाले पंजीरी में,
एक लड्डू छुपा कर देने से खुश है, कि खुश होगी पड़ोस की चिंकी,
हाँ .. उसकी चिंकी और .. और भी प्रगाढ़ होगा प्रेमपाश .. शायद ...
।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा संपूर्ण।।
उपसंहार :-
तुम भी ना यार ... हद करते हो,
जो भी मन में आये .. अंट-संट बकते हो,
यार .. कुछ तो भगवान से डरा करो .. बस यूँ ही ...
नमस्कार सर, वर्षो से हम इसी तरह की पूजा देख रहे है ।पत्थरों में भगवान को तो खोजते है, पर इंसान के दुख और वेदना नही समझ पाए ।जीता जागता इंसान में भगवांन नही दिखा ये किसी को कोई कैसे समझाये ।
ReplyDeleteनमस्कार ! शुभाशीष संग आभार तुम्हारा .. रचना/विचार को समझ पाने और समर्थन कर के अपनी सोच को सामने रखने के लिए ...
Deleteपंडित जी के पाँचों अध्याय वाचने के साथ ही भक्तों के कितने ही अध्याय खत्म हुए गप्पबाजी के...आलोचनाओं के ...लेकिन जय जयकारे में कहीं कमी नहीं आयी आखिर भक्तगण हैं ...पंडित जी को भी क्या ...दक्षिणा के साथ आरती की थाल में भरे सिक्के और नोटों से मतलब है...।
ReplyDeleteआजकल की आस्था का यही सत्य है...कीर्तन मण्डलियों में फैशनेबल कम्प्टीशन देखते ही बनता है कोरोना ने तो इन मंडलियों पर सबसे बड़ा कहर ढ़ाया बड़ी दया आती है मंडलियों के सभी सदस्यों पर....।
समसामयिक कटु सत्य पर धारदार व्यंग
लाजवाब।
जी ! नमन संग आभार आपका सुधा जी ! .. आपने बतकही/रचना/विचार के मर्म को स्पर्श कर उसके समर्थन में अपने दो शब्दों के साथ बहुत कुछ कह गईं आप .. शायद ...
Deleteसत्यनारायण जी की जय ....
ReplyDeleteसारी ही पोल खोल दिए हैं । बच्चों से ले कर बुजुर्गों तक कि । पंडी जी को भी नहीं छोड़ा ।
घोर नास्तिक हैं 😄😄😄😄
सजीव चित्रण कथा सभा का । क्या कहूँ ?
ये दिखावा ही आस्था को खत्म कर देता है ।
इसीलिए मुझे भी लोग नास्तिक ही समझ लेते हैं । यूँ कहीं भी आँख मूँद ईश्वर का स्मरण भी कर लेती हूँ ।
जी ! नमन संग आभार आपका .. पर मैं अपने आप को नास्तिक कभी भी नहीं मानता हूँ, पूरी तरह आस्तिक हूँ संगीता जी। बस .. सोच का फ़र्क है, मुझे प्रकृति में एक शक्ति नज़र आती है और उसी की उपासना हर पल करता हूँ। उसके लिए अलग से बैठने या ध्यान लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
Deleteआप भी नास्तिक नहीं हो सकतीं, कतई नहीं। जब कभी भी अपने अभिभावक के गोद में राह चलते किसी मुस्कुराते मासूम से आपकी Eye Contact हो जाए या फिर राह चलते कोई पशु-पक्षी आपके पास से गुजरे तो एक अलग अनुभूति होती है और उसी में तथाकथित ईश्वर दर्शन हो जाते है। नदी के बहते पानी को बोतल में भरने से कोई आस्तिक नहीं हो सकता, बल्कि बहती धार में ही आराधना कर सकता है।
फूल तोड़ कर आस्तिक बनने से तो, फूल डाली संग ही निहार कर नास्तिक बनना ज्यादा बेहतर है .. शायद ...
आँखें मूँदने की आवश्यकता ही कहाँ है ?☺☺☺ बस ! खुली निगाह से क़ुदरत को जी भर निहारिये, उस से बड़ा कोई नहीं .. सारा ब्रह्माण्ड ही क़ुदरत है .. बस यूँ ही ...
बिल्कुल सही कहा , ये नास्तिक होना तो तंज के रूप में कहा था कि और लोग ऐसे सोचने वालों को नास्तिक समझने लगते हैं ।
Deleteजी !
Deleteसुबोध भाई, पूजा पाठ का असली चेहरा व्यक्त किया है आपने। बहुत ही करारा व्यंग हर अध्याय में।
ReplyDeleteजी ! ज्योति बहन, नमन संग आभार आपका .. बस मन में जो अटका था बचपन से, अचानक ही उस दिन सुबह-सुबह बस मन से वेब पन्ने पर उतरता चला गया .. बस यूँ ही ...
Delete😀😃 सुबोध जी, गर्क करके छोड़ा पंडित जी को। खाते कमाते पंडित जी के पेट पर लात मत मारिए।😀😃 मतलब बचपन से देखी सभी चीजों का एक शोध काव्य रच दिया आपने। हरियाणा में कहावत है ----- ब्राह्मण के हल नहीं चलते ---
ReplyDeleteये कथा वार्ता ही उनकी रोजी रोटी हैं।
फिर भी बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आपकी। आखिर कोई तो खड़ा हो इस तरह के दिखावे के खिलाफ़।
जी ! नमन संग आभार आपका .. पर नहीं, हमने किसी के तोंद पर लात नहीं चलायी, इस तरह आप सरेआम दोषारोपण कर के पिटवाने का इरादा है क्या आपका 😃😃😃
Deleteहरियाणा क्या .. वक्त के साथ पूरे ब्रह्माण्ड के कहावत और हालत, दोनों ही परिवर्तित होते रहते हैं, कल तक के "चन्दा मामा दूर के", आज कॉलोनियां बसाने की ज़मीन बन गयी है।
वैसे आज किसी भी व्यवसाय का किसी भी तथाकथित जाति विशेष की Copyright नहीं रह गया है, पर यही एक "बरगलाने वाला व्यवसाय" है जो इनकी Copyright बना हुआ है .. शायद ...
और हाँ .. किसी के खड़ा होने की आवश्यकता नहीं, बल्कि घर-घर में इन विषयों पर आडंबर की चश्मा को हटाते हुए, तटस्थ हो कर आपस में इसके औचित्य के मंथन करने की आवश्यकता है .. बस यूँ ही ...