Monday, April 12, 2021

मन भी दिगम्बर किया जाए ...

यूँ तो 10 फ़रवरी' 2021 को अपने इसी ब्लॉग पर "रिश्ते यहाँ अक़्सर ..." शीर्षक के अन्तर्गत अपनी बतकही/रचनाओं से पहले आज अभी अपने कर रहे इस बकबक की तरह ही ठीक उस दिन के भी बकबक के तहत .. पढ़ाई के कोर्स/पाठ्यक्रम (Course) को भोजन की भी तीन कोर्सों - स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ), मेन कोर्स (Main Course ) और डेज़र्ट (Dessert) से जोड़ने की कोशिश भर की थी .. बस यूँ ही ...

वो मेरी बकबक अभी भी कहीं याद हो आपको .. शायद ... ना भी हो तो कोई बात नहीं। फ़ुर्सत मिले कभी तो याद कीजियेगा या फिर एक बार झाँक ही आइएगा उस पोस्ट को। फ़िलहाल आज के मुद्दे पर आते हैं और आज की अपनी तीनों रचनाओं (?) में से पहली (१) "स्टार्टर" के तौर पर, दूसरी (२) "मेन कोर्स" और फिर तीसरी को (३) "डेज़र्ट" के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ... :)

(१)
सर्द-अँधेरी रात से तुम्हारा
हो जाए कभी जो सामना,
आना मेरी जलती चिता तक
तपिश भी मिलेगी और ..
रोशनी भी यहाँ .. बस यूँ ही ...


(२) मन भी दिगम्बर किया जाए ...

लाख हैं मुखौटे मुखड़ों पर, तन पर तंतु के ताने-बाने,
मिलो जो एक शाम तो, मन को दिगम्बर किया जाए।

हवा ही तान चुकी है खंज़र, बंजर हो गई हों जब सोचें,
बतलाओ तुम ही जरा, कैसे जीवन बसर किया जाए।

मर के स्वर्ग मिलने के तो दिखाए अक़्सर सपने सबने,
सब्र नहीं इतनी, धरती को ही आज अंबर किया जाए।

पद, पैसे, पत्थरों को तो यूँ आए हैं हम सदियों पूजते,
कभी तो मज़दूरों, किसानों को भी आदर दिया जाए।

यूँ कोख़ के क़ैदी, कभी धरती के उम्रक़ैदी हैं हम सारे,
अमन हो जमाने में, मसीहे को रिहा अगर किया जाए।

कहते हैं लोग, पर जाने कब-कैसी ज़हर पी होगी "उसने",
आता तो जानता, कैसे पी के मौजूदा ज़हर जिया जाए।

गाए हैं यूँ कई बार-"हम होंगें कामयाब, एक दिन" हमने,
उम्र बीती .. रीती नहीं, कामयाबी का सबर किया जाए।

पाए गए हैं आज हम जो "कोरोना पॉजिटिव" जाँच में,
कमरे में अपने, अपनों को भी कैसे अंदर लिया जाए।

तन दिगम्बर होते हैं अक़्सर खजुराहो सरीखे बस यूँ ही ...
रूमानी रातों में, कभी तो मन भी दिगम्बर किया जाए।

(३)
'हुआँ-हुआँ' की नगरी,
ऊहापोह की गठरी है।
सब की अपनी-अपनी,
संग साँसों की गगरी है .. शायद ...

और आज चलते-चलते अपने मन के काफी क़रीब, स्वयं के बारे में बयान करती हुई बहुत अरसे पहले लिखी गई चंद पंक्तियाँ, जिसे मैं अक़्सर दोहराता हूँ .. उन्हें आज एक बार फिर दोहराने का मन कर रहा है .. बस यूँ ही ...

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा ...







 


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