एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ .. मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।
अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद ) के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?
इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं।
ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।
बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ... रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।
खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ... :-
जय जवान और जय किसान
जय जवान और जय किसान,
भारत के दो नौजवान।
जय जवान करे दुश्मन दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।
भारत के दो नौजवान।
जय जवान करे दुश्मन दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।
हम सब का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई रत्न।
हम नहीं डरेंगे तूफ़ान से,
हम सदा लड़ेंगे शान से।
जहाँ कमल,मोर जैसे कई रत्न।
हम नहीं डरेंगे तूफ़ान से,
हम सदा लड़ेंगे शान से।
सदा ही दुश्मन दूर भगायेंगे,
सदा आगे ही बढ़ते जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम सब भारत नया बसाएंगे।
सदा आगे ही बढ़ते जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम सब भारत नया बसाएंगे।
आओ! याद करें क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या शान उन्होंने थी पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या शान उन्होंने थी पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।
आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें बचा कर वतन की शान।
जय जवान और जय किसान,
भारत के दो नौजवान।
रखें बचा कर वतन की शान।
जय जवान और जय किसान,
भारत के दो नौजवान।
बहुत खूब
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11.6.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3729 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी ! आभार आपका ...
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज गुरुवार (11-06-2020) को "बाँटो कुछ उपहार" पर भी है।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी ! आभार आपका ...
Deleteपहली कविता, भले ही आज कैसी भी लग रही हो पर देश के प्रति प्रेम को खुल कर उजागर तो किया ही है
ReplyDeleteजी ! आभार आपका रचना/विचार को समय देने के लिए ... सच में उस समय पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़ कर जो भी देशप्रेम पनपी हो, वही तुकबन्दी में ढल गई ...
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी ! आभार आपका ... मेरी पहली कविता को मंच पर जगह देने के लिए ...
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteलाजवाब है।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteआप भले इसे तुकबंदी कह लें, लेकिन हमें तो लगता है कि उम्र के हिसाब से पाँचवी कक्षा में आपका 'कविता का सेंस' आज से लाख गुना बेहतर था! :)
ReplyDeleteजी! आभार आपका .. वैसे कविता का सेंस या कविता की परिभाषा तो आज भी नहीं मालूम मुझे :) ... हाँ , उन दिनों तुकबन्दी को ही कविता समझता था बेशक़ .. बाद में, या अब तो केवल भावाभिव्यक्ति का एक जरिया भर नज़र आती है कविता और लिख जाते हैं मन की भड़ास .. बस यूँ ही... :)
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