हे माँ भवानी ! ...
दूर करो जरा मन की मेरी हैरानी
कि .. मिट्टी भला मेरे दर की
आते हैं हर साल क्यों लेने
कुम्हार .. तेरी मूर्त्ति गढ़ने वाले ...
सदियों से हम भक्त ही तो सारे
उपवास या फलाहार हैं करते
अबकी तो तेरी भी हुई है फ़ाक़ाकशी
पड़े हैं तेरे सारे दरों पर ताले ...
तू तो मूरत है .. लोग तेरे हैं दीवाने
पर हम रोज़ कमाने-खाने वाली
कामुकों के बिस्तर गरमाने वाली
पड़े हैं मेरे कोठे पर खाने के लाले ...
मज़दूर-भिखारी सब सारे के सारे
पा भी जायेंगें शायद सरकारी भत्ते
आज पा रहे कई संस्थाओं से खाने
भला कोई मेरी ओर भी तो निगाह डाले ...
थमा है आज प्रगति का प्रतीक - पहिया
सामाजिक प्राणी का है बन्द मिलना-जुलना
जाति-धर्म-वर्ग में कोई भेद रहा ना
बहुत सही।
ReplyDeleteमाँ सबकी रक्षा करो।
जी ! काश ! कर पातीं माँ रक्षा ...
Deleteसुबोध जी ,रचना पर कई बार आई . लौट गई ! समझ नहीं पाई क्या लिखूं ?माँ भवानी को ये एक अभागी बेटी का करुण उद्बोधन ह्रदय को विदीर्ण कर गया | समाज के ये कैसे दोहरे मापदंड कि जिस चौखट पर कथित शरीफ लोग दिन के उजाले में जाने से भी कतराते हैं [ ऐसा सुना है मैंने , क्योंकि एक गाँव और फेर छोटे शहर से होने के कारण कभी ये बात समझ नहीं पाई ऐसे कौन लोग हैं जिनके कारण ये अमूमन समाज में हेय दृष्टि से देखे जाने वाले इस एरिया को रातों में गुलज़ार करने वाले वो मुखोताधारी लोग है कौन ? ] उसी आँगन की मिटटी से माँ भवानी की मूर्ति गढने के की परम्परा है पर वही आंगन हकीकत में किसी गिनती में नहीं |काश !माँ भवानी समाज से तिरस्कृत अपनी इस बेटी की ये आर्त पुकार सुनने में सक्षम होती , तो उसके न्याय पर कभी ऊँगली ना उठती |
ReplyDeleteजी ! आभार आपके विश्लेषणात्मक समीक्षा और उदबोधनयुक्त प्रतिक्रिया के लिए ...ये सवाल होश सँभालने और समझ आने के बाद से मन को सोचने पर मजबूर करता है ...
Deleteकृपया फेर नही फिर पढ़ें
ReplyDeleteमुखोताधारी लोग को मुखौटाधारी पढ़ें 🙏🙏
जी !
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