निकला करती थी टोलियां बचपन में जब कभी भी
हँसती, खेलती, अठखेलियां करती सहपाठियों की
सुनकर चपरासी की बजाई गई छुट्टियों की घंटी
हो जाया करता था मैं उदास और मायूस तब भी
देखता था जब-जब ताबड़तोड़ चोट करती हुई
टंगी घंटी पर चपरासी की मुट्ठी में कसी हथौड़ी ...
पता कहाँ था तब मेरे व्यथित मन को कि ...
जीवन में कई चोट है लगनी निज मन को ही
मिलने वाली कई-कई बार अपनों और सगों की
इस घंटी पर पड़ रहे चोट से भी ज्यादा गहरी
हाँ .. चोटें तो खाई अनेकों कई बार यूँ हम ने भी
पर परोसी रचनाएँ हर बार नई चोटिल होकर ही ...
क्यों कि सारी चोटें चोटिल कर ही जाएं हर को
ऐसा हो ही हर बार यहाँ होना जरुरी तो नहीं
कई बार गढ़ जाती हैं यही चोटें मूर्तियां कई
तबले हो या ढोल .. ड्रम, डफली या हो डमरू
हो जाते हैं लयबद्ध पड़ते ही चोट थाप की
चोट पड़ते ही तारें छेड़ने लगती हैं राग-रागिनी ...
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हँसती, खेलती, अठखेलियां करती सहपाठियों की
सुनकर चपरासी की बजाई गई छुट्टियों की घंटी
हो जाया करता था मैं उदास और मायूस तब भी
देखता था जब-जब ताबड़तोड़ चोट करती हुई
टंगी घंटी पर चपरासी की मुट्ठी में कसी हथौड़ी ...
पता कहाँ था तब मेरे व्यथित मन को कि ...
जीवन में कई चोट है लगनी निज मन को ही
मिलने वाली कई-कई बार अपनों और सगों की
इस घंटी पर पड़ रहे चोट से भी ज्यादा गहरी
हाँ .. चोटें तो खाई अनेकों कई बार यूँ हम ने भी
पर परोसी रचनाएँ हर बार नई चोटिल होकर ही ...
क्यों कि सारी चोटें चोटिल कर ही जाएं हर को
ऐसा हो ही हर बार यहाँ होना जरुरी तो नहीं
कई बार गढ़ जाती हैं यही चोटें मूर्तियां कई
तबले हो या ढोल .. ड्रम, डफली या हो डमरू
हो जाते हैं लयबद्ध पड़ते ही चोट थाप की
चोट पड़ते ही तारें छेड़ने लगती हैं राग-रागिनी ...
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जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१३ जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभार आपका .... परन्तु तकनिकी त्रुटि के कारण रचना आपके पढ़ने तक अधूरी थी, अभी ठीक कर के पूर्ण किया है ... पुनः अवलोकन अपेक्षित ...
Deleteशुभप्रभात, चोट जैसी नकारात्मक विषय पर भी आपने विस्मयकारी रचना लिख डाली हैं । मेरी कामना है कि यह प्रस्फुटन बनी रहे और हमारी हिन्दी दिनानुदिन समृद्ध होती रहे। हलचल के मंच को नमन करते हुए आपका भी अभिनंदन करता हूँ ।
ReplyDeleteनमस्कार आपको ! और आभार भी रचना तक आने के लिए ... आपकी कामना के लिए शुक्रिया ... पर समृद्धि कभी स्थायी नहीं होती ... सब कुछ परिवर्तनशील है ... हर पल .. अनवरत ..
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteवाह!!सुबोध जी ,बहुत खूबसूरत रचना !
ReplyDeleteआभार आपका शुभा जी !....
ReplyDeleteबहुत ही सराहनीय है चोट पर ये अप्रितम चिंतन सुबोध जी , वो भी आपकी विशिष्ट शैली में | गीतकार लिखता है -- है सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते है-----यही है संसार का कडवा सच , जो दर्द से उपजा है रसिकों को उसी में अभूतपूर्व आनन्द मिला है | तभी तो वेदना से उपजा सृजन मानवता की अनमोल थाती रहा है | स्कूल की घंटी स्वछन्द व्यक्तित्व को समय के अनुशासन में बाँधने का प्रयास मात्र है पर शब्दप्रहार उसी प्रकार एक व्यक्तित्व को संवारते हैं जैसे एक एक मूर्ति अनगिन जख्म तन पर समेटकर पूज्य पुनीत बनती है | और सच है प्रहार या चोट से रिक्त कोई साज़ कब सुरों का जादू जगा पाने में सक्षम हुआ है | भले ही इस जादू के पीछे की पीड़ा अनदेखी ही रही है सदा ----- जिसे गीतकार ने यूँ लिखा दिया -------------
ReplyDeleteजो तार से निकली है धुन सबने सुनी है
जो साज़ पे गुजरी है वो किस दिल को पता है ??????????
सादर
आप भी जब रचना तक आती हैं तो अपनी ही विशिष्ट शैली में विश्लेषणात्मक समीक्षा को प्रतिक्रिया के रूप में परोसती हैं तो रचना/विचार को चार चाँद लग जाता है ... शुक्रिया और आभार आपका रचना तक आने के लिए ...
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी! आभार आपका ...
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