हमारे भारतीय समाज में परिवार की आदर्श पूर्णता वाले मापदण्ड यानि दो बच्चें - हम दो , हमारे दो - और ऐसे में अगर दोनों में एक तथाकथित मोक्षदाता- बेटा हो, तब तो सोने पर सुहागा। उसी मापदण्ड के तरह ही ट्रक-ड्राईवर रमुआ और उसकी धर्मपत्नी- रमरातिया को भी एक सात साल की बिटिया- सुगिया और एक पाँच साल का बेटा- कलुआ है।
दोनों भाई-बहन अपने गाँव के ही पास वाले एक ही मिडिल स्कूल के एक ही कक्षा- तीन में पढ़ते हैं। दरअसल सुगिया के दो साल बड़ी होने के बावजूद उसकी पढ़ाई भी भाई कलुआ के साथ ही शुरू करवाई गई थी।
एक दिन सामान्य-विज्ञान की कक्षा में शिक्षक पढ़ा रहे थे - " बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
उसी समय दोनों भाई-बहन कक्षा में ही ऊँघ रहे थे। शिक्षक महोदय की नज़र उन दोनों पर पड़ते ही वे आग-बबूला हो गए। अपने हाथ की हमजोली ख़जूर की छड़ी सामने के मेज पर पटकते हुए बोले - " का (क्या) रे तुम दोनों रात भर खेत में मिट्टी कोड़ रहा था का (क्या)? चल ! इधर आके (आकर) दुन्नो (दोनों) मुर्गा बन के खड़ा हो जाओ। "
कलुआ अपनी शरारती आदतानुसार मुर्गा बनने के पहले बोल पड़ा - " सर ! हम तअ (तो) मुर्गा बन ही जाएंगे, पर सुगिया दीदी के तअ (तो) मुर्गी बने पड़ेगा ना !? "
कक्षा के सारे विद्यार्थी ठहाका मार के हँस पड़े। पर प्रतिक्रिया में शिक्षक के चिल्लाते हुए डाँटते ही - " चुप !!! .. शांति से रहो सब। ना तो सब के धर (पकड़) के कूट देंगें। समझे की नहीं !? " सब सटक सीता-राम हो गए।
तभी सुगिया रुआंसी हो कर बोल पड़ी -" सर ! हमलोग सच में रात भर सो नहीं पाए हैं। कल भोरे (सुबह) से लेकर रातो (पूरी रात) भर आ स्कूल आबे (आने) के समय तक घर के बगल में फूल्लन चच्चा (चाचा) के घरे (घर) "जागरण" हो रहा था सर। खूब जोर-जोर से लाउडस्पीकर में "हरे रामा- हरे कृष्णा - कृष्णा, कृष्णा - हरे-हरे " चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी सर।"- लगभग रो पड़ी थी सुगिया - " अब एकरा में हम दुन्नो (दोनों) भाई-बहिन के का (क्या) दोष है सर!? आज भर माफ़ कर दीजिए ना। अब से ना करेंगे ऐसा।"
"जाओ ! जा के बैठो दुन्नो (दोनों) अप्पन-अप्पन (अपना -अपना) सीट पर। " - शिक्षक महोदय के इतना कहते ही दोनों अपने-अपने जगह पर वापस जा कर बैठ गए।
लेकिन कलुआ तो ठहरा शरारती .. जाते-जाते तपाक से पूछ बैठा सर से - " आयँ ! सर ! भगवान जी बहिरा (बहरा) हैं का (क्या) !? .. जे (जो) एतना (इतना) जोर से सब चिल्लाते हैं। उ (वो) भी भोरे (सुबह) से लेके (लेकर) रातो (पूरी रात) भर। एकदम से मन अनसा (चिड़चिड़ा) जाता है। " - अपनी दीदी-सुगिया की ओर मुँह करके - " है की ना दीदी !? ".
" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तो फिर मुर्गा बना देंगे तुमको। " - शिक्षक के गुर्रारते ही कलुआ शांत हो गया।
शिक्षक महोदय इस व्यवधान के बाद फिर से विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिए - " हाँ तो बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
तभी कलुआ से रहा नहीं गया। भरी कक्षा में खड़ा हो कर बीच में ही आश्चर्य भरे लहजे में अपने शिक्षक से बोला - " पर सर ! मम्मी आ दादी तअ कहती है कि सूरज भगवान हैं। ठेकुआ वाला भगवान। आउर (और) उनकी दु ठो (दो) पत्नी भी है। एगो (एक) रथ भी है जिसको सात गो घोड़ा मिलकर दौड़ाता है। उसी से तो दिन और रात होता है। "
" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तअ (तो) अभी सच में मुर्गा बना देंगे तुमको। बहुत ज्यादा मुँह चलाता है। " - शिक्षक जी जोर से बमक कर उसे घुड़के और फिर पढ़ाने लगे - " हाँ .. तो बच्चों सूरज आग का गोला है। "
( "गो"/"ठो" - बिहार राज्य में स्थानीय भाषा में अंक या संख्या को बोलते समय उनके बाद "गो" या "ठो" का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। )
दोनों भाई-बहन अपने गाँव के ही पास वाले एक ही मिडिल स्कूल के एक ही कक्षा- तीन में पढ़ते हैं। दरअसल सुगिया के दो साल बड़ी होने के बावजूद उसकी पढ़ाई भी भाई कलुआ के साथ ही शुरू करवाई गई थी।
एक दिन सामान्य-विज्ञान की कक्षा में शिक्षक पढ़ा रहे थे - " बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
उसी समय दोनों भाई-बहन कक्षा में ही ऊँघ रहे थे। शिक्षक महोदय की नज़र उन दोनों पर पड़ते ही वे आग-बबूला हो गए। अपने हाथ की हमजोली ख़जूर की छड़ी सामने के मेज पर पटकते हुए बोले - " का (क्या) रे तुम दोनों रात भर खेत में मिट्टी कोड़ रहा था का (क्या)? चल ! इधर आके (आकर) दुन्नो (दोनों) मुर्गा बन के खड़ा हो जाओ। "
कलुआ अपनी शरारती आदतानुसार मुर्गा बनने के पहले बोल पड़ा - " सर ! हम तअ (तो) मुर्गा बन ही जाएंगे, पर सुगिया दीदी के तअ (तो) मुर्गी बने पड़ेगा ना !? "
कक्षा के सारे विद्यार्थी ठहाका मार के हँस पड़े। पर प्रतिक्रिया में शिक्षक के चिल्लाते हुए डाँटते ही - " चुप !!! .. शांति से रहो सब। ना तो सब के धर (पकड़) के कूट देंगें। समझे की नहीं !? " सब सटक सीता-राम हो गए।
तभी सुगिया रुआंसी हो कर बोल पड़ी -" सर ! हमलोग सच में रात भर सो नहीं पाए हैं। कल भोरे (सुबह) से लेकर रातो (पूरी रात) भर आ स्कूल आबे (आने) के समय तक घर के बगल में फूल्लन चच्चा (चाचा) के घरे (घर) "जागरण" हो रहा था सर। खूब जोर-जोर से लाउडस्पीकर में "हरे रामा- हरे कृष्णा - कृष्णा, कृष्णा - हरे-हरे " चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी सर।"- लगभग रो पड़ी थी सुगिया - " अब एकरा में हम दुन्नो (दोनों) भाई-बहिन के का (क्या) दोष है सर!? आज भर माफ़ कर दीजिए ना। अब से ना करेंगे ऐसा।"
"जाओ ! जा के बैठो दुन्नो (दोनों) अप्पन-अप्पन (अपना -अपना) सीट पर। " - शिक्षक महोदय के इतना कहते ही दोनों अपने-अपने जगह पर वापस जा कर बैठ गए।
लेकिन कलुआ तो ठहरा शरारती .. जाते-जाते तपाक से पूछ बैठा सर से - " आयँ ! सर ! भगवान जी बहिरा (बहरा) हैं का (क्या) !? .. जे (जो) एतना (इतना) जोर से सब चिल्लाते हैं। उ (वो) भी भोरे (सुबह) से लेके (लेकर) रातो (पूरी रात) भर। एकदम से मन अनसा (चिड़चिड़ा) जाता है। " - अपनी दीदी-सुगिया की ओर मुँह करके - " है की ना दीदी !? ".
" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तो फिर मुर्गा बना देंगे तुमको। " - शिक्षक के गुर्रारते ही कलुआ शांत हो गया।
शिक्षक महोदय इस व्यवधान के बाद फिर से विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिए - " हाँ तो बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
तभी कलुआ से रहा नहीं गया। भरी कक्षा में खड़ा हो कर बीच में ही आश्चर्य भरे लहजे में अपने शिक्षक से बोला - " पर सर ! मम्मी आ दादी तअ कहती है कि सूरज भगवान हैं। ठेकुआ वाला भगवान। आउर (और) उनकी दु ठो (दो) पत्नी भी है। एगो (एक) रथ भी है जिसको सात गो घोड़ा मिलकर दौड़ाता है। उसी से तो दिन और रात होता है। "
" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तअ (तो) अभी सच में मुर्गा बना देंगे तुमको। बहुत ज्यादा मुँह चलाता है। " - शिक्षक जी जोर से बमक कर उसे घुड़के और फिर पढ़ाने लगे - " हाँ .. तो बच्चों सूरज आग का गोला है। "
( "गो"/"ठो" - बिहार राज्य में स्थानीय भाषा में अंक या संख्या को बोलते समय उनके बाद "गो" या "ठो" का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। )
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 05 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteनमन और हार्दिक आभार यशोदा जी मेरी रचना को "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" में साझा कर के मान बढ़ाने के लिए।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-12-2019) को "पत्थर रहा तराश" (चर्चा अंक-3541) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर नमन आपको ! आभार मेरी रचना साझा करने के लिए।
Delete( कृपया दिनांक 05 के स्थान पर 06 कर लीजिए। )
बच्चों को कन्फ्यूज करनेवाली बहुत सी कथाएँ हमारी लोक परंपरा में हैं। क्या आश्चर्य कि कोई बच्चा कहे "चाँद धरती का उपग्रह नहीं, वो तो हमारे मामा हैं!"
ReplyDeleteअच्छी कहानी, मास्टरजी को बच्चे का भ्रम दूर कर देना चाहिए था।
जी मीना जी , हमारा सारा समाज चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय का हो, भावी पीढ़ी की सोचों को अपने पुरखों से मिले अनेकों मिथक की गाढ़ी चाशनी में ऐसा डुबो कर रखा है कि बेचारे अपनी सोचों को विस्तार दे ही नहीं पाते।
Deleteइसका परिणाम यह होता है कि हम कोई बड़ा तकनिकी सामान/यंत्र या एक मामूली-सी "सेफ़्टी-पिन" भी विदेश (अमेरिका) में आविष्कार होने के बाद ही अपना पाते हैं।
अंधविश्वास की जड़े बहुत गहरी हैं माना उखाड़ नहीं सकते विशाल वृक्ष किंतु जड़ हिलाने का प्रयास तो कर ही सकते हैं।
ReplyDeleteप्रेरक कहानी जो अनेक मुद्दों पर ध्यानाकर्षित करती है।
जी ! शुक्रिया आपका .. वैसे .. काश ! पानी बरसाने के लिए हवन करने वाली संस्कृति भी इसे समझ पाती ..
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