एक हरी-भरी पहाड़ी की वादियों पर जाड़े की खिली धूप में क्रिसमस की छुट्टी के दिन दोपहर में पिकनिक मनाने आए कुछ सपरिवार सैलानियों को देखकर एक मेमना अपनी माँ यानी मादा भेड़ से ठुनकते हुए बोली -
" माँ ! देखो ना हमारे ही धूसर रंग के कतरे गए बाल से बने हुए कितने सारे रंगों में ऊनी कपड़े पहने हुए आदमी के बच्चे कितने सुन्दर लग रहे हैं। है ना ? " लाड़ जताते हुए आगे बोला - " हमको भी ऐसा ही शहर के किसी अच्छे दुकान से खरीदवा दो ना, प्लीज़ ! "
भेड़ी अपने मेमने पर घुड़की -
" तुम अभी नादान हो , इसलिए ऐसा बोल रहे हो। तुमको पता नहीं अभी तक कि इनकी रंग-बिरंगी दुनिया कितनी वहम और भ्रम से भरी पड़ी है। "
" वो कैसे भला माँ !? "
" हमारे लोगों में सभी अपने खालों के रंगों से ही तो पहचाने जाते हैं ना ? बकरा हो या भालू .. हिरण हो या हिंसक शेर ... वे जो हैं, वही रहते हैं .. भालू बस भालू ही होता है "
" हाँ .. तो !? "
" पर इन आदमियों के समाज में ऐसा नहीं होता। ये इंसान ... इंसान नाम से कम और अलग-अलग लिबासों में हिन्दू ... मुसलमान जैसे नामों से जाने जाते हैं। कोतवाल और वकील के नाम से जाने जाते हैं। सबने अपने-अपने अलग-अलग रंग तय कर रखे हैं - गेरुआ, हरा, सफेद,ख़ाकी और भी कई-कई ... "
हमारे यहाँ कौन शाकाहारी , कौन मांसाहारी या सर्वाहारी है, हम आसानी से इनके खाल के रंगों से पहचान लेते हैं। इनके समाज में पहचानना बहुत ही मुश्किल है।
" ओ ! अच्छा !? "
" हाँ .. और नहीं तो क्या !? क्या अब भी चाहिए तुमको इनके जैसे रंग-बिरंगे रंगीन कपड़े और अपने पहचान खोने हैं !? "
" नहीं माँ .. हम एक रंग में रंगे ही ज्यादा बेहतर हैं। "
" माँ ! देखो ना हमारे ही धूसर रंग के कतरे गए बाल से बने हुए कितने सारे रंगों में ऊनी कपड़े पहने हुए आदमी के बच्चे कितने सुन्दर लग रहे हैं। है ना ? " लाड़ जताते हुए आगे बोला - " हमको भी ऐसा ही शहर के किसी अच्छे दुकान से खरीदवा दो ना, प्लीज़ ! "
भेड़ी अपने मेमने पर घुड़की -
" तुम अभी नादान हो , इसलिए ऐसा बोल रहे हो। तुमको पता नहीं अभी तक कि इनकी रंग-बिरंगी दुनिया कितनी वहम और भ्रम से भरी पड़ी है। "
" वो कैसे भला माँ !? "
" हमारे लोगों में सभी अपने खालों के रंगों से ही तो पहचाने जाते हैं ना ? बकरा हो या भालू .. हिरण हो या हिंसक शेर ... वे जो हैं, वही रहते हैं .. भालू बस भालू ही होता है "
" हाँ .. तो !? "
" पर इन आदमियों के समाज में ऐसा नहीं होता। ये इंसान ... इंसान नाम से कम और अलग-अलग लिबासों में हिन्दू ... मुसलमान जैसे नामों से जाने जाते हैं। कोतवाल और वकील के नाम से जाने जाते हैं। सबने अपने-अपने अलग-अलग रंग तय कर रखे हैं - गेरुआ, हरा, सफेद,ख़ाकी और भी कई-कई ... "
हमारे यहाँ कौन शाकाहारी , कौन मांसाहारी या सर्वाहारी है, हम आसानी से इनके खाल के रंगों से पहचान लेते हैं। इनके समाज में पहचानना बहुत ही मुश्किल है।
" ओ ! अच्छा !? "
" हाँ .. और नहीं तो क्या !? क्या अब भी चाहिए तुमको इनके जैसे रंग-बिरंगे रंगीन कपड़े और अपने पहचान खोने हैं !? "
" नहीं माँ .. हम एक रंग में रंगे ही ज्यादा बेहतर हैं। "
वाह...कितना सुंदर संदेश है।
ReplyDeleteकहानी की पृष्ठभूमि भी बेहद सराहनीय है।
आभार आपका ...
Deleteसुबोध भाई, गहरा संदेश देती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteआभार आपका ...
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-12-2019) को "शब्दों का मोल" (चर्चा अंक-3562) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता लागुरी 'अनु '
आभार आपका रचना को मान देने के लिए ...
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका आभार रचना का मान बढ़ाने के लिए ...
Deleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteनहीं बनाना उन्हें ऐसे आदमी!
ReplyDeleteवाह! बहुत अच्छा सन्देश!
आभार आपका ...
Deleteबहुत खूब ,सुंदर संदेश देती रचना ,सादर नमन
ReplyDeleteआपको भी नमन .. और आभार आपका रचना तक आने के लिए ...
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