माना कि ... बिना दिवाली ही
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...
जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..
और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो .. शहीद हो चुके ...
पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...
जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..
और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो .. शहीद हो चुके ...
पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...
आम ही रहिये..
ReplyDeleteखास बनते ही
चौक पर बोर्ड
लग जाएगा..
150/-रु. किलो
सादर बत्तीसी..
दिग्विजय जी सर्वप्रथम सादर नमन आपको और हार्दिक आभार मेरी रचना तक आने के लिए... वैसे तो मैं आम ही हूँ, मानता भी हूँ, बस अपनी विचारधारा साझा करता हूँ ... कभी भी ख़ास बनने की कोशिश नहीं की मैंने ... हाँ, अब सोच ही अगर कुछ अजीबोगरीब है तो ... क्या करूँ ... ये भी उसी क़ुदरत की नियामत है .. ऐसा मानता हूँ।
Deleteख़ास तो शुद्ध लिखने वाले साहित्यकार लोग होते हैं , ऐसा ही सुना है अब तक और मैं तो कई गलतियाँ कर जाता हूँ ..
सलाम है मां भारती के उन शूरवीरों को जो देश की सरहदों पर दुश्मनों के नापाक मनसूबों को मुहँ तोड़ जवाब देकर हमारी रक्षा करते हैं
ReplyDeleteएक शहीद की पत्नी के मन व्यथा व इंतजार की सुंदर भावअभिव्यक्ति
शुभकामनाएं
मेरी नयी post दुआ पर पधारें
भाई .. आभार आपका कविता के मर्म को स्पर्श करने के लिए ...
Deleteआप भी बस लिखते जाइए ... दाएँ-बाएं झाँकने की जरुरत नहीं ...
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२१ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,
हार्दिक आभार आपका श्वेता जी , (नमन नहीं बोल रहा आपको)...
Deleteबेहतरीन रचना । दिवाली-सी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसराहना के लिए आभार आपका ... एक दिवाली ही नहीं उम्रभर के लिए मेरी शुभकामनाएं आपके और आपके अपनों के लिए ...
Deleteवाह!!बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति । एक शहीद की पत्नी की मनोव्यथा का बखूबी चित्रण किया है अपने सुबोध जी ।
ReplyDeleteरचना की सराहना के लिए आभार आपका ... रचना के मर्म-स्पर्श के लिए नमन ...
Deleteसुन्दर भाव। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसराहना और शुभकामनाओं के लिए आपका हार्दिक आभार जोशी जी ....
Deleteवाह वाह वाह!! क्या रचना है। लाजवाब। अद्भूत। दीपावली पर लिखी गई और मेरे द्वारा पढी गई सभी रचनाओं में यह बिल्कुल भिन्न रचना है। भावुक रचना।
ReplyDeleteआप सच्च में बधाई के पात्र हैं। यूँ ही लिखते रहिए।
शुभकामना।
नमस्कार बंधु ! सराहना और शुभकामना ... दोनों के लिए आभार आपका ... ये " बिल्कुल भिन्न " ही कभी-कभी आपको अह्लादित कर जाती है ... कभी किसी का मन खट्टा ... बस नजरिए , सोच और मानसिकता का प्रतिफल होती हैं प्रतिक्रियाएं ...
ReplyDeleteजब भी आप झाँकेंगे ... निराश नहीं होंगे ... कुछ अलग रंग ही मिले शायद हर बार ...
बड़े मतलबी हो गए हैं हम।
ReplyDeleteअपने मतलब से हमने मोमबत्तियां जलाई
अपने मतलब से ही उस प्रतिमा के साथ फोटो ली
हम इक्कठे भी हुए तो भी अपने मतलब के लिए।
और फिर फैला देते हैं कुछ झूठा सकूं देने वाला कचरा।
शांति बस इन्ही मोमबत्तियो से आने वाली हो जैसे।
बस जिस पर बीत रही है असली मर्म वही जाने है। उसको पता ही पता है कि ये शांति किस उदासी की बिनाख पर पसरी है।
इंतज़ार में रही उस मां या पत्नी को पता है इस शांति की असली कीमत। ऐसी मोमबत्ती उनके सीने में जलती है जो शांति नहीं फैलती बल्कि मांस जलाती है धीरे धीरे...और इस पीड़ा की चीख आपके नारों से दब जाती है।
आह... हम लोग बेहद मतलबी।
उम्दा रचना।
आपकी प्रतिक्रिया पुनः अश्रुपूर्ण नयन कर गई, जो ये रचना लिखते वक्त भी हुई थी ... ये मेरा कमजोर पक्ष है भावना में बह कर रोना या सुबकना ... खैर! बहरहाल एक बात और कि जब इन सारी दिखावटी प्रक्रियाओं हाथ कहीं और ... और थोबड़ा कैमरे के तरफ तब सच में मन खट्टा हो जाता है ... बंधू ... मौकापरस्ती और मतलबपरस्ती कई दोपायों की फ़ितरत है .. पर बोलना मना है भाई ....हार्दिक आभार आपका बंधु ...
Deleteबहुत ही भावपूर्ण हृदयस्पर्शी उत्कृष्ट सृजन
ReplyDelete. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
हार्दिक आभार सुधा जी और नमन भी ...
Deleteदिल को दहलाती दिवाली। संवेदना का सरगम।
ReplyDeleteपुनः प्रेमसिक्त नमन और हार्दिक आभार आपका ... मुझे लगा शायद मैंने "हसुआ के बिआह में खुरपी के गीत" तो नहीं गा दिए ...सच कहूँ तो ...डर रहा था मैं इसे प्रकाशित/साझा करने के पहले...
Deleteबेहतरीन !
ReplyDeleteएक बात कहना जरूर चाहूँगी, हम सब, जी हाँ सब, जिसमें आप और मैं स्वयं भी शामिल हैं, अपने अपने मन को खट्टा होने से बचाएँ।
मीठे बोलों से मीठा
कोई उपहार नहीं,
पर्व यह प्रकाश का,
हमको सिखाए है।
हम सब बस यूँ ही लिखते हैं। पर कुछ लोग बहुत अच्छा लिखते हैं, बस यूँ ही में भी। आपकी रचनाएँ बहुत अच्छी होती हैं।
हार्दिक आभार मीना जी ! मैं भी यही मानता हूँ कि हमें बस यूँ ही लिखते रहना चाहिए और निर्णय कुछ हद तक भावी पीढ़ी पर छोड़ना चाहिए ... अगर ऐसा नहीं होता तो हम आज भी दिया या लालटेन जला रहे होते ... किसी काल के भावी पीढ़ी ने ही हमें क्रमानुसार बल्ब, सी ऍफ़ एल और एल ई डी का उपहार दिया हैं। अगर हम अपनी दिया-बाती जबरन थोपते तो हम सफेद रोशनी नहीं पीली रोशनी में ही जी रहे होते ... बस अपनी मानसिकता को थोड़ी ऐ लचीली बनाने की ....
ReplyDeleteनमन आपको ...
(मैं 7.10.19 से 12.10.19 तक मुम्बई में ही थे अपने बेटा के पास , सोचा आप से मिलूँ ... पर तब संभव नहीं हो पाया...)
सुबोध भाई,किसी बात को इतने गहरे में जाकर व्यक्त करना, वा व्व मां गए आपको। ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
ReplyDeleteमुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...बहुत खूब।
आपका ये सम्बोधन "सुबोध भाई!"... अगर आप मेरी बात का यकीं करें और अतिशयोक्ति ना मानें तो ... द्रवित कर देता है ... ज्योति बहन (या दीदी ... दरअसल इसका अंदाज़ा नहीं मुझे ) आप लोगों कि ये ज़र्रानवाज़ी ही कहेंगे इसको ... जो मेरी रचनाओं में गहराई का आभास होता है ... पर ये तो बस यूँ ही ...
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