Sunday, September 29, 2019

कपसता है सुर ...

अनवरत निरपेक्ष ...
किए बिना भेद ... किसी धर्म-जाति का
या फिर किसी भी देश-नस्ल का
षड्ज से निषाद तक के
सात स्वरों के सुर से सजता है सरगम
मानो ... इन्द्रधनुष सजाता हो जैसे
बैंगनी से लाल तक के
सात रंगों से सजा वर्णक्रम

पर बारहा बाँट देते हैं हम नादान
इन सुरों को जाति-धर्म में अक़्सर
मंदिरों में भजन हो जाता हिन्दूओं का सुर ...
गिरजा में प्रार्थना ईसाई का सुर तो
गुरूद्वारे में शबद-वाणी सिक्खों का सुर
मज़ारों के कव्वाली मुसलमानों का सुर
पर एक "सुर" ...  सुर यानि देवता
ढूँढ़ते हैं अक़्सर जिन्हें हम
मंदिरों की पथरीली मूर्तियों में
लगता तो है कि वे भी बसते हैं
इन्हीं सात सुरों के सरगम में ही जैसे

पर हर कहीं नहीं !? ... हर बार कहाँ !?...
जरुरी नहीं कि हर बार सुर
सुहाने होते ही हो यहाँ
कभी - कभी या कई बार तो
किसी के मन की मज़बूर कसक
ढल के मुजरे में कपसता है सुर
बलिवेदी पर निरीह की अनसुनी कराह
हर बार कुचल देता है मन्त्रों का सुर
कई बार बनता है निवालों का साधन
ये सुर सजता है जब अक़्सर गलियों में
चौराहों पर ... फुटपाथों पर या ट्रेनों में

सुर हो और ताल ना हो
तो सुर की बातें बेमानी होती हैं ...
पर ताल भी अक़्सर भरमाते हैं
बचपन से बजता एक गीत सुना  -
" बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं "
सच में ऐसा है क्या !? सोचो ना जरा !!!
बैलों के ही क्यों हर मवेशियों के
गले के घुंघरूओं के सुर-ताल से ही
ग़ुलामी करते रहने का उनके हम हरदम
अनुमान लगाते हैं या गुम हो जाने पर
बीहड़ से इन्हीं आवाज़ों से ढूँढ़ लाते हैं
सच कहूँ तो ... ना जाने क्यों अक़्सर
गहने का गुमां देने वाले पायल
मवेशियों के उन्ही घुंघरुओं सा
अहसास कराते हैं ...

सुर हो या ताल हर बार सुहाने होते नहीं
कई बार हमें ये रुलाते हैं ... कपसाते हैं ...

12 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    ३० सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. हमक़दम के इस अंक में मेरी रचना साझा करने के लिए हार्दिक आभार आपका ...

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  2. पायल और बैल के गले मे घुँघरू की जो समरूपता जताई है आपने वो बिल्कुल सटीक सी लगती है।
    जितने भी भारी भरकम या हल्के गहने सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को ही पहनने पड़ते हैं...ऐसा क्यों?
    बलिवेदी के कत्ल को बनावटी शुद्ध वातावरण का जामा पहनाने का ढोंगी आचरण... सब कट्टर ब्राम्हणवादी सोच है... जो अनापशनाप बुरी है।
    शानदार रचना । आभार।
    पधारें शून्य पार 


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    1. रचना के एक मर्म को छूने के लिए हार्दिक आभार आपका ...
      किसी के मन की मज़बूर कसक
      ढल के मुजरे में कपसता है सुर ... इन पंक्तियों को भी महसूस कीजिए ...

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-10-2019) को     "तपे पीड़ा  के पाँव"   (चर्चा अंक- 3475)  पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. मेरी रचना की लिंक को इस अंक के साथ साझा करने के लिए हार्दिक आभार आपका ...

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  4. बेहतरीन सृजन ,सादर नमस्कार

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    1. रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार आपका ...

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  5. बेहतरीन।
    सुर हो और ताल ना हो
    तो सुर की बातें बेमानी लगती है । लजवाब

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  6. आप को पढ़ना हर बार हमारे लिए जीवन के एक नए सुर और रचनात्मकता की एक नई ताल से साक्षात्कार के समान होता है। माँ सरस्वती 'यूँ ही' आप पर अपना आशीष छींटती रहे।

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  7. हर बार इस तरह की विशेष सराहना भरे रचना के लिए प्रयुक्त विशेषण के संग आपकी प्रतिक्रिया एक विशेष अनुभूति कराती है ... हार्दिक आभार आपका ...

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