अपने घर ... एक कमरे के
किसी कोने में उपेक्षित-सा पड़ा
अपने स्कूल के दिनों का
जर्जर-सा शब्दकोश
अपने सात वर्षीय बेटे के लिए
मढ़वाने पँहुचा था एक शाम
एक जिल्दसाज की दुकान
देखा वहाँ पुस्तकों की ढेर में
सफ़ेद से मटमैले हो चुके
बेहद पुराने-से
मढ़ने के लिए रखे हुए
साथ-साथ ... रामायण और कुरान
फेरता कम्पकंपाता हाथ
पूरी तन्मयता के साथ
वही बूढ़ा जिल्दसाज
जिन पर था लगा रहा
तूतिया मिली हरी गाढ़ी
लेई एक-समान
अनायास कहा मैंने -
" ज़िल्दसाज़ चचाजान !
काश ! दे पाती सबक़
आपकी ये छोटी-सी दुकान
उन दंगाईयों की भीड़ को
जो बाँट कर इंसान
बनाते हैं ... हिन्दू और मुसलमान ...
{ ना तो मैं कोई स्थापित रचनाकार हूँ, ना ही साहित्य या व्याकरण का दंभी ज्ञाता या पुरोधा हूँ। बस "शौकिया" लिखता हूँ। अतः आप सभी से अनुरोध है कि मेरी रचना की अशुद्धियाँ , मसलन - वर्तनी, लिंग, नुक़्ता, अनुस्वार में कोई भूल रह जाए तो ... '"उसे क़ुदरत द्वारा "स्टीफन विलियम हॉकिंग" को रचते समय की गई भूल की तरह स्वीकार कर लीजिये। शब्दों की भावना पढ़िए , उसकी अपंगता की खिल्ली मत उड़ाइए।"" } ...
किसी कोने में उपेक्षित-सा पड़ा
अपने स्कूल के दिनों का
जर्जर-सा शब्दकोश
अपने सात वर्षीय बेटे के लिए
मढ़वाने पँहुचा था एक शाम
एक जिल्दसाज की दुकान
देखा वहाँ पुस्तकों की ढेर में
सफ़ेद से मटमैले हो चुके
बेहद पुराने-से
मढ़ने के लिए रखे हुए
साथ-साथ ... रामायण और कुरान
फेरता कम्पकंपाता हाथ
पूरी तन्मयता के साथ
वही बूढ़ा जिल्दसाज
जिन पर था लगा रहा
तूतिया मिली हरी गाढ़ी
लेई एक-समान
अनायास कहा मैंने -
" ज़िल्दसाज़ चचाजान !
काश ! दे पाती सबक़
आपकी ये छोटी-सी दुकान
उन दंगाईयों की भीड़ को
जो बाँट कर इंसान
बनाते हैं ... हिन्दू और मुसलमान ...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-09-2019) को "अपना पुण्य-प्रदेश" (चर्चा अंक- 3446) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हार्दिक आभार शास्त्री जी ! इस अनाड़ी इंसान की त्रुटिपूर्ण रचनाओं को चर्चा-मंच जैसे मंच पर साझा कर के मेरा उत्साहवर्द्धन करने के लिए धन्यवाद आपका !!!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका यशोदा जी आज के "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" साझा कर के मेरी रचना को मान देने के लिए ...
ReplyDeleteआप से एक " छोटी मुँह, बड़ी बात " वाला अनुरोध है कि " सोमवारीय हमकदम " के अंक को जारी रखने का प्रयास कीजिये ना ....
बहुत सार्थक रचना आदरणीय सुबोध जी | अगर जिल्दसाज चाचा जी की दूकान की तरह हमारा समाज बन जाए तो साम्प्रदायिक दुकानों के ताले लग जायेंगे |कितना अच्छा लगता है ऐसे समाज का सपना देखना | आखिर सपने कभीना कभी सच होते ही हैं| प्रेरक सृजन हेतु शुभकामनायें | |
ReplyDeleteरचना का यथोचित विश्लेषण के साथ सराहना के लिए आभार आपका !
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