हैं शहर के सार्वजनिक खुले मैदान में किसी,
निर्मित मंच पे मंचासीन एक प्रसिद्ध व्यक्ति ।
परे सुरक्षा घेरे के,जो है अर्धवृत्ताकार परिधि,
हैं प्रतिक्षारत जनसमूह कपोतों के उड़ने की ।
पर कारा बनी सिकड़ी, अग्रणी के पंजों की,
पूर्व इसके तो थे बेचारे निरीह स्वतन्त्र पंछी ।
थी ना जाने वो कौन सी घड़ी, बन गए बंदी,
विचरण करते, उड़ान भरते, स्वच्छंद प्राणी ।
विशेष दर्शक दीर्घा में है बैठी 'मिडिया' भी,
कैमरे के 'फ़्लैश' की चमक रही है रोशनी ।
ढोंग रचते अग्रणी, हों मानो वह उदारवादी,
पराकाष्ठा दिखीं आडम्बर औ पाखण्ड की ।
कपोत उड़ चले, हुई जकड़न ढीली पंजे की ,
ताबड़तोड़ 'फ़्लैश' चमके,ख़ूब तालियाँ गूँजी।
तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,
और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !
धर कर उड़ते पखेरू को कुछेक पल, घड़ी,
करना दंभ छदम् स्वतंत्रता प्रदान करने की।
है होता यही यहाँ अक़्सर, जब-२ कभी भी,
नारी उत्थान,नारी सम्मान की है आती बारी।
हैं सृष्टि के पहले दिन से ही स्वयंसिद्धा नारी,
जिस दिन से वो गर्भ में अपने हैं गढ़ती सृष्टि।
ना जाने क्यों समाज मानता कमजोर कड़ी ?
फिर ढोंग नारी दिवस का दुनिया क्यों करती ?
ज्यों बढ़ाते पहले पंजों में कपोतों की धुकधुकी,
करते फिर ढोंगी स्वाँग उन्हें स्वच्छंद करने की।
रचती पुरुष प्रधान समाज की खोटी नीयत ही,
पर करते हैं मुनादी कि है यही नारी की नियति।
सदियों कर-कर के नारियों की दुर्दशा, दुर्गति,
है क्यों प्रपंच नारी विमर्श पे बहस करने की ?
तनिक देखो तो यार,है विडंबना कितनी बड़ी,
और दुरूह कितनी, वाह री दुनिया ! वाह री !