फिर से आज एक बार कुछ बतकही, कुछ इधर की, कुछ उधर की,
ऊल-जलूल, फ़िजूल, बेफजूल, बेसिर पैर की, कहीं भी, कुछ भी .. बस यूँ ही ...
कुछ ही दिन पहले किसी एक रविवार के दिन, (सम्भवतः इसी नौ जनवरी को) सुबह-सुबह अपनी दिनचर्या से और सप्ताह भर बनायी गयी रविवारीय अवकाश के दिन किए जाने वाले चंद विशेष कामों की सूची से निपटने के बाद शेष बचे समय को देखते हुए, मन में ख़्याल आया कि अपने अस्थायी निवास वाले किराए के मकान में हरियाली की चाहत में रोपे गए चंद पौधों वाले प्लास्टिक के गमलों की मिट्टी की गुड़ाई-निराई भी आज कर ही ली जाए ; जो कि पिछले कई रविवार से टलती आ रही थी। कुछ तो रविवारीय अवकाश के विशेष कामों की लम्बी सूची के कारण और कुछ इन दिनों यहाँ की शीतलहर वाले मौसम के कारण भी .. शायद ...
अपने प्रिय पेय पदार्थों में से एक- 'लेमन ग्रास' युक्त बिना दूध और बिना चीनी की 'ग्रीन टी' से भरे काँच वाले गिलास को 'सिप' करता हुआ, अपने 'स्टोर रूम' में रखी खुरपी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो खुरपी एकदम से मेरे ऊपर भड़क गयी। भड़क गयी कहना शायद गलत होगा, बल्कि तुनकने के अंदाज़ में बोल पड़ी - "आज मैं काम नहीं करूँगी। नहीं करूँगी कोई भी आपकी गुड़ाई-निराई ..."
मैंने प्यार जताते हुए उस से पूछा - "क्यों भला ? क्या हो गया महारानी आज आपको ? आप भी आज रविवार मना रहीं हैं क्या ?"
दरअसल इस बार वह सच्ची में भड़क उठी - "हुँह ! आपकी तरह जब आपकी धर्मपत्नी जी एक कुशल गृहणी होने के नाते रविवार की छुट्टी नहीं मना सकती तो मैं कैसे मना सकती हूँ भला .. आयँ !? वैसे भी मत कहिए हमको महारानी।"
मैं उसके इस उत्तर से झेंपता हुआ जरुरत से ज्यादा नम्र हो गया - "क्यों ना कहूँ भला आपको महारानी ?"
अब तक वह रुआँसी हो चुकी थी - "हर बार आप लोग "हँसुए के ब्याह में खुरपी का गीत" बोल - बोल कर, हँसुए का ब्याह कराते हो और मेरा गीत गाते हो। अरे कभी हमारा भी तो ब्याह करा दो और हँसुए का गीत गा दो। मगर ऐसा करोगे नहीं आपलोग। आप इंसान लोगों को तो बस एक ही लीक पर चलने की आदत है। अरे कभी लीक से हट कर भी सोचा करो आप लोग।"
"मतलब .. आपका उलाहना है कि कभी-कभार हम आप खुरपी का ब्याह करा कर हँसुए का गीत क्यों नहीं गाते ? युगों से हर बार हँसुए का ब्याह करा कर हमलोग आपका गीत गा देते हैं। है ना ?"
"और नहीं तो क्या !!" - अब तक वह कपस-कपस कर रोने लगी थी। - "आप लोग तो बस ... तथाकथित खरमास अभी उतरेगा नहीं कि फ़ौरन अपनी और अपने लोगों की शादी-ब्याह की चर्चा चालू कर देते हो। कभी ब्याह वाली मेरी भी सनक की सोचो ना ! ..." - फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोलने लगी - "अब ये मेरी सनक या शिकायत की बात किसी और इंसान को मत कह दिजियेगा, वर्ना वो लोग उल्टा आप से पूछेंगे कि ऐसा कौन बोला भला .. दरअसल आप इंसानों के लिए ये ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कि .. 'कौन बोला या कौन बोली ?'.. पर ये महत्वपूर्ण नहीं होता कि 'क्या बोला या क्या बोली ?' "
मैं चौंक गया - "महारानी ! आपके ब्याह नहीं होने वाली नाइंसाफी से मैं पूर्णतः सहमत हूँ, परन्तु ये कौन बोला, क्या बोला वाली आपकी शिकायत का क्या मतलब ? ... ऐसा किस आधार पर कह सकती हैं आप भला ? बोलिए !"
फिर जोर से ठहाका लगाती हुई मुझ से खुरपी बोल पड़ी - "आप भी ना, जान कर अंजान बनते हो। ऐसा नहीं है क्या ? ऐसा ही तो है मेरे भाई। आप तनिक मेरी अभी कही गयी बातें, किसी को कह के परख लेना। सब ध्यान नहीं देंगें, मेरी बातों पर। सोचेंगे .. अरे .. खुरपी की क्या औक़ात जो कुछ ध्यान देने योग्य गम्भीर बातें भी कर सके भला।"
"हाँ !? ... ऐसा है क्या ?" - मैंने उसके समक्ष अचरज प्रकट किया।
"और नहीं तो क्या भाई .. अभी कई राज्यों में चुनाव का माहौल है ना ? चारों तरफ जातीय समीकरण का ताना-बाना बुना जा रहा है। अपनी -अपनी जाति वाले उम्मीदवार को अधिकांश लोग वोट देंगें। यहाँ भी तो कौन खड़ा है चुनाव में, यह ज्यादा महत्वपूर्ण बना रखा है आप इंसानों ने। पर कैसा खड़ा है, उस पर विचार नहीं करते प्रायः।" - थोड़ा दम लेती हुई फिर से बोली - "अब आप के रचनाकार बुद्धिजीवी इंसान लोगों को ही देखो ना .. अगर किसी पदाधिकारी ने, डॉक्टर की उपाधि वाले ने, किसी 'सेलिब्रिटी' ने या किसी तथाकथित 'बड़े' (वास्तव में धनवान, चाहे काले धन से ही सही) लोगों ने कुछ भी तुकबन्दियाँ कर दी, तो आप लोग 'थर्ड जेंडर' की तरह ताली पीटने लग जाते हो और ... अगर कोई अनपढ़ या मजदूर कोई गम्भीर बात भी कहे तो अनसुनी, अनदेखी कर देते हो आप लोग। वैसे होना तो ये चाहिए कि कह कौन रहा है, उतना मुख्य नहीं हो, बल्कि क्या कहा जा रहा है, उस पर ज्यादा महत्व देने की आवश्यकता है। नहीं क्या !? .. अब पियानो जैसे मंहगे वाद्य यन्त्र से निकलने वाली हर धुन सुरीली ही हो, जरूरी तो नहीं ना ? .. और बाँसुरी जैसे तुलनात्मक सस्ते वाद्य यन्त्र से हमेशा बेसुरी धुन ही निकलती हो, ऐसा भी नहीं है ना ?"
"बिलकुल नहीं।" - आज के अपने गुड़ाई-निराई वाले काम निकालने के लिए, उसे खुश करते हुए हमने अपने स्वार्थ साधने वाले इंसानी गुण से लबरेज़ उसकी बातों में हामी भर दी।
"तो .. फिर हर बार तथाकथित 'बड़े' लोगों की ही बातों को क्यों तरजीह देते हो या फिर जाति के आधार पर इंसान को क्यों अपनाते हो भला आप इंसान लोग ?"
"हाँ, आपकी ये शिकायत भी सही है।" - हमने आगे भी उसे खुश करने का ही प्रयास किया। जो अक़्सर हम इंसान प्रायः करते हैं कि किसी को भी खुश करना है, तो उसकी हर बातों में हाँ में हाँ मिला देते हैं। चाहे वो बेसिर पैर की ही बातें क्यों ना हो।
इस बार मेरी नम्रता को देख कर वह लगभग बिदक-सी गयी - "हम थोड़े ही ना आपके तथाकथित विश्वकर्मा भगवान की मूक मूर्ति हैं, जो आपके लड्डू, माला, अगरबत्ती, अक्षत् , रोली भर से खुश हो जायेंगे। हम को तो किसी लुहार की भट्टी में तपा-तपा कर और हथौड़े से ठोंक-पीट कर बनाया गया है। हम तो ठोंक-पीट और ताप के तर्क की भाषा ही जानते हैं। आप इंसान लोग अपनी हाँ में हाँ मिलाते हुए एक ही लीक पर चलने वाली भेड़चाल और चापलूसी तो रहने ही दो अपने पास।"
हमको खुरपी की मनोदशा और उसके तेवर से तो लगा कि आज हमारा गुड़ाई-निराई वाला काम तो .. होने से रहा। परन्तु .. फ़ौरन वह मुस्कुराती हुई बोल पड़ी - "आप इंसानों में यही तो अवगुण है, अगर तनिक तर्क कर दो तो तुनक जाते हो या यूँ कहें कि बिदक ही जाते हो। हम इंसान नहीं है भाई , चलिए आपके आज के काम में हम बिंदास हो कर आपका सहयोग करेंगे।"
मेरी तो जान में जान आयी और हमने शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को अपने मुँह में उड़ेलते हुए, अपने रविवारीय अवकाश के शेष समय हेतु गुड़ाई-निराई की योजना को साकार करने के लिए अपने एक हाथ में चाय वाली खाली गिलास, जिसे रसोईघर में रखना था और दूसरे हाथ में खुरपी महारानी को लिए हुए, हमारी पेशकदमी गमलों की ओर हो चुकी थी।
ख़ैर ! .. बहरहाल आप जाइएगा कहीं भी नहीं, अगर जाइएगा भी तो पुनः आइएगा अवश्य "खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-२" में खुरपी का ब्याह देखने। यूँ तो उम्मीद ही हम इंसानों के हर भावनात्मक दर्द की वजह है, पर फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आप आएंगे जरूर .. शायद .. बस यूँ ही ...