'मैरिनेटेड' मृत मुर्गे की बोटियों से,
बढ़ाते हैं हम, रसोईघर की शोभा।
जाते ही फिर शव क्यों अपनों के,
धोते हैं भला घर का कोना-कोना ?
(2)
तोड़ेंगे जो चुप्पी हमसभी मिलजुल,
टूटेगी वर्जनाएं सारी, जो हैं फिजूल।
(3)
तामझाम में, एकदिवसीय "दिवस" के,
कुछ इस क़दर हुए, हम सभी मशग़ूल।
हो भला अब परिवर्तन भी तो क्योंकर,
"दिनचर्या" में हों ये, ये बात गए हैं भुल।
(4)
मंगल तक तो चला गया है, अपना मंगल-यान;
अमंगल होता जो आडंबर से, नहीं इनका भान।
(5)
पापयोनि-समूह में रख गए,
भला क्यों स्त्री को "रहबर"* ?
नर अंध भक्तों* ने भी किया,
नारी-जीवन को दुरूह गहवर .. शायद ...
( गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32** के संदर्भ में)
【* - तथाकथित
** - गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32 अक्षरशः :-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।09/32।।
अथार्त् :-
हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र, ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे सभी मेरे शरण में आकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
(गूगल से साभार)】
(6)
"रक्तदान- महादान" कह-कह कर,
करना है अब से तो कोई दान नहीं।
कह कर - "रक्त साझा- सच्ची पूजा",
अब तो हमको, सच्ची पूजा करनी।
(१) "कलम आपकी, राजा आप का, अखबार आप का, लिखें, कौन रोक रहा है ? जितना चाहे लिखें।"
(२) "उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद।"
(३) "हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी।"
(४) "ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपती दिखती है। नहीं क्या ?"
(५) "ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ..."
: - (आज के इसी "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." के कुछ अंश ... ।).
ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और अंजान भाषाओं के शब्दों की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." में बकैती कर लेते हैं, प्रसंगवश आये हुए शब्दों - "राजा आप का .." और "तड़ीपार" की।
इस से पहले बस .. केवल एक बार और ज़िक्र कर लेते हैं, हम सिनेमा के सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असरों के विराट रूप वाले जाल या यूँ कहें, मायाजाल के बारे में। सुबह जागने पर किसी-किसी की चाय की तलब से लेकर लोगबाग के साबुन (या हैंड वाश भी) या दंतमंजन (या टूथ पेस्ट भी) तक की जरुरतों से लेकर रात में सोने के पहले पी जाने वाली किसी हेल्थ-ड्रिंक्स (Health Drinks) या फिर कंडोम जैसे उपयोग या उपभोग किए जाने वाले हरेक वस्तुओं के विज्ञापनों का जाल, हमारे आसपास सोते-जागते .. मोबाइल के पर्दे से लेकर, टीवी के पर्दे तक, दैनिक समाचार पत्र से लेकर चौक-चौराहों के बड़े-बड़े विज्ञापन-पट्ट (होर्डिंग/ Hoardings) तक भरे पड़े रहते हैं। ख़ासकर कुछ ख्यातिप्राप्त व्यक्ति (सेलिब्रेटी/Celebrity) को उस वस्तु विशेष को इस्तेमाल करते हुए दिखाया जाता है। भले ही वह विज्ञापन वाला पेय या खाद्य-पदार्थ, सौंदर्य-प्रसाधन वग़ैरह हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो या विज्ञापन में दिखने वाला या वाली, वो 'सेलिब्रेटी' उनका कभी उपभोग भी ना करता/करती हों। परन्तु .. चूँकि उस विज्ञापन में अभिनय करने के लिए उन्हें लाखों रुपए मिलते हैं और वह इंसान धन के लिए, यानी अपने फ़ायदे के लिए, उस विज्ञापन देने वाली कम्पनी के साथ मिलकर हम लोगबाग को धोखा देने यानी ठगने के लिए आगे आ जाता है। हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो .. 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी। ये सारी की सारी प्रक्रियाएं सिनेमा के उसी सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असर जैसा ही हमारे ऊपर असर करता भी है। ख़ासकर .. बच्चों, युवाओं और महिलाओं पर। कई महिलाओं के तो कई सारे फैशन (Fashion) के पैमाने टीवी सीरियलों की नायिकाओं के फैशन के आधार पर ही तय होते हैं। बिलकुल दक्षिण भारतीय राजनीति में, वहाँ के सिनेमा-जगत के सम्मोहन भरे हस्तक्षेप के जैसा .. शायद ...
यूँ तो "तड़ीपार" जैसी सजा, सामंतवादी या मनुवादी सोच की उपज ही प्रतीत होती है। जो आज भी खाप पंचायत या गोत्र पंचायत के रूप में अनेक राज्यों में सिर उठाए खड़ी है। तथाकथित लोकतंत्र इन परिस्थितियों में एक लकवाग्रस्त रोगी से ज्यादा कुछ ख़ास नहीं जान पड़ता है। ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपतती दिखती है। नहीं क्या ? कभी-कभार .. किसी के अपने फेसबुक (Facebook) की मित्रता सूची (Friend List) से किसी को, किसी बात पर, हटाना (Unfriend करना) एक आम बात है। चाहे वह बात या इंसान उचित हो या अनुचित। बस .. हटाने वाले के मन-मुताबिक़ किन्हीं बातों का नहीं होना ही काफ़ी होता है। ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ...
मेरे साथ ही घटित कई घटनाओं में से तीन घटनाएँ अभी भी याद हैं। वैसे घटनाओं की ज़िक्र करने के समय उन तीनों का नाम लेकर, गोपनीयता के नियम का उल्लंघन करना उचित नहीं रहेगा। तो.. बिना नाम लिए हुए ही ...
पहली घटना :-
यह किसी पुरुष या महिला के साथ घटित ना होकर, किसी किन्नरमोहतरमा के साथ घटी घटना है। उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद। ख़ैर ! .. आपको ये भी स्पष्ट कर दें कि वह कोई आम किन्नर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजधानी, पटना में वह काफ़ी विख्यात हैं। कुछ महकमें में उनका बड़ा नाम है। कई-कई कवि सम्मेलनों, मुशायरों में, सामाजिक संस्थानों द्वारा आयोजित समारोहों में, राजनीतिक गलियारों में आयोजकगण उन्हें अपने मंच पर सम्मानित कर के खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गत वर्ष के लॉकडाउन की शुरुआत होने के कुछ पहले तक, कई मंचों पर या चित्र-प्रदर्शनियों में भी उन से यदाकदा मुलाकातें और कई विषयों पर बातें भी हुईं हैं, विचार-विमर्श या बहस के रूप में।
ठीक-ठीक .. अक्षरशः याद तो नहीं, पर संक्षेप में इतना याद है कि एक बार अपने फेसबुक पर उन्होंने जातिगत आरक्षण के लिए, वर्तमान से और भी ज्यादा प्रतिशत को बढ़ाने के पक्ष में कुछ पोस्ट (Post) किया था। साथ ही, वर्तमान में बिहार की सत्ता से बाहर एक राजनीतिक दल के नाम के क़सीदे भी पढ़ी/लिखी थीं उस पोस्ट में। उसी राजनीतिक दल की तारीफ़ की गई थी, जिस के शासन-काल में काल ही काल घिरा हुआ था। अपहरण, ट्रेन-डकैती, राहजनी, डकैती, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसे कई अपराध "छुट्टा" (खुला) साँढ़ की तरह चारों ओर मुँह मारने के लिए आज़ाद थे। उनकी मित्रता-सूची में होने के कारण मेरी नज़र से जब वह पोस्ट गुजरी तो आरक्षण के पक्ष वाली बात आदतन मुझे नागवार गुजरी। मैंने प्रतिक्रियास्वरुप उचित तर्क के साथ जातिगत आरक्षण के विरोध में अपनी कुछ बातें रखी। इस तरह एक-दो घन्टे के अंदर ही, 'न्यूटन के तीसरे नियम' के अनुसार दो-तीन बार क्रिया-प्रतिक्रियाएँ हुई। शायद, छुट्टी का दिन रहा होगा, तभी मैं भी त्वरित प्रतिक्रिया कर रहा था।
हमारी चल रही विषय विशेष की स्वस्थ बातें, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श अचानक उनकी ओर से उग्र हो गया। अंततः शर्मनाक बातें उनकी ओर से वेब पन्ने पर छपने लगीं। बहस की बेशर्मी वाले पहलू की पराकाष्ठा तो तब हो गयी, जब गुस्से में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में "हमारी (उनके अनुसार तथाकथित सवर्णों की) माँ-बहनों को तथाकथित दलितों और आरक्षण-प्राप्त अन्य जातियों के पुरुषों के साथ बिस्तर पर सोने की छूट मिलने जैसी बातें लिख डाली।" हम तो हतप्रभ हो गए। वैसे तो उनकी इस तरह की कुछ अभद्र कही/लिखी बातें, मेरे लिए ज्यादा आश्चर्यजनक बातें नहीं थी। क्योंकि तब मुझे पुरखों की कही गयी, बहुत पते की एक पुरानी बात मेरे दिमाग में अचानक कौंध कर मेरे मन को शांत कर गयी; कि "बहुत गुस्से में या बहुत ही ख़ुशी में इंसान अपनी मातृभाषा का ही उपयोग कर जाता है। उस समय उनकी स्व-भाषा के साथ-साथ उनकी मानसिकता के अंतस का भी पता चल पाता है।" ऐसा ही उस विख्यात किन्नर मोहतरमा ने दिखलाया भी। पर उस वक्त तो तत्क्षण फेसबुक को देखना उचित नहीं समझते हुए, देखना बन्द कर दिया।
पर जब उसी दिन शाम तक दुबारा फेसबुक पर झाँका, तो पाया कि उनकी तरफ से हम 'अनफ्रैंड' यानी तड़ीपार किए जा चुके हैं। अफ़सोस इस बात की रही, कि हम वेब पन्ने के उस अपशब्द वाले हिस्से का स्क्रीन शॉट (Screen shot) नहीं ले पाए थे, जिसे उन किन्नर मोहतरमा की कलुषिता को प्रमाण के तौर पर, उस दिन या आज भी दिखलाने पर, उनको आदर देने वाले सभी पटना के बुद्धिजीवियों की आँखें फटी की फटी रह जाती .. शायद ...
दूसरी घटना :-
यह घटना भी एक मोहतरमा से ही जुड़ी हुई है, पर वह किन्नर नहीं हैं। सचमुच में महिला ही हैं और ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि पटना शहर में सोशल मीडिया की एक जानी मानी आरजे (RJ -Radio Jockey) रह चुकी हैं या हैं। कई मंचों पर उन के साथ में शरीक़ होने का मौका भी मिला है। लगभग दो-ढाई साल पहले, एक बार उन्होंने कॉपी-पेस्ट (Copy & Paste) कर के दो पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर कुछ यूँ चिपका दिया था, कि -"अक़्सर हम साथ साथ टहलते हैं ! / तुम मेरे ज़ेहन में और मैं छत पर !! " हूबहू दो पंक्तियाँ कुछ दिन पहले मेरी नज़रों से किसी एक के इंस्टाग्राम (Instagram) पर गुजरी थी। हमें लगा कि इनमें से कोई एक तो है, जो नक़ल कर रहा/रही है। हमने फेसबुक पर ही 'पब्लिकली' (Publicly) अपनी बतकही वाले मजाहिया अंदाज़ में कुछ यूँ बकबका दिया कि - "एक ही रचना की दो दावेदारी, एक FB पर, दूसरा इंस्टाग्राम पर, बहुत बेइंसाफी है ('शोले' वाले dialogue की पैरोडी के तर्ज़ पर .. आदमी दो और गोली तीन, बहुत बेइंसाफी है रे कालिया) ... वैसे copy & paste का जमाना है भाई 😪😪 "। (वैसे तो शोले फ़िल्म का संवाद था- "गोली छः .. और आदमी तीन .. बहुत बेइंसाफी है रे ...")
यह बात उन मोहतरमा को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे अपनी मित्रता-सूची से तड़ीपार कर दिया। फिर बाद में इन दो पंक्तियों के सही लेखक/लेखिका को खोजने की हमने कोशिश गूगल पर की तो पता चला कि ये दोनों पंक्तियाँ सोशल मीडिया के तमाम मंचों- फेसबुक, इंस्टाग्राम, यौरकोट, यूट्यूब इत्यादि पर हज़ारों लोगों ने अपने-अपने नाम से कॉपी-पेस्ट कर रखा है। पर इसके मूल रचनाकार का पता नहीं चल पाया। अगर आपको मालूम हो तो बतलाने का कष्ट कीजियेगा। धन्य हैं ! .. ऐसे साहित्य-चोर-चोरनियाँ ! .. नमन है उन सबों को .. बस यूँ ही ...
तीसरी घटना :-
अब संयोग कहें या क़ुदरत का क़माल, तीसरी घटना भी एक मोहतरमा के साथ ही हाल-फिलहाल ही में घटी है। यह भी पटना के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नज़र आती हैं। समाजसेविका भी बतलाती हैं स्वयं को। कई मंचों पर उनके साथ सहभागी बनने का मौका भी मिला है। एक दिन उनकी बिटिया द्वारा पढ़ी गई, अपनी ही एक रचना की वीडियो को उन्होंने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। कविता स्वतंत्रता से जुड़ी हुई थी और कविता व वाचन, दोनों ही, क़ाबिलेतारीफ़ भी थी। उनके घर के बैठकख़ाने में पढ़ी गई, कविता के समय, उनकी बिटिया के पीछे अलमारी पर रखी एक 'एक्वेरियम' (Aquarium) में कुछ मचलती रंगीन समुद्री मछलियाँ दिख रही थीं। स्वतंत्रता की कविता के समय, परतंत्र मछलियों को देख कर, कुछ-कुछ आँखों को खटक रही थी। बस फिर क्या था .. हमने औरों की तरह केवल तारीफ़ के पुल नहीं बाँधे, बल्कि तारीफ़ के साथ-साथ बिटिया को दुआ भी दिया और ... स्वतंत्रता की कविता के समय 'एक्वेरियम' में रखी परतंत्र मछलियों के खटकने की बात भी कह डाली। उस दिन औरों की प्रतिक्रियाओं पर उन्होंने प्रतिदान-प्रतिक्रिया तो दिया, पर मेरे लिए ख़ामोश ही रहीं। उनकी मर्ज़ी। ख़ैर ! ... बात आयी-गयी हो गई। मैं भी भूल गया।
इस साल तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी को लाल किले पर हुए हमले और तोड़फोड़ वाली घटना के लगभग सप्ताह-दस दिनों के बाद, लाल किला से सम्बंधित वर्षों पुराने अपने एक लम्बे रोचक यात्रा-वृत्तांत को मोहतरमा ने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। संक्षेप में कहें तो, उस के शुरू और अंत के अंश कुछ यूँ थे -
"लाल किला
मैं लाल किला हूँ । जहाँ हमारे देश के प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं।ऊँची -ऊँची दीवारें ,लाल रंग से सजी हैं। लाल किला अपने दोनों हाथों से वहां आ रहे लोगों का स्वागत करता है, आओ मेरे अन्दर एक इतिहास छिपा है ,मेरी दिवारों को छू कर महसूस करो ।
बात उस वक्त की है, जब मैं अपने परिवार के साथ भारत का दिल कहे जाने वाली दिल्ली गई । गोद में 9 माह का बेटा और 7 साल की बिटिया। .............................................................................
वहां पर फूलों का बाग भी है। पूरा लाल किला ही अद्भुत है ,पर *लता मंडप तो नायाब है ।बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि नमाज़ के बाद बादशाह शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे, मैं ये सोच रही थी कि पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक ,खैर, मेरे अंदर अनेकों सवाल थे। मैं अपने ख्यालों में खो गई और उस वक्त को महसूस करने लगी । मैं लाल किले की शान को देख रही थी । घूमते -,घूमते सूरज कब डूब गया, वक्त का पता ही नहीं चला।रंग बिरंगी रौशनी में नहाया लाल किला बेहद खूबसूरत लग रहा था । मैं अपने बच्चों के साथ सड़क किनारे खड़ी इसे निहार रही थी ।।"
उनके इस संस्मरण के उपर्युक्त अंतिम अनुच्छेद में कही गई दो बातों में पहला- एक "सोच", कि - (1) "बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि नमाज़ के बाद बादशाह शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे," और दूसरा- एक "सवाल", कि- (2) "पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक " ... कुछ-कुछ अटपटा-सा लगा। पहली वाली बात या सोच तो किसी के आस्था की बात हो सकती थी, पर दूसरी बात वाले उस सवाल पर मन में कई सवाल कौंध गए। हमने अपने मन में आये कुछ ऊहापोह को उस पोस्ट के नीचे सामान्य प्रतिक्रियास्वरूप लिख डाला कि :-
"आपका आलेख-सह-यात्रा वृत्तांत बहुत ही प्यारा है। पर अंतिम अनुच्छेद में पहले के बादशाह और आज के शासक की तुलनात्मक बात कुछ और भी लिखने के लिए मुझे मज़बूर कर गया, सुबह की व्यस्तता भरी दिनचर्या में भी ...
पहले के बादशाह ज़्यादा ज्ञानी थे और ताकतवर के साथ-साथ क्रूर भी , तभी तो उनके पूर्वज दूर-दराज़ के पड़ोसी देशों से यहाँ आ कर आक्रमण कर के अपना नाजायज़ कब्ज़ा जमाते गए और कई अपने से इतर तथाकथित धर्म-स्थलों को तहस-नहस तो करवाया ही और ज़बरन कइयों को धर्मान्तरण के लिए मज़बूर भी किया, तंग करने के लिए अन्य धर्म वालों पर "जजिया कर" तक लगाया।
ख़ैर ! लाल क़िला भले ही गर्व करने की बात हो, पर दिल्ली तो दूर है, कभी अपने पास के बड़ा गुरुद्वारा के मुख्य द्वार के पास बने अज़ायबघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरें झाँक भर लें तो .. उन तथाकथित ज्ञानी बादशाहों की काली करतूतों की शर्मनाक दास्ताँ शर्मसार करने के लिए काफ़ी महसूस होती हैं .. शायद ...
अब आज के शासक भला उतने ज्ञानी तो हो ही नहीं सकते क्योंकि वे ज़बरन नहीं शासक बनते, बल्कि हमारी तथाकथित बुद्धिजीवी आबादी के मतों से ही तो चुन कर आते हैं .. शायद ..."
【 बड़ा गुरुद्वारा,पटना साहिब, पटना के संग्रहालय में इतिहास की चीखों और ख़ून से सनी टंगी तस्वीरों के और उसके नीचे लिखे अनुशीर्षकों के कुछ कोलाज़ हैं, जो बदनाम बादशाहों की क्रूरता को बयान करने के लिए काफ़ी हैं, .. शायद ... सम्बन्धित कई तस्वीरें अंत में भी ..】.
फिर क्या था .. वह अपने फ़ेसबुक पर तो शालीनता के साथ प्रतिदान-प्रतिक्रिया दीं, जिसका screen shot हम नहीं ले पाए। उसके बाद मैसेंजर (Messenger) पर अपनी निम्नलिखित उग्र प्रतिक्रिया देने के बाद .. हमें अपनी तथाकथित मित्रता-सूची से तड़ीपार भी कर दिया। हैरान कर देने वाली उनकी प्रतिक्रिया अक्षरशः :- "नमस्कार भैया मैंने अपनी यादो को लिखा आप भी गुरुद्वारे या सिख समुदाय को मुस्लिम बादशाह ने जो किया लिखे कलम आपकी राजा आप का अखबार आप का लिखे कौन रोक रहा है जितना चाहे लिखे"
प्रतिक्रिया में सबसे चौंकाने वाली बात थी -"राजा आप का"- यहाँ समझ नहीं पाया कि ये "राजा" किस के लिए लिखा गया और "आप का" किसके लिए कहा गया ? यह "राजा" और "आप का" एक प्रश्नवाचक चिन्ह छोड़ गया मन को मथने के लिए .. शायद ...
【आइए इन .. "आप का" और "मेरा" के भेद को मिटाने वाली साहिर लुधियानवी जी की एक रचना, मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में एक पुरानी फ़िल्म- "धूल का फूल" के गाने की शक़्ल में सुनते हैं और इस जाहिलियत से भरे मतभेद (मनभेद) को भुलाने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...】.
अगर आपने अब तक हमारी बतकही झेलने की हिम्मत रखी है, तो अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत अपनी बतकही आगे बढ़ाते हुए, जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों के साथ फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातें करते हैं।
पहले इसके सम्मोहन की बात करते हैं। वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन वाले असर के विराट रूप का अनुमान तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र दक्षिण भारतीय राजनीति के इतिहास से अब तक के पन्ने टटोलते हैं। दरअसल फिल्मों के शुरूआती दौर में तमिल कलाकारों ने बहुत सारी फिल्मों में पौराणिक कथाओं के किरदारों को निभाया था। जिस के कारण जनता के बीच उनकी छवि धार्मिक भावनाओं से भरी हुई बनती चली गयी। नतीज़न तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की फ़ेहरिस्त में सी एन अन्नादुराई, एम करूणानिधि, एम जी रामाचंद्रन, उनकी धर्मपत्नी-जानकी रामाचंद्रन, जयराम जयललिता (अम्मा) का नाम और आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव का नाम एक के बाद एक जुड़ना, दक्षिण भारतीय जनता पर फिल्मी सम्मोहन के असर का ही एक सशक्त उदाहरण है। यूँ तो उत्तर भारत में भी फिल्मी दुनिया से अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया भादुड़ी, मनोज तिवारी, स्वरा भास्कर जैसे नाम जुड़े तो जरूर, पर वो रुतबा नहीं हासिल कर पाए कि उन में से कोई मुख्यमंत्री बन सकें। दक्षिण भारतीय फ़िल्म उद्योग (South Film Industry) के चिंरजीवी और पवन कल्याण जैसे फिल्मी कलाकारों ने तो अपनी अलग नयी राजनीतिक दल तक बनाने की हिम्मत दिखायी। अभी कमल हासन और रजनीकांत भी इसी तालिका में जुड़ते दिख रहे हैं।
फिल्म के तिलिस्मी असर के बारे में तब घर के बुज़ुर्गों का कहना था कि आज हमारे बीच हर साल सावनी पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन का स्वरुप आज के जैसा नहीं था। तब के समय उस दिन घर पर केवल पंडित (जी) आते थे और घर के सभी सदस्यों को रक्षा कवच के नाम पर मौली सूता कलाई पर बाँध कर, प्रतिदान के रूप में आस्थावान भक्तों के सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुरूप दिए गए दक्षिणा को ले कर वापस चले जाते थे। पर बाद में बलराज साहनी और नन्दा अभिनीत छोटीबहन(1959) जैसी फिल्मों के शैलेन्द्र जी के लिखे और लता जी के गाए - "भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना, भैया मेरे, छोटी बहन को न भुलाना, देखो ये नाता निभाना, निभाना, भैया मेरे..." - जैसे मन को छूते गीतों से सम्मोहित (Hypnotize) होने के कारण राखी का त्योहार आज वाले स्वरूप में धीरे-धीरे बदलता चला गया। साथ ही, बहन द्वारा राखी, मिठाई और भाई द्वारा बदले में दिए जाने वाले उपहार; सब मिलाकर आज इस राखी के त्योहार ने भारत को करोड़ों का बाज़ार बना दिया है। ठीक इस वैलेंटाइन डे (Valentine's Day) की तरह जो बाहर से आकर सोशल मीडिया की सीढ़ी चढ़ते हुए, चोर दरवाज़े से हमारे देखते-देखते हमारे बीच आ कर डेरा जमा चुका है।
ये सब परिवर्त्तन बस वैसे ही होता चला गया, जैसे हमारे बुज़ुर्गों ने विदेशों से आने वाली चाय को आने का मौका दिया, तो हमारी युवा पीढ़ी ने चाऊमीन, मोमो, पिज़्ज़ा को बाहर से आने दिया। देखते-देखते ही देश में ही सिगरेट, शराब, पान, खैनी (तम्बाकू) के अलावा गुटखा का भी सेवन होने लगा। अब तो नए व्यसन- ड्रग्स (Drugs) की भी लम्बी फ़ेहरिस्त बन गई है। पर इनके आने में सिनेमा का योगदान कम रहा है .. शायद ...
फ़िल्मों का ही छोटा पर्दा वाला रूप शायद हमारे-आपके घरों में टेलीविजन का पर्दा बन कर आया हुआ है। इसलिए इसके सम्मोहन भी फिल्म जैसे ही हैं। नयी पीढ़ी को तो शायद याद या पता भी ना हो, पर आप अगर अपने जीवन के चार-पाँच दशक या उस से ज्यादा गुजार चुके हैं, तो इसका एक सशक्त प्रमाण आपको अच्छी तरह याद हो शायद कि .. लोगबाग पहली दफ़ा रामायण टी वी सीरियल आने पर नहा-धोकर, अगरबत्ती-आरती जला कर सपरिवार देखने बैठते थे। कई लोग तो सीरियल खत्म होने के बाद ही अपना मुँह जुठाते (?) थे। यहाँ तक तो सनातनी श्रद्धा का प्रभाव कुछ-कुछ समझ में आता था। पर तब के आए हुए एक समाचार के अनुसार, तब एक बीयर बार (Beer Bar) में जीन्स (Jeans) पहने बैठे हुए अरुण गोविल (राम के पात्र को जीने वाले) पर पत्थर से कुछ लोगों ने हमला किया था, कि "आप राम हैं .. तो आप शराब का सेवन नहीं कर सकते।" ये उनके अनुसार उनके राम का अपमान था। च्-च् च् .. तरस आती है उन लोगबाग के नकारात्मक सम्मोहन पर कि वह भूल गए कि वह राम का अभिनय करने वाला एक कलाकार है, सच में राम नहीं। उस कलाकार का निजी जीवन भी है और वह हमारी तरह ही एक इंसान ही है, ना कि तथाकथित भगवान (राम) .. शायद ...
ये कह कर हम कोई पक्षधर नहीं हैं शराब पीने के। वैसे तो मद्यपान और धूम्रपान, दोनों ही बुरी लतें हैं। सेहत के लिए नुकसानदेह भी। प्रसंगवश ये भी बक ही दें कि कभी 'चेन स्मोकर' (Chain Smoker) रहे अरुण गोविल को राम के अभिनय करने के दरम्यान लोगों के गुस्साने पर सिगरेट की लत छोड़नी पड़ी थी, जो बाद में हमेशा के लिए छुट गई थी/है। यह है फिल्मों की फैंटेसी (Fantasy) भरी अजीबोग़रीब दुनिया.. शायद ...
फ़िल्म (Film) देखने के लिए सिनेमा हॉल (Cinema Hall) तक जाना तो होता ही था और उसकी अनुभूति भी किसी टूरिस्ट प्लेस (Tourist Place) घुमने जाने से कम नहीं होती थी। उस दौर में हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लिए शैम्पू आज की तरह भारतीय बाज़ार में सहज उपलब्ध नहीं होता था, तो मेहा मेडिक्योर कम्पनी (Meha Medicure , Solan, Himachal Pradesh) के पीले रंग के रैपर (Wrapper) में लाल-कत्थई रंग के मशहूर स्वास्तिक शिकाकाई नामक सिर (बाल) और देह, दोनों को चमकाने के लिए, उपलब्ध 'टू इन वन' (2 in 1) साबुन से धुले हुए सिर के हवा में लहराते हुए बाल पर बारम्बार
हाथ फिराते हुए, घर के हैंगर (Hanger) में लटके या लॉन्ड्री (Laundry) के तह लगे कपड़ों में से चुनकर सबसे अच्छा वाला क्रिच लगा पोशाक पहन कर .. किसी समारोह में जाने के जैसा ही बन-ठन कर अभिभावक के साथ सपरिवार सिनेमा हॉल तक सिनेमा/फ़िल्म देखने के लिए जाया जाता था। तब मैटिनी शो (Matinee Show) यानी तीन बजे अपराह्न से छः बजे शाम तक वाली शो लोगों की पसंदीदा शो हुआ करती थी। कभी-कभार गर्मी के मौसम में ईवनिंग शो (Evening Show/शाम छः बजे से रात के नौ बजे तक) भी जाया जाता था। सिनेमा हॉल के टिकट काउंटर (Ticket Counter) पर टिकट उपलब्ध होने के अनुसार चार-पाँच रूपए की डी सी (DC - DressCircle) या तीन-चार रूपये की बी सी (BC - Balcony Class) या फिर दो-ढाई रुपए की स्पेशल क्लास (Special Class) की सीट (Seat) पर बैठ कर फ़िल्म देखी जाती थी। एक-डेढ़ रुपए वाली फ्रंट क्लास (Front Class या General Class) में तो पर्दे पर नायक-नायिका का मुँह टेढ़ा-सा और बड़ा नज़र आता था। उनमें प्रायः निम्न मध्यमवर्गीय लोग देखा करते थे। कभी-कभार धार्मिक या देशभक्ति फिल्मों को राज्य-सरकार द्वारा कर-मुक्त कर देने पर या बाद में बने स्थायी नियम के तहत विद्यार्थी रियायत दर (Student Concession Rate) पर, फिल्म देखने में कुछ अलग ही आनन्द मिलता था।
पूरे साल भर में दो या तीन फ़िल्मों को देखने का मौका मिल जाता था तो बहुत होता था। स्कूल (School) में जो भी सहपाठी अपने अभिभावक के साथ किसी विगत छुट्टी के दिन फ़िल्म देख कर स्कूल आता था, तो उसके चेहरे पर एक अलग तरह की मुस्कान टपक रही होती थी। उस दिन जलपान की छुट्टी (Tiffin Time) में सारे खेल स्थगित कर के हम सारे सहपाठी मित्रगण उसको घेर के बैठ जाते थे और वह सिनेमा देख कर आया हुआ मित्र मानो किसी लोकप्रिय कुशल आर. जे. (रेडियो जॉकी/Radio Jockey) की तरह पूरी फ़िल्म का बखान कर देता था। हम सब भी रेडियो पर आकाशवाणी द्वारा विविध-भारती कार्यक्रम के तहत प्रसारित होने वाले हवामहल जैसे मनोरंजक नाटक की तरह सुन कर खुश हुआ करते थे। अगली बार कोई दूसरा छात्र या दूसरी छात्रा, वही सिनेमा देख कर आते तो वह अपने तरीके से सुनाता/सुनाती और पहले वाले की कमियों को गिनाता/गिनाती कि पहला वाला तो फलां-फलां सीन (Scene) या डॉयलॉग (Dialogue) के बारे में तो बतलाना ही भूल गया था। तब चॉकलेट-टॉफी के साथ उपहारस्वरूप मिलने वाले या अलग से बिकने वाले फ़िल्मी कलाकारों के तरह-तरह के पोस्टर और स्टीकर जमा करने का भी एक अलग ही शग़ल था।
दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा (Board Exam.) पास (Pass) हो जाने के बाद नदिया के पार या सावन को आने दो जैसी फ़िल्मों को दोस्तों के साथ देखने की अनुमति मिलने लगी थी। वैसे भी तब राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में रूमानी होने के बावज़ूद भी पारिवारिक मानी जाती थीं। ऐसा इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि रुमानियत को पाप मानते थे तब या आज भी अनेक जगहों पर। तभी तो 'ऑनर किलिंग' (Honour Killing) का मामला आज भी हमारे कई समाज में सिर उठाए खड़ा है। है कि नहीं ? .. ओमपुरी-स्मिता पाटिल की आक्रोश फिल्म से कला फिल्मों (Art Movies) का चस्का लगा था, जो आज तक बरकरार है।
तब कुछ लोगों में फ़िल्म आने के पहले दिन ही पहला शो को देखने का या एक फ़िल्म को कई बार देखने का एक शग़ल होता था। सिनेमा की टिकटें ब्लैक (गैरकानूनी तरीके से उचित मूल्य से ज्यादा क़ीमत पर क्रय-विक्रय) में बेचीं और ख़रीदी भी जाती थी। बचपन में जीवन का यह पहला अनुभव था, क़ानून और प्रशासन की आँखों के सामने होने वाली किसी कालाबाजारी की। संभ्रांत समाज में ऐसे लोगों की छवि अच्छी नहीं होती थी।
तब का सिनेमा हॉल आज के 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) की तरह 'पुश बैक' (Push back) कुर्सी से सुसज्जित पुश बैक कुर्सी की तरह ही मखमली, आरामदायक और भव्य ना होकर; किसी कोल्ड स्टॉरेज (Cold Storage) की इमारत की तरह होता था। तब ना तो हॉल में ए सी (AC) होता था, बल्कि हॉल के दीवारों व छत पर लगे बड़े-बड़े पंखे चलते रहते थे। ना ही आज की तरह स्टीरियोफोनिक डॉल्बी साउंड सिस्टम (Stereophonic Dolby Sound System) थे। पर हाँ, ईस्टमैन कलर (Eastman Color) वाली रंगीन फिल्में बाद में आने लगी थीं।
आज के मल्टीप्लेक्स की तरह तब मंहगे पॉपकॉर्न (Popcorn) या समोसे जैसे मंहगे स्नैक्स (Snax) भी नहीं मिला करते थे। बल्कि लोग दस पैसे के टनटन भाजा (मतलब नमकीन मिक्सचर (Mixture)) या चवन्नी (पच्चीस पैसे) के समोसे खा कर, दो रुपए के
दो सौ मिलीलीटर वाली बोतल में डीप फ्रीजर (Deep Freezer) वाला ठंडा कोका-कोला (Coca-Cola) या फैंटा (Fanta) पीकर आह्लादित हो जाते थे। साथ ही अंत में हॉल से निकलते वक्त बाहर ही बिक रहे दस पैसे की उसी फ़िल्म के गाने की किताब खरीद कर और वो किताब हाथ में लेकर, हम लोग जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों को रिक्शा पर बैठ कर घर लौटते हुए मुहल्ले में प्रवेश करने पर किसी खेल में जीते गए शील्ड (Shield) को लेकर लौटने का एहसास होता था। चेहरे पर एक मुस्कान लिए घर लौटते समय लगता था, मानो किसी पर्यटन स्थल का दौरा कर के लौट रहें हैं। चूँकि मनोरंजन (?) के लिए आज की तरह कई-कई टीवी चैनलों, सीरियलों या यूट्यूब की बाढ़ या यूँ कहें कि सुनामी-सी नहीं थी उस ज़माने में; तो साल-छः महीने में देखी गई एक फ़िल्म कई-कई दिनों तक दिमाग में तारी रहती थी और एक दिलचस्प चर्चा का विषय बना रहता था।
अब जय संतोषी माँ फिल्म की अपरम्पार महिमा की और भी बातें दुहरा लेनी चाहिए। उस फिल्म को दिखाने वाले सिनेमा घर-रूपक के मालिक ने हॉल के बाहर प्रांगण में ही बजाप्ता एक अस्थायी मन्दिर का निर्माण करवा कर सन्तोषी माता की एक विशाल मूर्ति की स्थापना करवा दी थी। शो के दरम्यान धोती और जनेऊ से सुसज्जित हुए एक तिलकधारी और तोंदधारी भी, पंडी (पंडित) जी वहाँ लगातार तैनात रहते थे। विशेषकर हर शो के शुरू होने के समय वह आरती करते और लोगों का चढ़ावा दोनों हाथों से बटोरते। बल्कि इस बटोरने के लिए दो-चार और लोग भी बहाल थे पंडी जी के सहयोग में, जो तथाकथित आस्थावान भक्तगणों के हाथों से अगरबत्ती, नारियल, फूल-माला, चुनरी-साड़ी, मुख्य रूप से प्रसादस्वरूप गुड़-चने के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की मिठाईयों के डिब्बे तथाकथित भक्तिभाव से ले-ले कर जमा करते थे।
वैसे धर्म-ग्रंथों में इन देवी की चर्चा कहीं है भी या नहीं, पता नहीं ; पर इनकी व्रत-कथा के आधार पर फिल्मकार ने फ़िल्म में इनको चूहे की सवारी करने वाले और हाथी के सिर वाले तथाकथित गणेश भगवान की बेटी बतलाया था। सिनेमा हॉल वाले मन्दिर के सामने महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती थी। लोग आरती लेकर (?) और पंडी जी (?) से टीका लगवा कर ही सिनेमा देखने के लिए हॉल में प्रवेश करते थे। तीन साल से कुछ ज़्यादा ही बिहार की राजधानी पटना शहर के एक ही हॉल- रूपक में टिकी रही थी ये फ़िल्म। तब लोगों का अनुमान था कि इसके मालिक ने टिकट से ज्यादा तो चढ़ावे से कमाया होगा। वैसे इसके व्रत-कथा की पुस्तिका और कई आकारों में तस्वीरें छापने वाली प्रेसों ने भी खूब कमाया। जैसे टी वी सीरियल रामायण आने के बाद बाज़ारों के तथाकथित राम (तस्वीरों) में अरुण गोविल नज़र आने लगे थे/हैं, वैसे ही इस फ़िल्म के बाद संतोषी माता की तस्वीरों में अनिता गुहा नज़र आने लगी थीं।
कुछ जानकारों से पता चलता था कि अगले दिन उस अस्थायी मन्दिर की वही सारी एकत्रित पूजन सामग्रियाँ आसपास कुकुरमुत्ते की तरह नयी खुली हुई पूजन-सामग्री की उन्हीं दुकानों में कुछ कीमत कम कर के पुनः बेचने के लिए भेज दी जाती थी; जहाँ से भक्तगण इसको खरीद कर एक दिन पहले चढ़ावा चढ़ाते थे। जैसे .. अक़्सर ब्राह्मण लोग श्राद्ध के तहत दान में मिले तकिया-तोशक, कम्बल-दरी, बर्त्तन, खटिया-चौकी इत्यादि पुनः उन्हीं दुकानों को बेच देते हैं तथा हम और हमारा (अंध)आस्थावान समाज इस मुग़ालते में रहता है, कि पंडी जी इसका उपयोग/उपभोग करेंगे तो .. हमारे मृत परिजन के अगले जन्म लेने तक इसका तथाकथित सुख तथाकथित स्वर्ग में आसानी से मिलता रहेगा .. शायद ...
तब तो मुहल्ले-शहर के हर तीसरे-चौथे हिन्दू घर में शुक्रवार को इनकी पूजा कर के उपवास रखने वाली महिलाएं मिल ही जाती थीं, जो सोलह शुक्रवार के बाद इस व्रत-कथा का उद्यापन करती थीं। उद्यापन के दिन शाम में आस-पड़ोस से पाँच, सात, नौ या ग्यारह की विषम संख्या में बच्चों को प्रसादस्वरूप शुद्ध शाकाहारी भोजन के रूप में खीर, पूड़ी, चना-आलू की सब्जी के अलावा कुछ मिठाइयाँ भी घर में बैठा कर बहुत ही आदरपूर्वक और श्रद्धापूर्वक खिलायी जाती थी। प्रत्येक शुक्रवार की तरह चना-गुड़ वाला प्रसाद भी मिलता था। साथ में एक-दो रूपये नक़द भी मिलते थे दक्षिणास्वरूप। बस, शर्त ये होती थी कि उस दिन कुछ भी खट्टा नहीं खाना होता था, वर्ना उस बच्चे को उस उद्यापन के भोज से वंचित रह जाना पड़ता था। क्योंकि मान्यताओं के अनुसार उस व्रत में खट्टा खाना पूर्णतः वर्जित था। खट्टा खा कर प्रसाद खाने से अनिष्ट होने का तथाकथित भय रहता था। पढ़ने का ज्ञान होने के बावज़ूद भी सत्यनारायण स्वामी की कथा को किसी पंडित(ब्राह्मण) से ही पढ़वाने जैसी कोई पाबन्दी इस व्रत-कथा में नहीं होती थी। इसी कारण से व्रत के दौरान प्रत्येक शुक्रवार को एक दिन में आस-पड़ोस के दो-तीन घरों में कथा पढ़ने के लिए बुलावा आने पर जाना पड़ता था। ऐसे में उद्यापन के दिन खिलाते समय कथावाचक पर विशेष ध्यान दिया भी जाता था।
आसपास किसी को किसी भी समस्या का हल चाहिए होता था, तो सब कहते- "सन्तोषी माता है ना ! बस .. सोलह शुक्रवार कर लो .. और मिल जाएगा समस्या का समाधान .. बस यूँ ही ... चुटकी बजा के हो जाएगा।" परन्तु कई व्रत करने वाली महिलाओं को विधवा होते भी देखा, अन्य और भी कई कारणों से उनके घर को उजड़ते देखा, उनके बच्चों को कई बार फेल होते देखा, मुक़दमा हारते हुए देखा, बीमार होते हुए देखा। वैसे तो आज हमारे समाज में वो सोलह शुक्रवार वाला परिदृश्य इतिहास बन चुका है। नयी पीढ़ी को तो इसके बारे में कोई भान या अनुमान भी ना हो .. शायद ...
ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और भाषाओं की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४)." में बकैती करते हैं, विस्तार से राजा आपका और तड़ीपार की .. बस यूँ ही ...
(तब तक आगामी सावनी पूर्णिमा की फैंटेसी (फंतासी) में अभी से खोने के लिए नीचे वाले गाने की लिंक को छेड़ भर दीजिए .. बस यूँ ही ...).